| 683 83 श्रीहरि:॥

तत्त्वचिन्तामणि

( सातों भाग एक साथ )

व्योक | जबलजर चट७ हैः . युक्त रक माय छः हू

कृष्णात्परे किमपि तत्त्वमह जाने

777 (अव्वल गेक्दक )----

[ 683 ] त० चि० म०

सं० २०६६ बारहवाँ पुनर्मुद्रण ३,००० कुल मुद्रण ४६,०००

* मूल्य--९० रू७ ( नब्बे रुपये ).

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प्रकाशक एवं मुद्रक--

गीताप्रेस, मोरखपुर-- २७३००५

( गोबिन्दभवन-कार्यालय, कोलकाता का संस्थान )

फोन: ( ०५०१) २३३४७२१, २३३९१२५०; फैक्स : ( ०५०१ ) २३३६९९७ 8-ाजो। : 99७058856090997855.0छ98. ४७१७जाँ8 : #रफ्श्द्[0855.09

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श्रीहरिः

'कल्याण 'में मेरे जो लेख प्रकाशित होते हैं, वे कई प्रेमी भाइयोंके आग्रहसे 'तत््वचिन्तामणि' नामसे अलग पुस्तकाक्राररूपमें निकाले जाते हैं। 'तत्त्वचिन्तामणि' के उन सातों भागोंमें "कल्याण ' के प्रारम्भसे तेईसवें वर्षतकके प्रायः मेरे सभी लेख चुके हैं। शास्त्रोंके अवलोकन तथा सत्पुरुषोंके संग करनेसे आत्मकल्याणकी

! जो बातें मेरी समझमें आयी हैं, वही सब बातें एन लेखोंमें बतायी गयी हैं। मेरा विश्वास है, जो कोई भी मनुष्य इन बातोंको काममें लायेंगे, उन्हें अवश्य लाभ हो सकता है; क्योंकि ये सब बातें अधिकांशमें साक्षात्‌ भगवान्‌ कृष्णके मुखसे कथ्चित गीता तथा ऋषि-मुनि-प्रणीद सत्‌-शास्त्रोंके आधारपर ही लिखी गयी हैं अतएब इन लेखोंसे सभी मनुष्य लाभ उठा सकते हैं। इनमेंसे बहुत-सी बातें ऐसी सुगम हैं कि जिन्हें खिना पढ़े-लिखे साधारण स्त्री-पुरुष और बालक-वुद्ध भी काममें लाकर लाभ उठा सकते हैं; क्योंकि मनुष्यको अपना जीवन किस प्रकार बिताना एवं किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये, यह सब बातें भी उनमें बतायी गयी हैं।

बड़े-बड़े विद्वान्‌ महात्माओंके सामने पारमार्थिक विषयोंपर मेरा कुछ लिखना वास्तबमें शोभा नहीं देता, इन विषयोंपर बड़े विद्वानोंकी भी कलम रुकती है, फिर मैं तो एक साधारण मनुष्य हूँ। श्रीमद्भगवद्गीता एवं श्रीभगवन्नामके प्रभावसे मैंने जो कुछ समझा है, उसीका कुछ भाव इन लेखोंमें दिखलानेकी चेष्टा की गयी है। इस पुस्तकसे यदि किसी पाठकके चिंत्तमें तनिक भी ज्ञान-वैराग्य और सदाचारका संचार होगा, तनिक- सी भी भगवद्धक्तिकी भावना उत्पन्त होगी और मनके गध्भीर प्रशनोंमें दो-एकका भी समाधान होगा तो बड़े आनन्दकी बात है।

मैं तो विद्वान हूँ और अपनेको उपदेश-आदेश एबं शिक्षा प्रदान करनेका ही अधिव्कारी समझता हूँ। मैंने तो अपने मनके विनोदके लिये कुछ समय भगवच्चर्चामें लगानेका प्रयत्रमात्र किया है, अन्तर्यामीकी प्रेरणासे जो कुछ लिखा गया है सो उसीकी घस्तु है, मेरा तो इसमें भी कोई अधिकार नहीं है।

इन लेखोंमें प्रतिपादित सिद्धान्तोंके लिये मैं यह नहीं कह सकता कि यह सबको मान लेने चाहिये या इनके विरुद्ध कोई सिद्धान्त ठीक नहीं है। मैंने केवल अपने हृदयके उन भावोंको कुछ-कुछ प्रकट करनेकी चेष्ठा की है, जिनके सम्बन्धमें घुझे अपने मनमें कोई भ्रान्ति नहीं है।

मेरा सभी पाठकोंसे निवेदन है कि वे कृपा कर उन निबन्धोंको मन लगाकर पढ़ें और उनमें रही हुई त्रुटियाँ मुझे बतलायें। बिनीत

जयदयाल गोचन्दका

प्रस्तुत ग्रन्थ--तत्त्वचिन्तामणि--गीताप्रेस तथा 'कल्याण ' के संस्थापक ब्रह्मलीच परमश्रद्धेव श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका है। उनके द्वारा गीताप्रेसकी स्थापनाके मूलमें गीताशास्त्रकी मूल प्रेरणाके अनुसार ' श्रीमद्धगवद्वीता' के सार्वभौम लोक-कल्याणकारी सिद्धान्तोंको जन-जनतक पहुँचाना ही निहित उद्देशय और “गीता-प्रचार' ( गीताकों सर्वजन-सुलभ बनाना, घर-घर, द्वास्द्वारमें प्रवेश करा देना ) ही उनका एकमात्र और सवोपरि जीवन-ब्रत था; जिसके लिये आपने जीवनपर्यन्त अथक प्रयास किया।

यह बृहत्‌-ग्रन्थ पहले 'तत्त्वचिन्तामणि' नामसे पुस्तकाकार कुल सात भागोंमें प्रकाशित हुआ था। बे सातों भाग अभी कुछ वर्षों पहले ही पुस्तकाकार अलग-अलग नामोंसे कुल तेरह भागोंमें भी पाठकोंके सुविधार्थ प्रकाशित हो चुके हैं। बे सभी अब अलगसे भी पुस्तकरूपमें उपलब्ध हैं। प्रेमी पाठकों और जिज्ञासुओंके मनन-अनुशीलनकी सुत्रिधाको ध्यानमें रखकर उन्हों सात भागोंकी सम्पूर्ण विषय-सामग्रीको एकस्थानीय करनेकी दृष्टिसे 'तत्त्वचिन्तामणि '-पूर्व नामसे ही अब उसे ग्रन्धाक्तारमें प्रकाशित किया गया है; जिसे सहृदय पाठकों और समस्त भगवत्प्रेमी महानुभाबोंकी सेवामें अर्पित करते हुए हमें साक्त्तिक आनन्द-भावकी अनुभूति हो रही है।

सभीसे हमारा यह विनीत अनुरोध है कि वे कम-से-कम एक बार इस ग्रन्थको मनोयोगपूर्वक अवश्य

पढ़ें और अपने परिजन तथा मित्रोंकों भी पढ़नेके लिये प्रेरित करें। --प्रकाशक

श्रीहरिं: सम्यादकका निवेदन

सत्य-सुखके विधातक जड़वादके इस विकास-युगमें, जहाँ ईश्वर और ईश्वरीय चर्चाको व्यर्थ बतलाने और माननेका दुःसाहस किया जा रहा है, जहाँ परलोकका सिद्धान्त कल्पना-प्रसूत समझा जाता है, जहाँ ज्ञान-वैराग्य-भक्तिकी बातोंकों अनावश्यक ओर देश-जातिकी उच्नतिमें प्रतिबन्धकरूप बतलाया जाता है, जहाँ मोतिक उन्नतिको ही मनुष्य-जीवनका परम ध्येय समझा जाने लगा है, जहाँ केवल इन्द्रिय-सुख ही परम सुख माना जाता है और जहाँ प्राय: समूचा साहित्य-क्षेत्र जड़-उन्नतिके विधायक अन्थों, मौज-शौकके उपन्यासों ओर गलपों एवं कुरुचि-उत्पादक शब्दाडम्बरपूर्ण रसीली कविताओंकी बाढ़से बहा जाता है, वहाँ भक्ति, ज्ञान, वैराम्य और निष्काम कर्मयोग-विषयक त्तात्तिक विषयोंकी युस्तकसे सबको सन्‍्तोष होना बहुत ही कठिन है तथापि गत तीन वर्षोके अनुभवसे मुझे यह पता लगा हैं कि नास्तिकताकी इस प्रबल आँधीके आनेपर भी ऋषि-मुनि-सेवित पुण्यभूमि भारतके सुदृढ़ मूल आध्यात्मिक सघन छायायुक्त बिज्ञाल तरुघरकी जड़ें अभी नहीं हिली हैं ओर उनका हिलना भी बहुत ही कठिन मालूम होता है। इस समय भी भारतके आध्यात्मिक जगतमें सच्चे जिज्ञासुओं ओर साधुस्वभावके मुमुक्षुओंका अस्तित्व है, यद्यपि उनकी संख्या घट गयी है। इस अचस्थामें यह आशा करना अयुक्त नहीं होगा कि इस सरल भाषामें लिखी हुई तत्त्वपूर्ण पुस्तकका अच्छा आदर होगा और लोग इससे विशेष लाभ उठावेंगे।

इन पंक्तियोंके लेखककी दृष्टिमें इस ग्रन्थके रचयिताका स्थान बहुत ही ऊँचा है। आध्यात्मिक जगतमें इस प्रकारके महान्‌ पुरुष बहुत ही थोड़े हैं। देवर्षि नारदने कहा है--

महत्सड़स्तु दुर्लभो5गम्योउ्मोघश्

महापुरुषोंका सड़ दुर्लभ, अगम्य ओर अमोघ है। यानी 'सच्चे सत्पुरुष सहजमें मिलते नहीं, मिलनेपर पहचाने नहीं जाते तथापि इनका सह्ढू कभी व्यर्थ नहीं जाता ।' इसी कथनके अनुसार मेरी यह धारणा है कि लोगोंने इन्हें भलीभाँति समझा या पहचाना नहीं है। वास्तवमें पहचानना है भी कठिन, एक सीधे-सादे साधारण बोलचालमें अनपढ़-से प्रतीत होनेवाले और गृहस्थमें रहकर व्यापारी-जीवन व्यतीत करनेबालेको इस रूपमें पहचानना भो कठिन है। मैंने देखा है जब अपनेको पढ़े-लिखे समझनेवाले छोग पहले-पहल इनसे मिलते हैं या इनका कोई प्रवचन सुनते है तो आरम्भमें इनकी हिन्दी भाषा और दब्दोंके उच्चारणमें दोष देखकर प्रायः समझ लेते हैं कि यहाँ क्या रखा है। कहीं-कहीं तो लोग ऊबकर उठ भी जाते है, परन्तु जो धैर्य धारण कर कुछ समयतक बैठे रहते हैं, उन्हें इनका ताक्त्विक विवेत्रन सुनकर चकित होना पड़ता है। लोगोंमें इस विधयकी ओर रुचि उत्पन्न हो, इसलिये बड़े उत्साहके साथ 'व्कल्याण'में प्रकाशनार्थ आप कृपापूर्वक लेख लिखवा दिया करते हैं ! आप झुद्ध हिन्दी नहीं लिख सकते, इसलिये मारवाड़ी-मिश्रित हिन्दीमें ही इनके लेख होते हैं, मैं अपनी शक्तिभर आपके भावोंकी रक्षा करते हुए भाषाका संशोधन कर लिया करता हूँ, इस ग्रन्थमें प्रकाशित लेखोंके सम्बन्धमें भी ऐसा ही किया गया है। यद्यपि मैने आपके भावोंकी रक्षाकी ओर पूरा ध्यान रखा है, तथापि मैं दृढ़तासे कह नहीं सकता कि सभी जगह में भावोंकी रक्षा कर पाया हूँ। कारण, कई जगह तो मुझे ऐसे भाव मिले हैं, जिनके समझनेमें बहुत समय लगाना पड़ा है। ऐसी स्थितिमें कहीं-कहीं भावोंमें यत्किझ्लित्‌ परिवर्तन हो गया हो तो भी आश्चर्य नहीं है। मुझे एक ऐसे सत्पुरुषके सड्का और उनके लेखोंके सम्पादनका सुअवस्र प्राप्त हुआ इससे मैं अपने लिये बहुत ही सोभाग्य समझता हैँ।

अन्थकारके सम्बन्धपें मैंने जो कुछ लिखा है, सो केवल मेरी अपनी तुच्छ धारणा है, में किसीसे यह नहीं कहना चाहता कि कोई भो मेरे इन शब्दोंके अनुसार ऐसा ही मान लें, ग्रन्थकार ही ऐसा चाहते हैं। इस निबेदनमें मैंने जो कुछ लिख दिया है, सो भी ग्रन्थकारसे बिना पूछे ओर बतलाये ही लिखा है, यदि मैं उनसे पूछता तो मेरा विश्वास है कवि वे मुझे इन उद्गारोंके प्रकाशनके लिये भी कभी अनुमति नहीं देते ! अस्तु

अब पाठक-पाठिकाओंसे यह निबेदन है कि से इस ग्रन्थको मननपूर्बक पढ़े ओर यदि इसमेंसे उन्हें अपने लिये कोई बात लाभजनक प्रतीत हो तो उसे अबरय ग्रहण करें

गोरखपुर बिनीत--

विजयादशमी सं" १९८६ हनुमानप्रसाद पोहार (कल्याण-सम्पादक)

3 औपरणात्मने नम:

विषय-सूची

विषय पृष्ठ-संख्या विषय पृष्ठ-संख्या (तत्त्वचिन्ताभणि भाग-१) “# ज्ञानीकी अनिर्वचनीय स्थिति *-**«* श्‌ १५. प्रत्यक्ष भगवदर्शनके उपाय «***««« --२: ज्ञनकी दुर्लभता 4 दे १६ उपासनाका तत्व **«०००००००००००००० ४९ -३: भ्रम अनादि और सान्त है ******* हे १७. सच्चा सुख और उसकी प्राप्तिक उपाय... (२ «४. निराकार-साकार-तक्त्व ***०*००*००*** है. १८. घर-घरमें भगवानकी पूजा *******-* ६१ >पय कल्याणका तत्त्व ***२-*००५-०-०००- जवेगायनो ४: अकी ६३ ६. कल्याण-प्राप्तके उपाय “०००५-०० श्र २०. गीतासम्बन्धी प्रश्नोत्तर ०००००००००००- ६८ -४: भगवान्‌ क्या है? ****०*०***०**०* श्ड २१. गीतोक्त संन्यास या साोख्ययोग ***** 3३ ८. त्यागसे भगव््याप्ति -००००००००००** २२ २२. गीतोक्त निष्काम कर्मयोगका स्वरूप « ८० ९, जरणागति “********«----८०--०*-- २७ 00000 (७० १०, अनन्यप्रेम ही भक्ति है -*----*-०- ३२ | २४. धर्म और उसका प्रचार **-०*०*--- ८६ ११. गीतामें भक्ति ०*०*०*००००*०००-०** ड्ंड २७ व्यापार सुधार्की आवदयकता ****** ट्एु श्र. श्रीप्रेम-भक्ति- प्रकादा 20 5५» कि ३६ २६. व्यापारसे मुक्ति » » » “2 कक लजउल ९३ १३. ईश्वर-साक्षात्कारके लिये नापजप २७. मनुष्य कर्म करनेमें स्व॒तन्त् सं्वोपरि साधन है *%००००००००५०५०५ ०५ ३० है.& हे या परतन्त् ००००००००००००-००५०००० ९५ १४. भगवानके दर्शन प्रत्यक्ष हो 2 ९७ सकते हें ०: » » मनन लिन हम २९. मृत्यु-समयके उपचार *०००००००००००० १०३ (तत्त्वचिन्तामणि भाग-२) ३०. मनुष्यका तय ---777+ जी १०७ है ईश्वर दयालु और न्यायकारी है वन श्प३ ३१. हमारा कर्तव्य ««००००००००-०-००-०००५ १०७ हम भगकानकी ठुया -०००००००००००००००० १५७७ ३२. धर्मकी आवश्यकता “*००००००००००० १११ ७, ईश्वर सहायक हें « « » » अशकप दीप जि दिलिलिलिल १६१ ३३. शीघ्र कल्याण कैसे हो ? -:-*----- ११३ ४८. प्रेमसे ही परमात्मा मिल सकते हैं १६२ ३४. संध्योपासनकी आवश्यकता *****-- ११८ ४९, प्रेमका सच्चा स्वरूप ----०००००-०००० दर्द ३५. बलिवैश्वदेव «५ /६« हा, . फिर ११९ ७०. आत्मनिवेदन **०००००००००००००-०००० १७१ ३६. एक निवेदन ********०**--०--**** १२० ५१. ध्यानकी आवश्यकता **:०*०*००*०* श्छ५्‌ ३७. भंगवत्माप्तिके विविध उपाय ******** १२१ ५२. भक्तराज प्रह्माद और घ्रुव --::-००*- १७७ ३८. श्रद्धा और सत्संगकी आवश्यकता १२९ ५३. भावनाके अनुसार फल *----*०**-* १७७ ३९. ईश्वर-सम्बन्धी वक्ता और श्रोता ****- १३१ बह पत्यकों वास मुक्ति ---लिला १छ९ ४०. महात्मा किसे कहते है ? ----*--*-- १३३ ५५. रामायणमें आदर्दा भ्रातृ-प्रेम -*--*-** श्ट९ ४१. महापुरुषोंकी महिमा **०*-०-००००००- १३८ ५६. श्रीसीताके चरित्रसे आदर्दा शिक्षा **. २१८ ४२. जन्म कर्म मे दिव्यम्‌ *------*** १४० 'एकीईस प्रश्च॒ तवववदावदवतातद- ,वााकानतान २२९ ४३. भगवान्‌का अवतार-झरीर ******०** श्डद ७८. शंका-समाधान -**-०००००००००**** २३२ ४४. भगवान्‌ श्रीकृष्णका प्रभाव +******* श्डट ५९. ईश्वर और संसार -०-०००००००००००५० श्८्

नोट--पुराने पाठकोंके सुविधार्थ तृतीय संस्करणसे तत्तचिन्तामणिके पुराने भागोंके लेखोंके क्रमसे पूरी विषय-सूची पुनः तैयार की गयी है।

ता)

विषय पृष्ठ-संख्या विषय पृष्ठ-संख्या ६०, जीव-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर *०*०*००००*०* २३६ ७०. गीताके अनुसार कर्म, बिकर्म और ६१. जीवात्मा "*८--८८०*०::००००००००००००० २४२ अकर्मका स्वरूप *००००००००००००००० स्द्द५ २. तत्त्व-विचार *******००००००००००००० र४ड४ड ७१, गीतोक्त क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम हर होने ६३. अनन्य दरणागति **:०००००००००००- र्प्श्‌ ७२. गीता मायावाद मानती है या ६४. गीतोक्त साख्ययोग *०००००००००००००० र्ण्रे परिणामलाद 2. २६८ __ ६५. गीतोक्त सांख्ययोगका स्पष्टीकरण “*-* २०० | ७३. गीतामें ज्ञानयोग आदि शब्दोंका पृथकू- धदृ६. गीताकां उपदेश “+००:००००००००००-८ रण पृथक्‌ अर्थोमें प्रयोग *««०००००००००- स्द्दर्‌ ६७. गीता और योगदर्ज्धन +०००००००००००- स्ण्र्‌ ७४. श्रीमद्धगवद्गीताका प्रभाव *«०००००००० २७१ ६८. गीताके अनुसार जीवन्युक्तका लक्षण «२६० ७५. तेरह आवश्यक बातें «**-०*--०-** श्छ्५ ६९. गीताके अनुसार जीव, ईश्वर और ७६. मनन करने योग्य ---००-०००००-०००- २७६ ब्रह्मका विवेचन --**०****००**०*०*** श्द२ ७७ सार बातें --०*०००००००००००००००००० २७७ (तत्त्वन्षित्तामणि भाग-३) ७८. मनुष्य-जीवनका अमूल्य समय **--* ३१२ ९५ परमार्थ-प्रश्नोत्तती ०«००००००-०-०-०-- इधर ७९ समयका सदुपयोग «७०४०७ ७७०० ०७ ०७७ » ६4०] रद्द प्रश्नोत्तर «४०५०००५००००० ०००५ ०० ५» » ३७३ ८9, विषयसुखकी असारता ******०*०००० ३२१ ९७, भगवल्लाप्तिके उपाय ************** ३०७ ८१. कर्मयोगका रहस्य ******०००**०***० स्र५ ९८. भगवानके लिये काम कैसे ८२. धर्मसे लाभ ओर अधर्मसे हानि **०«. २७९ क्थिब्जीय -- ०.2 ३६० ८३ . नारी-धर्म *«**--००-+८०--****०-**** २८३ ९९. ईश्वर आओ परलोक “++7 5६८ - ३६४१ ८४. मिल और नीलसे हानि ***००००००००* र्ए्द्द १००, ईश्वर-तत्तव. *--**०*००००*०*०*०****०* ३६७ ८५. प्रतिकूलताका नाश --**-********* २९९ १०१, ईश्वर-महिसा ***********००*०*०००० ३४ ८६. पाप और पुण्य *********०******* ३०० १०२ ईश्वरमें विश्वास *****०*०००*००००००*०* ३८३ ८७, मांस-भक्षण-निष्देध ****०*०००००*०** ३०२ १०३, शिव-तत््व ********०००००००००००*०० उ्८द्‌ ८८. चित्त-निरोधके उपाय “**०००००००००० ३०७ १०४. दाक्तिका रहस्य ******०**०***०*०००** ३९४ ८९, ध्यानसहित नाम-जपकी महिसा ***** ३२८ १०५ गीतामें चतुर्भुजरूप *********००*** ३९९ ९०, प्रेम और शरणागति --------*०*०*- ३३२ | १०६. गीतोक्त साम्यवाद -----००-००-०००० ४०२ ९१. भावनादाक्ति *****:०००*०*०००८८*** ३३५ | १५०७. सांख्ययोग और कर्मयोग ********०* ३७० श्र सर्वोच्च घ्येय 828३३४३३७३३ ३७ कै | $ 8 8 8 8 8 ३३8२ ०८ मे देश-काल-तत्त्व 8००७००७७ ७० » » » 'ड०७५ ९३. तत्त-विचार *****८००**००००००-८-** ३४२ | .&०९. मैं कौन हूँ ओर मेरा क्या कर्तव्य है ? *.. ३६८ ९४, सर्वोपयोगी प्रश्न ०००००००००५-*०**** ३४७ | ११०. अमूल्य शिक्षा *-***-८०*००*८* ३४६ (तत्त्वचिन्तामणि भाग-४) १११. महाराज युधिष्टिरके जीवनसे ११६. भगवद्माप्तिके चार साधनोंकी सुगमताका आदर्श विक्षा | - - - -+००००६७+- 5 ४०७ रहस्य ५०००००००००००००००००००००००० ड४डर२ ११२. संत-महिमा ******०*०*०*८**००००००*- ४१५ ११७ कल्याणप्राप्तिकी कई युक्तियाँ हि मत ४५ ११३, भगवद्धक्तोंकी महिमा *०००---०***** ४२४ |; ११८. पस्मानन्दकी प्राप्तिके लिये साधनकी १५४, गीताके अनुसार स्थितप्रज्ञ, भक्त और आवश्यकता ******************* ४४७ - गुणातीतके लक्षण तथा आचरण -*-*. ४२८ ।, ११९. आचरण करने योग्य पचीस बातें --*** ण्द्द्रु ११५७ भगवद्याप्तिके कुछ साधन **-******* ४३७ १२०. अमूल्य वचन -********०*०****** ०७

(9)

विषय पृष्ठ-संख्या विषय पष्ठ-संख्या १२१. ब्राह्मणत्वकी रक्षा परम आवश्यक है ४५१ | १३२. भगवद्दर्शनकी उत्कण्ठा ““न-««० ०«** 3८९ १२२. बाल-शिक्षा “००० ००-०० *बत्ल्क्‍न्ल्न्लन ४०८ | १३३. परमात्माके ज्ञानसे परम शान्ति «०-०० ५२९ १२३. आज्ञापालून ओर प्रणाम न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍नन-- ४८८ १३४, भगवल्कृपा वचचचाचचनचवनचनिगिन्ननह नर ३५ १२४. कर्मयोगकी सुगरमता "*००००--०८०*०*** ४७८ | १३५, वारणागतिका स्वरूप और १२५, आध्यात्मिक गणभात्त - मनन ५६८ जा 775 ५३९ १२६. भगवान्‌ अवतार कब लेते हैं ? ४८० | १३६. भगवानूकी दरणसे परमपदकी प्राप्ति... ५४३ १२७. गीतोक्त दिव्यदृष्टि *"नन चलन ध्टद १३७. गीताका रहस्य न्‍न्‍चचचचचनचनननननन-०५२ ४५ १२८, चेतावनी *«चच्च्|चचाच्चचचचचच्न्ननननन्‍न्‍न ४९१ ्ज्ट प्रकृति-पुरुषका लिलेसना ७७० १२९. नवधा भक्ति *न्‍्ल्ल्ल्ववचलचलचचच्च आन मिल "पड १३०. अर्थ ओर प्रभावसहित नाम-जपका १४०, अष्टाड्रयोग “० ननचवचचच॑चवननननननन "पट अपहत््व च्वचचचच॑'च॑ा'चच'॑'॑'चिननगनननननलननन ५१५ १४१, विद्या, अविद्या और सम्भूति, १३१. ध्यानावस्थामें प्रभुसे वार्ताल्प "००**- ५१८ असम्भूतिका तत्व “चचचचचचचिििनिननन ५६३ (तक्त्वचिन्तामणि भाग-५) श्४२, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीगमके गुण और १७०८... शोकनागके उपाय न्‍न्न्‍्नन्‍्न्ननलग्न००४०० ' ४१ जरा ७२ १६०. कुछ साधन सम्बन्धी बातें ««००००००-- ६५० १४३, हमाय लक्ष्य और कर्तव्य *२०-००*९*- ५८३ | १६१. काम करते हुए भगवत्‌-प्राप्तिकी साधना. ६५६ १४४, जीवनका रहस्य *१०*०**-*"****"- . ५८६ | १६२. कुछ उपयोगी साधन ****«*«०*««२«०«- ६६० १४५. कुछ धारण करने योग्य अमूल्य बातें-«« ५९१९ १६३. समन्ध्या-गायत्रीका महत्त्व *०००००-००*०- ध्द्द्द १४६, ब्रह्मचर्य "-«०न्न्च्चचचनचनचचननचणचग ०००० 3 १६४, अदतारका सिद्धान्त न्‍च्च्च्च्न्‍तन्‍न्‍*० ६७३ १४७ त्रिविध तप *न्‍न्‍्चच्चचच॑॑॑नननननननन ५९८ १५७९, श्रद्धा-विश्वास 3500-22 दर्द १४८. धर्मके नामपर पाप २००००००००*०*००*»« ६०२ बज भवानी दिया" ६८० १४९ सच्ची वीरता “*न्‍तच्चच॑चचचनाननननननन- द्व०५ १६६. अनन्य प्रेम और परम श्रद्धा *०००००- ६८१ १५०, समाजके कुछ त्याग करने योग्य दोष ---_ ६०७ १६७, नामकी अनन्त महिमा «०«०-०-०-००००- द८५ १५१, प्राचीन तथा आधुनिक संस्कृति लत ६१२ १६८, ध्यान-साधन *न्‍न्‍न्‍चचचचन॑न॑॑-नननननन- ब्टट 0 जरुर! एवव00 0 76८ जड७ ६१६ १६९, प्रेम 2 गा ६९२ १५३. पशु-धन *नचचचचचाललनडननन्नन्नन्नन ६२१ ०. दारणागति और प्रेम "००--०--०-००-- ६९५ १५४, वनस्पति घीसे हानि *२००००००-००००*- ६२३ १५१ फेमसाथन :---- “नरक नल ६९७ १५५. प्राचीन हिन्दू राजाओंका आदर्श *-" . ६२४ | १७२. श्रीमद्धगवद्गीताका तात्तिक विवेचन *".. ७०० १५६. परलोक और पुरर्जन्म *चचन्‍न्‍न्‍न्‍॑॑+०- ६३१ १७३ बैराग्य-चर्चा -«ननच्नननचनचननचननन तन ७१३ १५७. तीर्थोमें पालन करने योग्य कुछ 5-१७४,_ आत्माके सम्बन्धमें कुछ प्रश्नोत्तर *-०-. ७१६ उायोगा लाने मम मम ६३९ | १७५, मुक्तिका स्वरूप-विवेचन ------०-००-. ७२० (तत्त्वचिन्तामणि भाग-६) १७६, महात्मा भीष्मपितामह **००००००००००- ७२५ १८१. पतिभक्ता गान्धारी *-००-०--०००००००- डर * १७७, धर्मराज युधिप्निर एएफ0एएएएश 00007 २७ १८२. महात्मा विदुर टन टोल जन ४९ १७८, वीरबर अर्जुन ०००3 5555 ७३२ १८३. मन्त्रिश्रेष्ठ सझ्य "२--०-««««०«०«०«००००-०- ७५२ १७९ _ कुन्तीदेबी अत लत ता १८४. भगवान्‌ वेदव्यास --न्न्ननचचच॑च॑ननन-- ५५ १८०, देवी द्रौपदी मा ७४३ १८५७ महाभारतकी महिमा *«न्‍च्चव|"ूून्‍-न्‍न्‍न्‍न ५७

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तत्त्वचिन्तामणि ज्ञानीकी अनिर्वच्नमीय स्थिति

जिस प्रकार असत्य, हिंसा और मैथुनादि कर्म बुद्धिमें बुरे निश्चित हो जानेपर भी उन्हें मन नहीं छोड़ता, इसी प्रकार बुद्धि- विचारद्वारा संसारको कल्पित निश्चय कर लेती है परंतु मन इस बातको नहीं मानता। साधककी एक ऐसी अवस्था होती है और इस अवस्थाकों इस प्रकारसे व्यक्त क्रिया जाता है कि 'मेरी बुद्धिके विचारमें संसार कल्पित हैं! इसके पश्चात्‌ जब आगे चलकर मन भी इस बातको मान लेता है तब संसासमें कल्पित भाव हो जाता है। परंतु यह भी केवल कल्पना ही होती है। इसके बाद जब अभ्यास करते-करते ऐसी स्थिति प्रत्यक्षवत्‌ हो जाती है तब साधकको किसी समय तो संसारका चित्र 'आकाशमें तिररों' की तरह भास होता है और किसी समय वह भी नहीं होता। जैसे आकादामें तिरवरे देखने- बालेको यह ज्ञान बना रहता है कि 'वास्तवमें आकाशमें कोई विकार नही है, बिना हुए ही भास होता है' इसी प्रकार उस साधकका भी भास होने और होनेमें समान ही भाव रहता है, उसे संसारकी सत्ताका किसी कालमें किसी और प्रकारसे भी सत्य भास नहीं होता इस अवस्थाका नाम 'अकल्पित स्थिति' है साधककी ऐसी अवस्था ज्ञानकी तीसरी भूमिकामें हुआ करती है परंतु इस अवस्थामें भी इस स्थितिका ज्ञाता एक धर्मी रह जाता है। इस तीसरी भूमिकामें साधनकी गाढ़ताके कारण साधकके व्यावहारिक कार्योँमें भूलें होनी सम्भव है। परन्तु भगवद्याप्तिरूप चोथी भूमिकामें प्रायः भूलें नहीं होतीं, उस अवस्थामें तो उसके द्वारा न्‍्याययुक्त समस्त कार्य सुचारुरूपसे स्वाभाविक ही बिना सड्डल्पके हुआ करते है। जैसे श्रीभगवानने गीतामें कहा है-- यस्थ॒ सर्वे समारम्या: कामसड्ुल्पवर्जिता: ज्ञानाग्रिदग्धकर्माणं तमाहूु: पण्डित बुधा: (४ १९) “जिसके सम्पूर्ण कार्य कामना और सट्डढूल्पसे रहित हें, ज्ञानरूप अग्रिद्वारा भस्म हुए कर्मोवाले उस पुरुषको ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं।' पञ्मम भूमिकामें व्यावहारिक कार्येमिं भूलें हो सकती हैं परंतु तीसरी भूमिकावालेकी अवस्था साधनरूपा है और पाँचवीं भूमिकावालेकी स्थिति स्वाभाविक है। तीसरी भूमिकाके बाद 'साक्षात्कार' होता है, इसीको मुक्ति

कहते हैं। कई जैन आदि मतावलम्बी छोग तो मृत्युके बाद मुक्ति मानते हैं, परंतु हमारे वेदान्तके सिद्धान्तमें जीवन्मुक्ति भी मानी गयी है, मृत्युके पहले भी ज्ञान हो सकता है। इस अवस्थामें उसका शरीर तथा शरीरके द्वारा होनेवाले कर्म केवल लोगोंको देखनेधात्रके लिये रह जाते हैं। उसमें कोई “धर्मी ' नहीं रहता। यदि कोई कहे कि जब उसमें चेतन ही भही रहा तो फिर क्रिया क्योंकर होती है ? इसके उत्तरमें कहा जाता है कि समष्टि-चेतन तो कहीं नहीं गया, व्यष्टि-भावसे हटकर उसकी स्थिति शुद्ध चेतनमें हो गयी समष्टि-चेतनकी सत्ता-स्फूर्तिसि क्रिया हुआ करती है, इसमें कोई बाधा नहीं पड़ती | इसपर यदि कोई फिर थह कहे कि चेतन तो जड पदार्थ और मुर्देमें भी है, उनमें क्रिया क्यों मही होती ? इसका उत्तर यह है कि उनमें क्रिया होनेका कारण अन्तःकरणका अभाव हैं, यदि योगीजन एक चित्तकी अनेक कल्पना करके मुर्दे या जड पदार्थमें चित्तका प्रवेश करवा दें तो उसमें भी क्रियाओंका होना सम्भव है।

कोई पूछे कि ज्ञानी कौन है ? तो इसके उत्तरमें कुछ भी नहीं कहा जा सकता। यदि शरीरको ज्ञानी कहा जाय तो जड़ शरीरका ह्ञानी होना सम्भव नहीं, यदि जीवको ज्ञानी कहें तो ज्ञानोत्तरकालमें उस चेतनकी 'जीव' संज्ञा नहीं रहती और यदि शुद्ध चेतनको ज्ञानी कहें तो शुद्ध चेतन तो कभी अज्ञानी हुआ ही नहीं। इसलिये यह नही बतलाया जा सकता कि ज्ञुनी कौन है?

ज्ञानीकी कल्पना अज्ञानीके अन्तःकरणमें है, शुद्ध चेतनकी दृष्टिमें तो कोई दूसरा पदार्थ है ही नहीं ज्ञानाको जब दृष्टि ही नहीं रही तो फिर सृष्टि कहाँ रहती ? अज्ञानीजन इस प्रकार कल्पना किया करते हैं कि इस शरीरमें जो जीव था सो समष्टि-चेतनमें मिल गया, समष्टि-चेतनके जिस अंझशमें अन्तःकरणकां अध्यारोप है उस अन्तःकरणसहित उस चेतमके अंशका नाम ज्ञानी है। वास्तविक दृष्टिमें ज्ञानी किसकी संज्ञा हैं यह कोई भी वाणीद्वास नहीं बतला सकता; क्योंकि ज्ञानीकी दृष्टिमें तो ज्ञानापन भी नहीं है। ज्ञाना और

अज्ञानीकी संज्ञा केबल लोकशिक्षाके लिये है और

अज्ञानियोंके अंदर ही इसकी कल्पना है। जिस प्रकार

# तत्त्चिन्तामणि *

गुणातीतके 'लक्षण' बतलाये जाते हैं। भला जो तीनों गुणोंसे अतीत है उसमें 'लक्षण' कैसे ? लक्षण तो अन्तःकरणमें बनते हैं ओर अन्तःकरणसे होनेवाली क्रिया त्रिगुणात्मिका है | बात यह है कि गुणातीतकों समझनेके लिये अन्तःकरणकी क्रियाओंके लक्षणोंका वर्णन किया जाता है जैसे श्रीमद्भगवत्‌- गीतामें कहा है-- प्रकाश ञ्र॒अवृत्ति तर मोहमेव चर पाण्डव। टब्वेष्टि संघ्रवुत्तानि ने निवृत्तानिं काड्क्षति॥ (१४ २२) इसीके आगे २३, २४ ओर रण्लें इलोकोंगें भी गुणातीतके लक्षण बतलाये गये हैं। उपर्युक्त २२वें इलोकके 'प्रकाश' शब्दसे अन्तःकरण और इन्द्रियोंमें उजियाला, प्रवृत्ति चेष्ठा और मोहसे निद्रा, आलस्य (प्रमाद या अज्ञान नहीं) अथवा संसारके ज्ञानमें सुघुम्तितत्‌ अवस्था समझनी चाहिये। अन्तःकरणमें कोई 'धर्मी ' रहनेके कारण 'देष' और आकाड्डा तो किसकी हो? राग-द्वेष और हर्ष-शोकादि होनेके कारण यह सिंद्ध होता है कि उसमें कोई 'धर्मी ' नहीं है। यदि जड अन्तःकरणके साथ समटष्टि-चेतनकी लिप्तता होता तो जड अन्तःकरणमें राग-द्वेषादि विकारोंका होना सम्भव होता। परंतु समष्टि-चेतनका सम्बन्ध अन्तःकरणसे नही रहता, केवल उसकी सत्ता-स्फूर्तिसे चेष्टा होती है। ये सब लक्षण भी वहींतक हैं जहाँतक संसारका चित्र है ओर ये साधकके लिये आदर्श उपायस्वरूप है, इसीलिये ज्ञास्त्रोंमें इनका उल्लेख है। गुमातीतकी जास्तविक अवस्थाको कोई दूसरा तो जान सकता है ओर बतला ही सकता है, वह स्वसंवेद्य स्थिति

लक्षण हैं या नहीं ? तो जानना चाहिये कि इसे ज्ञान नहीं है, लक्षणोंकी खोजसे यह बात सिद्ध हो गयी कि उसकी स्थिति शरीरमें है, उस ज्ञानीकी सत्ता ब्रह्मसे भिन्न है, नहीं तो खोजनेवाला कोन और स्थिति किसकी ? और यदि खोजना ही चाहे तो केवल गशारीरमें ही क्‍यों खोजे, पाषाण या वक्षोंमें उसे क्यों खोजे ? केबल इदारीरमें ढूंढ़नेसे उसका उशरीस्में अहंभाव सिद्ध होता है। इससे तो वह अपने-आप ही क्षुद्र बना हुआ है। हाँ, यदि साधक शरीरसे अलग होकर (द्रष्ट बनकर) पत्थर और वृक्षादिके साथ अपने शरीरकी सादृशयता करता हुआ विचार करे तो इससे उसे लाभ होना सम्भव है जैसे श्रीगीताजीमें कहा है-- नानये गुणेध्य: कर्तारं यदा द्रष्ठानुपश्यति गुणेभ्यक्ष परे चेत्ति मद्धावं सोडधिगच्छति (१४। १९) 'जिस कालमें द्रष्टा तीनों गुणोंक सिवा अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता है अर्थात्‌ गृण ही गुणोंमें बर्तते हैं ऐसा देखता है और तीनों गुणोंसे अति परे सच्िदानन्दघन मुझ परमात्माको तत्वसे जानता हैं, उस कालमें बह पुरुष मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है।' परन्तु जो कहता है कि 'मुझे ज्ञान नहीं हुआ' वह भी ज्ञानी नहीं है; क्योंकि वह स्पष्ट कहता है। जो कहता है कि 'मुझे ज्ञान हो गया' उसे भी ज्ञानी नहीं मानना चाहिये; क्योंकि यों कहनेसे ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीन पदार्थ सिद्ध होते है और जो यह कहता हैं कि 'ज्ञान हुआ कि नहीं मुझे मालूम नहीं' सो भी ज्ञानी नहीं है; क्योंकि ज्ञानोत्तकालमें इस प्रकरारका सन्देह रह नहीं सकता | तो ज्ञानी क्या कहे ? इसका उत्तर नहीं

हैं। परन्तु यदि कोई इस प्रकार परीक्षा करे कि मुझमें ज्ञानीक | मिलता | इसीलिये यह स्थिति 'अनिर्वचनीय' कही गयी है

विक---5 ही. क््ल्ल्च्ल

ज्ञानकी दुर्लभता

किसी श्रद्धालु पुरुषके सामने भी वास्तविक दुष्टिसे महापुरुषोंके द्वार यह कहना नहीं बन पड़ता कि 'हमको ज्ञान प्राप्त है'; क्योंकि इन राब्दोंसे ज्ञाममें दोष आता है। वस्तवमें पूर्ण श्रद्धालुके लिये तो महापुरुषसे ऐसा प्रश्न ही नहीं बनता कि 'आप ज्ञानी हैं या नही 7” जहाँ ऐसा प्रश्न क्रिया जाता है वहाँ श्रद्धामें त्रुटि ही समझनी चाहिये और महापुरुषसे इस प्रकारका प्रश्न करनेमें प्रश्रकर्ताकी कुछ हानि ही होता है | यदि महापुरुष यों कह दे कि मै ज्ञानी नहीं हूँ तो भी श्रद्धा घट जाती है ओर यदि वह यह कह दे कि मैं ज्ञानी हूँ तो भी उसके मुँहसे ऐसे शब्द सुनकर श्रद्धा कम हो जाती है। वास्तवमें तो मैं अज्ञानी हूँ या ज्ञानी--इन दोनोंमेंसे कोई-सी बात कहना भी

महापुरुषके लिये नही बन पड़ता, यदि वह अपनेको अज्ञानी कहे तो मिथ्यापनका दोष आता है और ज्ञानी कहे तो नानात्वका इसलिये वह यह भी नहीं कहता कि में ब्रह्मको जानता हूँ और यह भी नहीं कहता कि मैं नहीं जानता | वह ब्रह्मको जानता हैं ऐसा भी उससे कहना नहीं बनता परन्तु वह नहीं जानता हो ऐसी बात भी नहीं है। श्रुति कहती है-- नाहं मन्‍ये सुवेदेति नो येदेति वेद ऋ। यो नस्तद्वेद तहेद नो वेदेति वेद चा॥ यस्यामत॑ तस्य मत्त मत॑ यस्यथ बेद सः। अविज्ञातं बिजानता. विज्ञातनविजानत्ताम्‌ (केन० २-३)

* ज्ञानकी दुर्लभता * जद

इसीलिये इसका नाम अनिर्वचनीय स्थिति है; इसीलिये बेदमें दोनों प्रकारके शब्द आते है और इसीलिये महापुरुष यह नहीं कहते कि मुझे प्राप्ति हो गयी। इस सम्बन्धमें वे स्वयं अपनी ओरसे कुछ भी कहकर वेद-शञासत्रोंकी तरफ संकेत कर देते हैं। परंतु ऐसा भी नहीं कहते कि मुझे प्राप्ति नहीं हुई ऐसा कहना तो उत्तम आचरण करनेवाले आचार्य या नेता पुरषोंके लिये भी योग्य नहीं; क्योंकि इससे उनके अनुयायियोंका ब्ह्मकी प्राप्तिको अत्यन्त कठिन मानकर निराश होना सम्भव है। जैसे यदि आज कोई परम सम्माननीय पुरुष कह दे कि मुझे प्राप्ति नहीं हुई है, में तो स्वयं प्राप्तिके लिये उत्सुक हूँ तो ऐसा कहनेसे उनके अनुयायीगण या तो यह समझ बैठते है कि जब इनको ही प्राप्ति हुई तो हमको क्योंकर होगी या यों समझ लेते हैं कि इतने अंशमें सम्माननीय पुरुषके राब्द या तो अयथार्थ है या असली स्थितिको छिपानेवाले हैं और इस प्रकारके दोषारोपसे उन छोगोंकी श्रद्धामें कुछ कमी होना सम्भव है अतएव इस विषयमें मोन ही रहना चाहिये। इन सब बातोंपर विचार करनेसे यही सिद्ध होता है कि महापुरुषके लिये ज्ञानी वा अज्ञानी किसी भी ब्दका प्रयोग उसके अपने मुखसे नहीं बनता | इतना होनेपर भी महापुरुष यदि अज्ञानी साधकको समझानेके लिये उसे ज्ञोनोपदेश करते समय उसीको भावनाके अनुसार अपनेपें ज्ञानीकी कल्पना कर अपनेको ज्ञानी शब्दसे सम्बोधित कर दे तो भी कोई हानि नहीं, वास्तवमें उसका यों कहना भी उस साधककी दुष्टिमें ही है और ऐसा कहना भी उसी साधकके सामने सम्भव हे जो पूर्ण श्रद्धालु और परम विश्वासी हो, जो महापुरुषके शब्दोंकों सुनते ही स्वये वैसी बनता जाय और जिस स्थितिका वर्णन महापुरुष करते हो उसी स्थितिमें स्थित हो जाय। इसपर ऐसा कहा जा सकता है कि श्रद्धा और विश्वास तो पूर्ण है परन्तु वैसी स्थिति नहीं होती, इसके लिये वह बेचाण श्रद्धालु साधक क्या करे ? यह ठीक है, परन्तु साधकके लिये इतना तो परमावश्यक हैं कि वह श्रवणके अनुसार ही एक ब्रह्ममें विधासी होकर उसीको प्राप्तिके लिये पूरी तरहसे तत्पर हो जाय, जबतक उसे प्राप्ति हो तबतक वह उसके लिये परम व्याकुल रहे | जैसे किसी मनुष्यको एक जानकारके द्वारा उसके घरमें गड़ा हुआ धन मालूम हो जानेपर वह उसे खोदकर निकालनेके लिये व्याकुल होता है, यदि उस समय उसके पास बाहरके आदमी बैठे हुए हों तो वह सच्चे मनसे यही चाहता है कि कब यह लोग हटें, कब में अकेला रहूँ और कब उस गड़े हुए धनको निकालकर हस्तगत कर सकूँ। इसी प्रकार जो साधक यह समझता है कि मेंरे साधनमें

बाधा देनेवाले आसक्ति और अज्ञान आदि दोष कब दूर हों और कब में अपने परमधन परमात्माको प्राप्त करूँ | जितनी ही देर होती है उतनी ही उसकी व्याकुलता और उत्कण्ठा उत्तरोत्तर प्रबल होती चली जाती है और वह उस विलम्बकों सहन नहीं कर सकता। यदि इस प्रकारके साधकके सामने महापुरुष स्पष्ट शब्दोंमें भी अपनेको ज्ञानी स्वीकार कर ले तो भी कोई हानि नहीं, परंतु इससे नीची श्रेणीके साधक और अपूर्ण प्रेमियोंके सामने यो कहनेसे उस महापुरुषकी तो कोई हानि नहीं होती परन्तु अनधिकारी होनेके कारण उस सुननेवालेके पारमार्थिक विषयमें हानि होना सम्भव है। यदि यह बात सभीको स्पष्ट कहनेकी होती तो शास्क्रोंमें इसे परम गोपनीय कहा जाता और केवल अधिकारीको ही कहनी चाहिये ऐसा विधि होती कोई यह कहे कि महापुरुषकी परीक्षा कैसे की जाय और यदि बिना परीक्षाके ही किसी अयोग्य व्यक्तिको गुरु वा उपदेशक मान लिया जाय तो शाख्त्रोंमें उससे उल्टी हानि होना कहा गया है। यह प्रश्न और शास्त्रोेंका कथन तो उचित ही है परन्तु जिसका सड्ग करनेसे परमात्मामें, उस महापुरुषमें और शास्तरोंमें श्रद्धा उत्पन्न हो जाय, उसे गुरु या उपदेशक माननेमें कोई हानि नहीं | यदि कोई पूर्ण भी हो तो जहाँतक उसकी गति है वहाँतक तो वह पहुँचा ही सकता है, (इस दृष्टिसे महापुरुषकी सड्भति करनेवाले साधकोंका सड्ग भी उत्तम और लाभदायक है) आगे परमात्मा खयं उसे निभा लेते है। साधकको आवश्यकता है परसमात्माके परायण होनेकी। श्रीपरमात्माकी शरण लेनेमात्रसे ही सब कुछ हो सकता है। श्रीभगकानने कहा है--- अनन्याक्चित्तवन्तों मां ये जना: पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेम॑ वह्ाम्यहम (गीता | २२) अर्थात्‌ जो अनन्यभावसे मुझमें स्थित हुए भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते है उन नित्य एकीभावसे मुझमें स्थित पुरुषोंका योगश्षेम में स्वयं वहन करता हूँ। संसारमें भी यही बात देखनेमें आती है कि यदि कोई किसीके परायण हो जाता है तो उसकी सारी संभाल वही रखता है, जैसे बच्चा जबतक अपनी माताके परायण रहता है तबतक उसकी रक्षाका ओर सब प्रकारकी सँभालका भार माता स्वयं ही अपने ऊपर लिये रहती है जबतक बालक बड़ा होकर स्वतन्त्र नहीं होता तबतक माता-पिताके प्रति उसकी परायणता रहती है ओर जबतक परायणता रहती है तबतक माता-पितापर ही उसका साथ भार है। इसी प्रकार केवछ एक

है. # तत्त्तचिन्तामणि *

परमात्माकी शरण लेनेसे ही सारे काम सिद्ध हो सकते हैं। | प्रभु खवय॑ उसका साथ भार सँभाल लेते है। अतएव परंतु शरण लेनेका काम साधकका है। शरण होनेके बाद तो | कल्याणके प्रत्येक साधकको परमात्माकी शरण लेनी चाहिये

हम जज >> भ्रम अनादि ओर सानन्‍्त है

आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप होनेके कारण ज्ञानकी प्राप्ति करनी नहीं पड़ती और उसकी प्राप्तिमें कोई परिश्रम या यत्नकी ही आवश्यकता है किसी अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करनेमें परिश्रम और यत्र करना पड़ता है परंतु यहाँ तो केवल नित्य- प्राप्त ब्रह्ममें जो अप्राप्तिका भ्रम हो रहा है उस भ्रमको मिटा देना ही कर्तव्य है। वास्तवमें यह भ्रम ब्रह्मको नहीं है। यह भ्रम उसीमें है जो इस संसारके विकारको नित्य मानता है। वास्तवमें तो बअहामें भूल होनेके कारण उसे मिटानेके लिये परिश्रम करना भी एक भ्रम ही है, परंतु जबतक भूल है तबतक भूलको मिटानेका साधन करना चाहिये, अवश्य ही उन लोगोंको, जो इस भूलमें है। जो इस भूलकों मानता है उसके लिये तो यह अनादिकालसे है। ऐसा कहा जाता है कि अनादिकालसे होनेवाली वस्तुका अन्त नहीं होता। पर यह ठीक नहीं; क्योंकि भूल तो मिटनेवाली ही होती है, यदि भूल है तो उसका अन्त भी आवश्यक है। यदि ऐसा माना जाय कि यह सान्त नहीं है तो फिर किसीको भी 'प्राप्ति' नहीं हो सकती | इसलिये यह अनादि और सान्त अवश्य है। यदि यह माना जाय कि यह भूल अनादिकालसे नहीं है, पीछेसे हुई है तो इसमें तीन दोष आते है--प्रथम तो 'प्राप्त' पुरुषोंका पुनः भूलमें पड़ना सम्भव है, दूसरे सृष्टिकर्ता ईश्वरपर दोष आता

है और तीसरे नये जीवोंका बनना सम्भव होता है। इस हेतुसे यह अनादि ओर सान्त ही सिद्ध होती है। वास्तवमें कालकी कल्पना भी मायामें ही है; क्योंकि ब्रह्म तो शुद्ध और कालातीत है |

वेद, शास्त्र और तत्त्ववेत्ता महापुरुषोंका भी यह कथन है कि एक शुद्ध बोध ज्ञानखरूप परमात्मा ब्रह्मके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है परंतु किसी भी व्यक्तिके द्वारा 'संसार असत्‌ है' यों कहा जाना उचित नहीं; क्योंकि वास्तवमें यों कहना बनता नहीं। संसारको असत्‌ माननेसे संसारके सत्यिता सुष्टिकर्ता ईश्वर, विधि-निषेधात्मक शासत्र, लोक-परलोक और पाप-पुण्य आदि सभी व्यर्थ ठहरते है और इनको व्यर्थ कहना या मानना अनधिकारकी बात है। जिस वास्तबिकतामें जुद्ध ब्रह्यके अतिरिक्त अन्यका आत्यन्तिक अभाव है उसमें तो कुछ कहना बनता नहीं, कहना भी वहीं बनता है कि जहाँ अज्ञान है ओर जहाँ कहना बनता है वहाँ सृष्टिके रचयिता, संसार और शासत्र आदि सब सत्य हैं और इन सबको सत्य मानकर ही शासत्रानुकुल आचरण करना चाहिये | सात्तिक आचरण और भगवानकी विशुद्ध भक्तिसे अन्तःकरणकी शुद्धि होनेपर जिस समय भ्रम मिट जाता है उसी समय साधक कृतकृत्य हो जाता है। यही परमात्माकी प्राप्ति है।

2 है ब्व्ननन- निराकार-साकार-तत्त्व

एक शुद्ध ब्रह्मके अतिरिक्त और जो कुछ भी भासता है सो वास्तवमें नहीं है, केवल स्वप्नवत्‌ प्रतीति होती है। बेद, वेदान्त और उपनिषद्का यही सर्वोच्च सिद्धान्त है, यही स्वामी श्रीशड्डुराचार्यजीका मत है और यही वास्तवमें न्यायसिद्ध सिद्धान्त है परंतु यह बात इतनी ऊँची ओर गोपनीय है कि सहजहीपमें सहसा इसका प्रकाश करना अनुचित है। इस सिद्धान्तको कहने और सुननेवाले बहुत ही थोड़े हुआ करते है, इसको कहनेका वही अधिकारी है जो स्वयं इस स्थितिमें हो और सुननेका भी वही अधिकारी है जो सुननेके साथ ही इस स्थितिमें स्थित हो जाय। जो इस प्रकारके नहीं है उनको कहनेका अधिकार है ओर सुननेका | जिनको राम-द्वेष- होता है, जो सांसारिक हानि-लाभमें दु:खित और हर्षित होते हैं, जो दःख और सुखका भिन्न-भिन्न रूपसे अनुभव करते हैं

तथा जो विषयलोलप और इन्द्रियागाम है उनको तो इस सिद्धान्तके उपदेशसे उलटी हानि भी हो सकती है। वे लोग मान बैठते है कि जब संसार स्वप्नवत्‌ है तो असत्य, व्यभिचार, हिंसा और छल-कपट आदि पाप भी स्वप्रबत्‌ ही है | चाहे सो करो, कोई हानि तो होगी नहीं। यों मानकर वे लोग परिश्रमसाध्य सत्कर्मोंको त्यागकर भिन्न-भिन्न रूपसे पापाचरण करने लग जाते हैं; क्योंकि सत्कर्मोंके करनेकी अपेक्षा उन्हें छोड़ देगा और पाप-कर्मोंमें छग जाना सहज है। इसीलिये अनधिकारियोंको इस सिद्धान्तका उपदेश करनेके लिये शास्तरोंकी आज्ञा है; क्योंकि अनधिकारी लोग इस सिद्धान्तको यथार्थरूपसे समझकर झत्कर्मोको त्याग देते हैं, ज्ञानकी प्राप्ति उन्हें होती नहीं अतएवं उभयश्रष्ट हो जाते हैं। यह दोहा प्रसिद्ध ही है--

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बह्मज्ञान उपज्यो नहीं, कर्म दिये छिटकाय | तुलसी' ऐसी आत्मा, सहज नरकमें जाय इसलिये श्रीभगवानने मीतामें भी कहा है-- बुद्धिभेदे जनयेदज्ञानां. कर्मसड्िनाम्‌ जोषयेत्‌ सर्वकर्माणि विद्वान्‌ युक्त: समाचरन्‌ | (३। २६) 'ज्ञानी पुरुषको चाहिये कि कमोमें आसक्तिवाले अज्ञानियोंकी बुद्धिमें भेद अर्थात्‌ कर्मोमें अश्रद्धा उत्पन्न करे, किन्तु स्वयं परमात्माके स्वरूपमें स्थित हुआ सब कर्मोको अच्छी तरह करता हुआ उनसे भी वैसे ही कर्म करावे ।' ज्ञनी और अज्ञानीके कर्मोमें यही अन्तर है कि ज्ञानीके कर्म अनासक्त भावसे स्वाभाविक होते है और अज्ञानीके कर्म आसक्तिसहित होते है। श्रीगीतामें कहा है-- सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्बन्ति भारत कुर्याद्विह्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुलोंकसंग्रहम्‌ (३।२५) 'हे अर्जुन ! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जैसे कर्म करते हैं वेसे ही अनासक्त हुआ ज्ञानी भी लोकशिक्षाको चाहता हुआ कर्म करें ।' कहनेका तात्पर्य यह है. कि शुद्ध ब्रह्मकी चर्चा केवल अधिकारियोंमें ही होनी चाहिये। लोग कह सकते हैं कि जब एक शुद्ध ब्रह्मके अतिरिक्त और कुछ है ही नही तो इससे सृष्टि और सृष्टिकर्ता ईश्वरका भी होना ही सिद्ध होता है और यदि यही बात है तो फिर इनके प्रतिपादन करनेवाले प्रमाणभूत शासत्र और प्रत्यक्ष दीखनेवाली सृष्टिकी क्या दशा होगी ? इसका उत्तर यही है कि जैसे आकाश निराकार है, आकाझमें कहीं कोई आकार नही परन्तु कभी-कभी आकाशमें बादलके टुकड़े दीख पड़ते हैं, वे बादलके टुकड़े आकाझतमें ही उत्पन्न होते हैं, उसीमें दीख पड़ते हैं और अन्तमें उसी आकाशमें शान्त हो जाते है। आकाशकी वास्तबिक स्थितिमें कोई अन्तर नहीं पड़ता परन्तु आकाशका जितना स्थान बादलोंसे आबृत होता है उतने अंशमें उसका एक विशेष रूप दीखता है और उसमें वृष्टि आदिकी क्रिया भी होती है। इसी प्रकार एक ही अनन्त शुद्ध ब्रह्ममें जितना अंश मायासे आच्छादित दीखता है उतने अंजश्ञका नाम सगुण ईश्वर हैं, वास्तवमें यह संगुण ईश्वर शुद्ध ब्रह्मसे कभी कोई दूसरी भिन्न वस्तु नहीं किन्तु मायाके कारण भिन्न दीखनेसे सगुण ईश्वरको ल्मेग भिन्न मानते हैं | यही भिन्नरूपसे दीख पड़नेवाला 'सगुण चैतन्य, सृष्टिकर्ता ईश्वर है; इसीको आदिपुरुष, पुरुषोत्तम

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और मायाविशिष्ट ईश्वर कहते है। आकाशके अंदमें मेघोंकी भाँति इस सगुण चैतन्यमें जो यह सृष्टि दीखती है वह मायाका कार्य है। माया सृष्टिकर्ता ईश्वरकी शक्तिका नाम है | जैसे अग्नि ओर उसकी दाहिका शक्ति होती है उसी प्रकार सूष्टिकर्ता ईश्वर और उसकी शक्ति माया है। इसे ही प्रकृति कहते हैं और इसीका नाम अज्ञान है। यह माया क्या है और कैसे उत्पन्न होती है ? यह एक भिन्न विषय है, अतएव इस विषयपर यहाँ कुछ लिखकर मूल-विषयपर ही लिखा जाता है। इस वर्णनसे यह समझना चाहिये कि निरकार आकाहकी भाँति उस सर्वव्यापी अनन्त चेतनका नाम तो जुद्ध ब्रह्म है, वास्तवमें आकाशका दृष्टान्त भी एकदेशीय ही है; क्योंकि आकाशकी तो सीमा भी है और उसका कोई आकार होनेपर भी उसमें शब्दरूपी एक गुण भी है परन्तु शुद्ध ब्रह्म तो असीम, अनन्त, निर्मुण, केवछ ओर एक ही है, इसीलिये वह अनिर्वचनीय है और इसीलिये उसका उपदेश केवल उसी अधिकारीके प्रति किया जा सकता है, जो उसे धारण करनेमें समर्थ है। यह तो शुद्ध ब्रह्मकी बात हुई इसी शुद्ध ब्रह्मका जितना अंश (आकाशके मेघोंसे आवृत्र अंशकी भाँति) अलग दीखता है वही मायाविशिष्ट सृष्टिकर्ता सगुण ईश्वर है ओर उसी परमात्माके एक अंशमें सारे ब्रह्माण्डकी स्थिति हैं। अस्तु ! अब इसके बाद साकार ईश्वर यानी अवतारका विषय आता है, जब वह सगुण ईश्वर आवद्यकता समझते हैं तभी बह अपनी मायाकी अधीन करके जिस रूपमें कार्य करना होता है उसी रूपमें प्रकट हो जाते है। कभी मनुष्यरूपमें, कभी वाराह और नृसिंहरूपमें, कभी मत्य और कच्छपरूपमें, कभी हंस ओर अश्वरूपमें। इसी प्रकार आवश्यकतानुसार अनेक रूपोममें ईश्वर साक्षात्‌ अवतीर्ण हो लोगोंको दर्शन देकर कृतार्थ करते हैं परन्तु उनका यों संसास्में प्रकट होना प्राकृत जीवोंके सदृश्ञ नहीं होता, ईधरके अवतीर्ण होनेका समय और हेतु भगवानने श्रीगीताजीमें कहा हैं-- यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्धानमधर्मस्य तदात्मान॑ सृजाम्यहम ॥। परित्राणाय साधूनां बिनाशाय चर दुष्कृताम। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवाघि युगे युगे॥ (४ छ-८) हे अर्जुन ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है तब-तब ही मैं अपने रूपको प्रकंट करता हूँ। मैं साधु

| पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये और दूषित कर्म करनेवालोंका | विनाश करनेके लिये तथा धर्मकी स्थापनाके लिये युग-युगमें

च्दू * तत्त्यक्षिन्तामणि *

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प्रकट होता हूँ।' इस समय पृथ्वीपर ऐसा कोई अवत्तार नहीं दौखता जो यो कह दे कि मैंने साधुओंका उद्धार करनेके लिये अवतार लिया है, संसारमें साधु अनेक मिल सकते हैं किन्तु उन साधुओंके उद्धारके लिये अंबतीर्ण होकर आनेवाला कोई नहीं दीखता भगवान्‌ श्रीकृष्णकी भाँति यों कहनेवाला कि-- सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेक॑ शरण ब्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यों मोक्षयिष्यामि मा शुक्त: (गीता १८ | ६६) सब धर्मकि आंश्रयकों छोड़कर केवल शक मुझ वासुदेवकी ही अनन्य झरण हो जा, मैं तुझको सारे पापोंसे छुड़ा दूँगा, तू चिन्ता कर ।' यों एकमात्र अपनी शरणसे ही यापोंसे मुक्त कर देनेका बचन देनेवाला इस समय संसारमें कोई अवत्तार नहीं | कुछ दिनों पहले एक सज्जनने मुझसे पूछा था कि पृथ्वीपर पाप तो बहुत बढ़ गया है, क्या भगवान्‌के अवतार लेनेका समय अभी नहीं आया ? यदि आया है तो भगवान्‌ अवतार क्यों नहीं लेते ? मैंने उनसे कहा था कि मुझे मालूम नही यह तो कोई बात ही नहीं कि में सभी बातोंका जानकार होऊँ, भगवान्‌ अवतार क्‍यों नहीं लेते, इस बातको भगवान्‌ ही जानें | हाँ, यदि कोई मुझसे पूछे कि भगवान्‌के अवत्तार लेनेसे तुम प्रसन्न हो या नहीं, तो मैं यही कहुँगा कि में भगवानके अवतार लेनेसे बहुत प्रसन्न हूँ; क्योंकि इस समय यदि भगवानका अवतार हो जाय तो मुझे भी उनके दर्शन हो सकते है। यदि कोई सरलतासे यह पूछे कि तुम्हारे अनुमानसे भगवानके अवत्तार लेनेका समय अभी आया है या नही ? तो मैं अपने अनुमानसे यही कह सकता हूँ कि वह समय सम्भवतः अभी नहीं आया, यदि वह समय आया होता तो भगवान्‌ अक्तीर्ण हो जाते। कलियुगमें जैसा कुछ होना चाहिये अभीतक उससे कुछ अधिक नहीं हो रहा है। भगवान्‌के अन्य अवतारोंके समय जैसा अत्याचार बढ़ा था, धर्म और धर्मप्राण ऋषियोंकी जैसी दुर्दशा हुई थी वैसी अभी नही हुई है। भगवान्‌ श्रीगमचन्द्रके समयमें तो राक्षसोंके द्वार मोरे हुए ऋषियोंकी हड्डियोंके ढेर लग गये थे।

. प्रक्ष-क्या ऋषियोंमें राक्षसोंके बंध करनेका सामर्थ्य नहीं था और यदि था तो उन्होंने राक्षओॉका वध क्यों नहीं किया ?

उत्तर--ऋषियोंमें राक्षसोंक वध करनेका सामर्थ्य था, परन्तु वे अपना तपोबल क्षीण करना नहीं चाहते थे। जिस समय श्रीविश्वामित्रजीने महाराज दशरथके पास आकर यज्ञकी

रक्षाके लिये श्रीराम-लक्ष्यणको माँगा, उस समय भी उन्होंने यही कहा था कि 'यद्यपि में राक्षस्ोंका वध स्वयं कर सकता हूँ परन्तु इससे मेरा तप क्षय होगा जिसको कि मैं करना नहीं चाहता। श्रीराम-लक्ष्मणके द्वारा सक्षस्तोंका वध होनेपर मेरे यज्ञकी रक्षा भी होगी तथा मेरा तपोबल भी सुरक्षित रह जायगा। श्रीराघ-लक्ष्मण राक्षस्रोंकी सहजहीमें मार सकते हैं, इस बातको मैं जानता हूँ, तुम नही जानते ।' महाराज दशरथने मोहसे श्रीरम-लक्ष्मणको साधारण बालक समझकर अपत्य- खेहके वरशीभूत हो विश्वामित्रसे कहा कि “नाथ ! मैं स्वयं आपके साथ चलनेको तैयार हूँ, एक गवणको छोड़कर और सारे राक्षत्रोकी मार सकता हूँ। आप सम-लक्ष्मणको लेकर मुझे ले चलिये।' इस प्रकार राजाको मोहमें पड़े हुए देखकर श्रीवसिष्ठजी महाराजने, जो भगवान्‌ श्रीसमके प्रभावको तत्त्वसे जानते थे, दशरथजीको समझाकर कहा कि 'राजन्‌ ! तुम किसी प्रकास्की चिन्ता करो, ये साधारण बालक नहीं हें, इन्हें कोई भय नहीं है, तुम प्रसन्नताके साथ इन्हें विश्वामित्रजीके साथ भेज दो।' इस प्रसड़से यह जाना जाता है कि ऋषिगण सामर्थ्यवान्‌ तो थे, परन्तु अपने तपोबलसे काम लेना नहीं चाहते थे। कलियुगमें अभीतक ऐसा समय उपस्थित हुआ नहीं जान पड़ता कि जिससे भगवानको अवतार लेना पढ़े और भगवान्‌ यों सहसा अवतार लिया भी नहीं करते | पहले तो वे कारक पुरुषोंको अपना अधिकार सौंपकर भेजते हैं, जेसे मालिक अपनी दूकान सँभालनेके लिये विश्वासी मुनीमको भेजता है | पर जब वह देखता है कि मुनीमसे कार्य सिद्ध नहीं होगा, मेरे स्वयं गये बिना काम नहीं चलेगा तब वह स्वयं जाता है; इसी प्रकार जब कारक पुरुषोंके भेज देनेपर भी भयवान्‌की अपने अवतार लेनेकी आवश्यकता प्रतीत होती है तब वे स्वयं प्रकट होते है। कारक पुरुष उन्हें कहते हैं कि जो भगवत्कृपासे अपने पुरुषार्थद्वारा इस इलोकके अनुसार-- अग्निर्ज्योतिरह: शुक्लः बण्मासा उत्तराषणम | तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्यलिदों जना:॥ (गीता ८। र४) भिन्न-भिन्न देवताओंद्वारा क्रमसे अग्रसर होते हुए अन्तमें भगवानके सत्यलोकको पहुँचते हैं। इस लोकमें जानेवाले महात्माओंका स्वागत करनेके लिये भगवानके पार्षद (अमानव पुरुष) विमान लेकर सामने आते है और उन्हें बड़े आदर-सत्कारके साथ भगवानके उस परमधाममें ले जाते हैं बह धाम प्रलयकालमें नाश नहीं होता, वहाँ किसी प्रकारका दुःख और शोक नहीं है। एक बार जो उस धाममें पहुँच जाता

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है उसका फिरसे कर्म-बन्धनयुक्त जन्म नहीं होता। इसी लोकको सम्भवतः श्रीविष्णुके उपासक वैकुण्ठ, श्रीकृष्णके उपासक गोल्लेक ओर श्रीशमके उपासक साकेतलोक कहते हैं। इस लोकमें पहुँचे हुए महात्मागण महाप्रलयपर्यन्त सुखपूर्वक वहाँ निवास कर अन्तमें शुद्ध ब्रह्ममें शान्त हो जाते हैं। ऐसे लोगोंमेंसे यदि कोई महापुरुष सृष्टिकर्ता भगवान्‌की प्रेणासे अथवा अपनी इच्छासे केवल जगत॒का हित करनेके लिये संसारमें आते है तो वे कारक पुरुष कहलाते हैं। ऐसे लेगोंके दर्शन, स्पर्श, भाषण और चिन्तनसे भी श्रद्धालु पुरुषोंका उद्धार हो सकता है। श्रीवसिष्ठजी और बेदव्यासजी

महाराज आदि ऐसे ही महापुरुषोंमेंसे थे इन लोगोंका जगत्‌में

प्रकट होना केवल जगत्‌के उद्धारके लिये ही होता है, जिस प्रकार किसी कारगारमें पड़े हुए कैदियोंको मुक्त करनेके लिये किसी विशेष अवसरपर राजाके प्रतिनिधि अधिकार लेकर कारागारमें जाते है और वहाँ जाकर बन्धनमें पड़े हा कैदियोंको बनधनसे मुक्त कर, ख्तन्त्रतासे वापस लौट आते है। जेलमें कैदी भी जाते हैं और राजाके प्रतिनिधि भी | भेद इतना ही है कि कैदी तो अपने किये हुए दुष्कर्मोका फल भोगनेके लिये परवश्ञ होकर जेलके बन्धनमें जाते हैं और राजाके प्रतिनिधि स्वतन्त्रतासे दयाके कारण बन्धममें पड़े हुए कैदियोंको मुक्त करनेके लिये जेलमें जाते है। इसी प्रकार कारक पुरुष भी संसारमें केवल बन्धनमें पड़े हुए जीवोंको मुक्त करनेके लिये ही प्रकट होते हैं। अवतास्में और कारक पुरुषमें यही अन्तर है कि अवतार तो कभी जीवभावको प्राप्त हुए हो नहीं और कारक पुरुष किसी कालमें जीवभावकों प्राप्त थे परंतु भगवत्‌-कृपासे अपने पुरुषार्थद्वारा क्रममुक्तिसे वे अन्तमें इस स्थितिको प्राप्त हो गये। इस समय अबतार और कारक पुरुष तो जगतमें देखनेमें नहीं आते, जीवन्पुक्त महात्मा अलबत्ता मिल सकते है।

मुक्ति दो प्रकार्की होती है--सद्योमुक्ति और क्रममुक्ति | जो इसी देहमें अज्ञानसे सर्दथा छूटकर नित्य, सत्य, आनन्द- बोधस्वरूपमें स्थित हो जाते है, जिनके सारे कर्म ज्ञानाभिके द्वारा भस्म हो जाते है और जिनकी दृष्टिमें एक अनन्त और असीम परमात्मसत्ताके सिवा जगत्‌की भिन्न सत्ताका सर्वथा अभाव हो जाता है ऐसे महापुरुष तो जीवन्मुक्त कहलाते हैं, इसीका नाम स्योमृक्ति है। और जो उपर्युक्त क्रमसे लोकान्तरोंमें होते हुए परमधामतक पहुँचते है वे क्रममुक्त कहलाते है। इस मुक्तिके चार भेद हैं, यथा -+सामीपष्य, सारूप्य, सालोक्य और सायुज्य। भगवान्‌के समीप निवास करनेका नाम सामीष्य है, भगवानके समान स्वरूप प्राप्त

होनेका नाम सारूप्य है, भगवानके समान लोकमें निवास करनेका नाम सालोक्य है और भगकानमें मिल जामेका नाम सायुज्य है। जो दास-दासी वा माधुर्यभावसे भगवानकी भक्ति करते हैं उन्हें सामीप्य-मुक्ति, जो मित्रभावसे भजते है उन्हें सारूप्य-मुक्ति, जो वात्सल्यभावसे भजते है उन्हें सालोक्य- मुक्ति और जो वैरभावसे या ज्ञानमिश्रिता भक्तिसे भगवान्‌की उपासना करते हैं उन्हें सायुज्य-मुक्ति प्राप्त होती है।

ऐसे महापुरुष इस समय भी जगतूें हैं। जीवन्मुक्त वही होता है जो पहले जीवभावको प्राप्त था, पीछेसे पुरुषार्थके द्वारा मुक्त हो गया। जैसे श्रीशुकदेवजी और राजा जनकादि।

जीवोंमें पहली श्रेणीमें तो कुछ ऐसे महापुरुष हैं कि जो जीवभावसे मुक्त हो चुके है। दूसरे ऐसे लोग इस समय मिल सकते है कि जो दैवी सम्पत्तिका आश्रय लिये हुए मुक्तिके मार्ममें स्थित हैं और मुक्तिके बहुत समीप पहुँच चुके हैं, सम्भव है कि उनकी इसी जन्ममें मुक्ति हो जाय या किसीको एक जन्म और भी धारण करना पड़े। ऐसे पुरुष भी जीवब्युक्तोंकी भाँति काम-क्रोध और शोक-हर्षके अधीन प्रायः नहीं होते |

प्रश्न--प्राचीन कालमें ऋषियोंके और महात्माओंके हर्ष-शोक हुए हैं, ऐसे लेख अन्थोंमें मिलते हैं। इसका क्या कारण है ?

उत्त-जिनकी राग-द्रेषके कारण हर्ष-शोकका विकार होता है वे तो जीवम्मुक्त नहीं समझे जा सकते, परन्तु यदि कर्तव्यवश॒ लोकमर्यादके लिये किसी-किसी अंगमें महात्माओंमें हर्ष-शोकका व्यवहार दीखता है तो कोई हानि नहीं। भगवान्‌ श्रीरामचन्द्रजीने तो सीताके हरण हो जानेपर और लक्ष्मणके शक्ति लगनेपर बड़ा विछाप किया था, वह भी ऐसे शब्दोंमें ओर ऐसे भावसे कि जिसे देख-सुनकर बड़े-बड़े लोगोंको मोह-सा होने लगा था, किंतु वह केवल भगवान्‌का व्यवहार था और उसमें तो एक विलक्षण बात और भी थी। भगवान्‌ श्रीरामने श्रीसीताजी और लक्ष्मणके लिये व्याकुलतासे विल्ापकर जगत्‌को महान्‌ प्रेमकी और अपने मृदु स्वभावकी बड़ी भारी शिक्षा दी थी। भगवानने श्रीगीताजीमें अपना यह स्वभाव बतलाया है कि--

ये यथा मां प्रपद्यचन्ते तास्तथैव भजाम्यहम।

'जो मेरेको जैसे भजते है मैं भी उनको वैसे ही भजता हूँ।! इसीके अनुसार भगवान्‌ श्रीरामने श्रीसीताजीके लिये विलाप करते हुए वृक्षों, शाखाओं और पत्तोंसे समाचार पूछ-पृछकर वह सिद्ध कर दिया कि जिस तरहसे इस समय रावणके हाथोंमें पड़ी हुई सीता रामके प्रेममें निमम्म होकर

# ततक्त्वचिन्तामणि *

'राम-राम' पुकार रही है उसी प्रकार राम भी सीताके ' ग्रेम-बच्धनमें बैंधकर प्रेमसे विहल हो 'सीता-सीता' पुकार रहे हैं। यों ही लक्ष्मणके लिये विलाप कर भगवान्‌ श्रीरामने यह सिद्ध कर दिया कि रामके लिये लक्ष्मण जिस प्रकार व्याकुल हो सकता हैं, उसी प्रकार राम भी आज लक्ष्मणके लिये व्याकुल हैं। इससे हमलोगोंकों यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि भगवानक्ो हम जिस प्रकार भजेंगे भगवान्‌ भी हमें उसी प्रकार भजनेके लिये तैयार हैं | यह तो भगवानकी बात हुई पर ऋषि-महात्माओंमें भी लोक-व्यवहारमें हर्ष-शोकका-सा भाव हो सकता हैं। जीवन्मुक्त और मुक्तिक समीप पहुँचे हुए छोगोंकी बात ते हुई। अब संसारमें ऐसे पुण्यात्मा सकाम योगी भी हैं कि जो-- धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण: घण्मासा दक्षिणायनम्‌। तत्र चान््रमस ज्योति्योगी प्राप्प निवर्तते (गीता | २७) .... इस इलोकके अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओंद्वारा अग्रसर होते हुए चन्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होकर स्वर्गमें अपने शुभ कर्मोंका फल भोगकर वापस लौट आते हैं। पूर्वकारुमें ऐसे योगी भी हुआ करते थे कि जिनको आढों प्रकारकी अथवा उनमेंसे कोई-कोई-सी सिद्धियाँ प्राप्त रहती थीं, वर्तमान कालमें यह विद्या लुप्रप्राय हो चुकी है। वास्तवमें केवल सिद्धियोंकी प्राप्तिसि परम कल्याण भी नहीं होता। सिद्धियोंसे सोस्तारिक सुख मिल सकते हैं परंतु मोक्ष नहीं मिलता, इसीलिये शाखरकारोंने इन सिद्धियोंको मोक्षका बाधक और जागतिक सुखोंका साधक माना है। सिद्धियोंको प्राप्त करनेवाले योगी प्रायः सिद्धियोंमें ही रह जाते हैं परन्तु ऊपर कहे हुए मुक्तिके मार्ममें स्थित योगी तो मोक्षरूप परम सिद्धिको प्राप्त कर लेते हैं इसीलिये उनका दर्जा इनसे ऊँचा है। श्रश्न--आठ सिद्धियाँ कौन-सी हैं, कैसे प्राप्त होती हैं और उनसे क्या-क्या काम होते है ? उत्तर--सिद्धियोंक नाम अणिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और बद्वित्व हैं। इनकी प्राप्ति अष्टाड्रयोगके साधनसे होती है और इन सिद्धियोंसे इस प्रकार कार्य हो सकते हैं-- अणिमा-- अपने खरूपको अणुके समान बना लेना, जैसे श्रीहनुमानजी महाराजने लेकामें प्रवेश करनेके समय बनाया था। गरिमा--शरीरको भारी वजनदार बना लेना, जैसे कर्णके बाण चलानेपर अर्जुनको बचानेके लिये सारथिरूपसे

रथपर बैठे हुए भगवान्‌ श्रीकृष्णने बनाया था और अपने भारसे घोड़ोंसमेत रथको जमीनमें बैठा दिया था।

महिमा--हरीस्को महान्‌ विशाल बना लेना, जैसे भगवान्‌ श्रीवामनजीने बनाया था।

लथधिमा--शरीरको अत्यन्त हरूका बना लेना

प्राप्ति--इच्छानुसार पदार्थोको प्राप्त कर लेना, जैसे भरद्वाज मुनिने भस्तजीके आतिथ्यके समय किया था।

प्राक्ाम्य--कामनाके अनुसार कार्य हो जाना |

ईशित्य--ईश्वरके समान सृष्टि-रचना करनेका सामर्ध्य हो जाना।

वशित्व--अपने प्रभावसे चाहे जिसको अपने बचमें कर लेना

ये आठ सिद्धियाँ हैं, आजकल इन सिद्धियोंको प्राप्त किये हुए पुरुष देखनेमें नहीं आते | सत्य-भाषणसे वाणीका सत्य हो जाना आदि उपसिद्धियोंको प्राप्त हुए पुरुष तो कहीं-कहीं मिल सकते हैं।

प्रश्न-क्या सत्य बोलमेवालेकी वाणीसे निकले हुए सभी शब्द सत्य हो जाते हैं ?

उत्त--अवश्य हो जाते हैं, उपनिषद्‌ ओर पुणणादिमें इसके अनेक प्रमाण हैं जिनसे सिद्ध होता है कि प्राचीन कालमें ऐसा हुआ करता था। छोटे-से ऋषिकुमारने राजा परीक्षित्‌कों शाप दे दिया था, तो उसीके अनुसार ठीक समयपर साँपने आकर परीक्षितकों डढस लिया। जब राजा नहुषने इन्द्रपदपर आरूढ़ होकर ऋषियोंको अपनी पालकीमें जोता और कामान्ध होकर इन्द्राणीके पास जाने लगा तथा घर सर्प' कहकर ऋषिको ठुकराया था, तब ऋषिने कहा था कि तुम सर्प हो जाओ, तदनुसार वह तुरंत साँप हो गया। प्रार्थना करनेपर फिर उसीको यह वरदान दिया कि द्वापरबुगमें भीमको पकड़नेपर महाराज युधिष्ठिरसे तुम्हारी भेंट होगी तब तुम्हारा उद्धार होगा, यह बचन भी सत्य हुआ। अतएव यह सिद्ध होता है कि सत्यवादीके मुखसे निकला हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है। हाँ, यदि कोई सत्यवादी कभी जान- बूझकर असत्य बोले तो उतने शब्द सत्य नहीं होते, जैसे महाराज युधिष्ठिस्ने जान-बूझकर अश्वत्थामाके मरनेकी सन्दिग्ध बात कही थी तब अश्वत्थामा नहीं मश परन्तु यदि कोई केवल सत्य ही बोले तो उसकी बाणीके सत्य होनेमें कोई सन्देह नहीं

आजकल कुछ ऐसे पुरुष भी मिल सकते हैं कि जिन लोगोंने मन और इन्द्रियोंको प्रायः बद्ञमें कर लिया है, जिनको महीनोंतक ख्रोके साथ एक शब्यापर सोते रहनेपर भी

* कल्याणका तत्त्व * हि.

कामोद्रेक नहीं होता, भोजनकी चाहे जैसी सामग्री सामने होनेपर भी मन नहीं चलता, क्रोध और झोकके बड़े भारी

कारण उपस्थित होनेपर भी क्रोध और शोक नहीं होता। परंतु :

ऐसा कोई महापुरुष मेरे देखनेमें नहीं आया कि जिसके दर्शन, स्पर्श, भाषण या चिन्तनसे ही उद्धार हो जाय, जैसे श्रीनारदजी महाराजके दर्शन और उपदेशस्ले छाखों ही प्राणियोंका उद्धार हो

गया, श्रीशुकदेवजीके उपदेशसे -छाखोंका कल्याण हुआ, जीवन्मुक्त आचार्येके चिन्तनसे अनेक शिष्योंका उद्धार हुआ और बंगालके श्रीचैतन्यमहाप्रभुके दर्शन, स्पर्श और उपदेशसे हजारोंका कल्याण हुआ। इतना अवश्य कह सकता हूँ कि यदि मनुष्य चाहे तो ऐसा बन सकता है कि जिसके दर्शन, स्पर्श, भाषण और चिन्तनसे ही लोगोंका उद्धार हो जाय |

न्ज्स्च है. कऊ्नप5

कल्याणका तत्त्य

सब प्रकारके दुःखोंसे, विकारोंसे, गुणों और कर्मोंसे सदाके लिये मुक्त होकर परम विज्ञान आनन्दमय स्वरूप परमात्माको प्राप्त कर लेना ही परम कल्याण है। इसीको कोई मुक्ति, कोई परम पदकी प्राप्ति, कोई निर्वाणपदकी प्राप्ति और कोई मोक्ष कहते हैं। इस स्थितिको प्राप्त करमेका अधिकार मनुष्यमात्रको है। श्रीभगवानने कहा है--

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येडपि स्थु: परापयोनय: र्त्रियो वैश्यास्तथा शुद्गास्तेषपि यान्ति परां गतिभ्‌ (गीता ९।३२) 'मेरी शरण होनेवाले ख्तरी, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि (अन्त्यजादि) कोई भी हो (सब) परम गतिको प्राप्त होते हैं।! अतएव जो मनुष्य परमात्माके भजन-ध्यानद्वारा इस प्रकार संसारसे मुक्त होकर परम पदको पा जाता है उसीका मानव-जीबन कृतार्थ होता है।

इस विषयमें ल्लेग भिन्न-भिन्न प्रकारकी भ्रमात्मक बातें किया करते हैं जिनमेंसे मुख्य ये तीन हैं---

१-- वर्तमान देश-कालमे या इस भूमिपर मुक्ति सम्भव नहीं है एवं गृहस्थ और नीच वर्णोमे मुक्ति नहीं होती ।'

२-- मुक्त पुरुष दीर्घकालपर्यन्त मुक्तिका सुख भोगनेके बाद पुनः संसारमें जन्म लेते है ।'

३-- मुक्ति ज्ञानसे होती है। काम, क्रोध, असत्य, चोरी और व्यभिचारादि बिकारोंके रहते भी ज्ञान हो जानेपर मनुष्य जीवन्मुक्त हो सकता है। उपर्युक्त विकार तो अन्तःकरणके धर्म है, जबतक अन्तःकरण है तबतक प्रारब्धानुसार इन विकारोंका रहना भी अनिवार्य है।'

ये तीनों ही विचार वास्तवमें तो सत्य है और लाभग्रद वा युक्तियुक्त ही हैं। वर॑ इनके माननेसे बड़ी हानि होती है तथा लोगोंमें भ्रम फैलता है इसलिये यहाँ इसी विषयपर क्रमशः विचार किया जाता है।

१--मुक्तिकां काश्ण आत्मज्ञान है और उस आत्म- साक्षात्कारके लिये निष्काम कर्मयोग, ध्यानयोग और ज्ञानयोगादि प्रत्येक देश-कालमें सुसाध्य उपाय वेद-शास्त्रोमे

बतलाये गये हैं।

कोई खास युग, देश, वर्ण या आश्रममात्र ही मुक्तिका कारण नहीं माना गया है। साधनसम्पन्न होनेपर प्रत्येक देश-कालमें ओर प्रत्येक वर्ण-आश्रममें मुक्तिकी प्राप्ति हो सकती है। उपर्युक्त गीताके इलोकसे भी यही निर्णीत है। मुक्तिके लिये श्रुति-स्मृतियोंमें कहीं भी कलियुग, भारतभूमि या किसी वर्णाश्रमका निषेध नहीं किया गया है। आजतकके संत-महात्माओंके जीवन-चरित्रेंसे भी यहो सिद्ध होता है कि प्रत्येक देश, भूमि, वर्ण और आश्रममें साधन करनेपर मुक्ति हो सकती है। विष्णुपुराणमें एक प्रसड़ है--

'ऐसा कौन-सा समय है कि जिसमें धर्मका थोड़ा-सा अनुष्ठान भी महत्‌ फल देता हो,” इस विषयपर एक बार ऋषियोंमें बड़ी बहस हुई, अन्तमें वे सब मिलकर इस प्रश्नका निर्णयात्मक उत्तर पानेके लिये भगवान्‌ वेदव्यासके पास गये | व्यासजी महाराज उस समय भगवती भागीरथीमें स्नान कर रहे थे, ऋषिगण उनकी प्रतीक्षापें जाह॒वीके तटपर वक्षोंकी छायामें बैठ गये। थोड़ी देर्के बाद व्यासजीने बाहर निकलकर मुनियोंको सुनाते हुए क्रमशः ऐसा कहा 'कलियुम ही साधु है,' 'हे शूद्र ! तुम्हीं साधु हो, तुम्हीं धन्य हो !' हे खियो ! तुम धन्य हो, तुमसे अधिक धन्य और कौन है ?' इससे मुनियोंको बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने कौतृहलसे व्यासजीसे इन वचनोंका मर्म पूछा। व्यासदेवने कहा कि यहौ तुम्हारे विवादग्रस्त प्रश्नका उत्तर है। इन तीनोंमें मनुष्य अल्पायाससे ही परमगति पा सकता है। दूसरे युगॉमें, दूसरे वर्णोमें और पुरुषोंमें तो बड़े साधनसे कहीं कुछ होता है, परन्तु--

स्वल्पेनेव प्रयल्लेन धर्म: सिद्धयति वै कलौ। नरैरात्मगुणाम्भोभि: क्षालिताखिलकिल्बिण: शद्दैश्न हिजशुश्रूषातत्परैर्मुनिसत्तमा: तथा खस्त्रीभिरनायासं पतिशुश्रूषयेतय हि ततख्रितयमप्येतनन्‍्यम धन्यतमं सतम (विष्णुपुरण ६।२। ३४--३६) 'हे मुनिगण ! कलियुगमें मनुष्य सदवृत्तिका अवलम्बन

श्छठ

» तत्त्वचिन्तामणि *

करके थोड़े-से प्रयाससे ही सारे पार्पोसे छूटकर धर्मकी सिद्धि पाता है। शूद्र द्विलसेवासे ओर स्रियाँ केवल पतिसेवासे अल्पायाससे ही उत्तम गति पा सकती हैं। इसीलिये मैंने इन तीनोंको धन्यतम कहा है।' इससे यह सिद्ध होता है कि वर्तमान देश-कालमें और स्त्री, शूद्रोंक लिये तो मुक्तिका पथ और भी सुगम है।

थोड़ी देरके लिये यदि यह भी मान लें कि वर्तमान देश-कालमें और प्रत्येक वर्णाश्रममें मुक्ति नहीं होता, छोग भूलसे ही उत्साहपूर्वक मुक्तिके लिये साधनमें लगे हुए हैं तथापि यह तो नहीं माना जा सकता कि इस भूलसे वे कोई अपना नुकसान कर रहे हैं। मुक्ति सही, परन्तु साधनका कुछ-न-कुछ तो उत्तम फल अवश्य ही होगा। सत्तगुणकी वृद्धि होगी, अन्तःकरणको शुद्धि होगी और दैवी सम्पत्तिके

गुणोंका विकास होगा। जब मुक्ति होता ही नहीं तब वह तो

साधक और असाधक दोनोंकी ही नही होगा, परन्तु साधकमें साधनसे सदुणोंकी वृद्धि होगी और साधनहीन मनुष्य कोरा-का-कोरा ही रह जायगा | इसके अतिरिक्त यदि वर्तमान देश-कालमें प्रत्येक मनुष्यकी मुक्ति होती होगी तो साधककी तो हो ही जायगी, परन्तु साधन करनेवाला सर्वथा वश्चित रह जायगा। जब वह साधनमे प्रवृत्त ही नहीं होगा तब मुक्ति कैसी ? अतएव वह बेचारा भ्रमसे इस परम लाभसे वज्चित रहकर बारम्बार संसारके आवागमन-चक्रमें घूमता रहेगा। अतए्‌व इस युक्तिसे भी प्रत्येक देश-कालमें और प्रत्येक वर्णाश्रममें मुक्तिका सुगम मानना ही उचित, श्रेयस्कर और तर्कसिद्ध है।

२--श्रुति, स्मृति और उपनिषदादि सदग्रन्धोंमें कहींपर भी मुक्त पुरुषोंके पुनरागमन-सम्बन्धी प्रमाण नहीं मिलते। पुनरागमन उन्हींका होता है जो सकामी पुण्यात्मा पुरुष अपने पुण्यबलसे ख्वर्गादि लेकोंको प्राप्त होते है। भगवानने कहा है--

तऔैविधा मां सोमपाः पूतपापा यज्ञेरिष्द्व स्वर्गति प्रार्थयन्ते ते चुण्यमासाह्य सुरेन्द्रलोक- मश्नन्ति. दिव्यान्दिवि देवभोगान्‌॥ ते ते भुक्त्वा स्वर्गलोकंे विशाल क्षीणे पुण्ये मर्त्ललोक॑ विशन्ति एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागत॑े कामकामा लभन्ते

(गीता २०-२१) मुक्त पुरुषके सम्बन्धमें तो श्रुति-स्मृतियोंमें स्थाव-

स्थानपर उनके पुनः संसारमें आनेके ही प्रमाण मिलते हैं श्रीभगवानने गीतामें कहा है--

आन्रह्मघुबनाल्‍लोका: पुनरावर्तिनोउर्जुन मामुपेत्य॒ तु कौन्तेय पुनर्ज्य विद्यते॥ (८। ९६)

'हे अर्जुन! ब्रह्मलोकसे लेकर सब लोक पुनरावर्ती स्वभावबाले हैं, परन्तु हे कोन्तेय ! मुझको प्राप्त होनेपर पुनर्जन्म नहीं होता।'

'न॒च्ा॒ पुनरावर्ततेी पुनरावर्तते' (छान्दोग्यण १५ १)

नावर्तन्ते' (छासदाग्यन | १५। ६)

'तेघामिह न॑ पुनरावृत्ति:'

मे मरानवमाबर्त

(बुहर ॥२। १०)

आदि श्रुतियाँ प्रसिद्ध हैं। इन शाख-वचनोंसे यह स्पष्ट

सिद्ध होता है कि मुक्त जीवोंका पुनणगम्नन कभी नहीं होता

जीवम्मुक्तोंके द्वारा लोकदृष्टिमें यधायोग्य सभी कार्य होते हुए

प्रतीत होते हैं परन्तु वास्तवमें उनका उन कार्योसे कुछ भी

सम्बन्ध नहीं रहता--

यस्य सर्व सपारण्भा:

ज्ञानाभिदग्धकर्माणं. तमाहु:

कामसडडूल्पवर्जिता: पण्डितं बुधा: (गीता | १९) वस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्थ लिप्पते। हत्वापि स॒ इर्माल्लोकान्न हन्ति निबध्यते (गीता १८ | १७) इसके सिवा उस मुक्त पुरुषकी दुष्टिमँ एक विशुद्ध विज्ञान-आनन्दघन परमात्मतत्वके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं रह जाता--

बहुनां जन्मनामन्ते . ज्ञानवान्मां कथलते वासुदेवः सर्वमिति महात्मा सुदुर्लभ: (गीता ७। १९)

वह समझता है कि सभी कुछ केवल वासुदेव ही है। इसीलिये उसे मुक्त कहते हैं | ऐसे पुरुषका किसी कालमें भी इस मायामय संसारसे पुनः सम्बन्ध नहीं होता; क्योंकि उसकी दृष्टिमें संसारका सदाके लिये आत्यन्तिक अभाव हो जाता है। इस अवस्थामें उसका पुतरागमन क्योंकर हो सकता है ?

यदि कोई यह कुतर्क करें कि यदि मुक्त जीबोंका युत्रागमन नहीं होगा तो मुक्त होते-होते एक दिन जगतके सभी जीव मुक्त हो जायैंगे तब तो सृष्टिकी सत्ता ही मिट जायगी | इसका उत्तर यह हैं कि प्रथम तो ऐसा होना सम्भव

* ऋल्‍याणका तत्त्व * २९

रे >०-न्‍ब-------६०३०७अ---म्ब-_ वा :----८ का

नहीं; क्योंकि-- मनुष्याणां सहस्लेष॒ कश्चिद्मतति सिद्धये यततामपि सिद्धानों कक्षिन्मां वेत्ति तत्त्वतः (गीता ७।३ हजारों मनुष्योंमें कोई मनुष्य मोक्षके लिये यत्र करता है, उन यज्न करनेवाले योगियोंमेंसे कोई पुरुष मुझको (परमात्माको) तत्त्वसे जानता है।! इस अवस्थामें सभी जीवोंका मुक्त होना असम्भव है; क्योंकि जीव असंख्य है। तथापि यदि किसी दिन 'सम्पूर्ण संसारके सभी जीव किसी तरह मुक्त हो जायें" तो इसमें हानि ही कोन-सी है ? आजतक अनेक श्रेष्ठ पुरुष इससे पूर्व ऐसी चेष्टा कर चुके है, महात्मागण अब भी कर रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे यदि किसी दिन उनका परिश्रम सफल हो जाय और अखिल जगतके जीबोंका उद्धार हो जाय तो बहुत ही अच्छी बात है, इससे सिद्धान्तमें कोन-सी बाधा आती है ?

तर्कके लिये मान लिया जाय कि मुक्त पुरुषका पुनर्जन्म होता है और पुनर्जन्म माननेवाले भूल करते है, पर इस भूलसे उनकी हानि क्या होती है ? इस सिद्धान्तके अनुसार पुनरागमन माननेवाला भी वापस आबेगा और माननेवाला भी। फल दोनोंका एक ही है। परन्तु कदाचित्‌ यही सिद्धान्त सत्य हो कि 'मुक्त पुरुषका पुनरागमन नहीं होता' तब तो भूलसे पुनरागमन माननेवालेकी बड़ी हानि होगी; क्योंकि उस पुनरागमन माननेबालेकी तो वह मुक्ति ही नहीं मिलेगी कि जिसमें पुनरागमन होता हो वह बेचारा भूलसे ही इस परम लाभसे वश्चित रह जायगा और पुनरागमन माननेवाला मुक्त हो जायगा। इस न्यायसे भी पुनरागमन मानना ही युक्तियूक्त लाभजनक ओर सर्वोत्तम सिद्ध होता है।

३-- श्रति-स्मृति और उपनिषदादि किसी भी प्रामाणिक सद्ग्रन्थसे यह सिद्ध नहीं हो सकता कि काम-क्रोधादि विकारोंक रहते जीव्नुक्ति प्राप्त हो सकती है। श्रीमद्धगवद्गीतामें तो स्पष्ट शब्दोंमें काम, क्रोध और लोभको नरकका त्रिविध द्वार बतलाया है--

ब्रिविध नरकस्येदं द्वार नाहझनसात्मन: कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतल्ायं त्यजेत्‌ (१६। २१) श्रीगीतामें भगवान्‌ श्रीकृष्ण और अर्जुनके प्रश्नोत्तससे यह बाते स्पष्ट विदित होती है कि समस्त पापोंका बीज 'काम' है और उसको आत्ज्ञानके द्वारा नष्ट करके ही साधक मुक्त हो सकता है। तीसरे अध्यायके ३६वें इलोकसे ४३वें इलोकपर्यन्त इसका विस्तारसे वर्णन है। जहाँतक काम-क्रोध और हर्ष-

शोकादि विकारोंसे ही मनुष्यका छुटकारा नहीं होगा, वहाँतक

उसकी मुक्ति कैसे हो सकती है ? मुक्त पुरुषका वास्तवमें संसारसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता गीताजीमें कहा है-- यस्त्वात्मरतिरेव स्पादात्मतृप्तश्न मानव: आत्मन्येव च॒ संतुष्टस्तस्य कार्य विद्यते नेव तख्य कृतेनार्थों नाकृतेनेह कश्चन। चास्थ सर्वभूतेषु कश्निदर्थव्यपाश्रय: ॥।

(३। १७-१८)

उसका अन्तःकरण मल-विक्षेप और आवरणसे सर्वदा

रहित होकर शुद्ध हो जाता है, ऐसी स्थितिमें काम-क्रोध और

हर्ष-शोकादि विकार उसमें कैसे रह सकते हैं ? भगवानने

कहा है--

लभन्ते .ब्रह्मनिर्वाणमृषय: . क्षीणकल्मषा:

, छिन्नदैधा. यतात्मान:. सर्वभूतहिते. रता: कामक्रोधवियुक्तानां. यतीनां यतचेतसाम्‌ अभितो ब्रह्मनिर्वाणं. बर्तते विदितात्मनाम्‌

(गीता ५। २५-२६) 'हर्षषोको जहाति', 'तरति शोकमात्मबवित्‌' आदि श्रुतियाँ भी इसके प्रमाणमें प्रसिद्ध है। शास्त्रों जहाँ देखिये वहीं एक स्वस्से यही प्रमाण मिलता है। श्रीपरमात्माका साक्षात्कार हो जानेपर जब समस्त विकारोंकी जड़ आसक्तिका ही अत्यन्त अभाव हो जाता है तब उसके कार्यरूप अन्य विकार तो कैसे रह सकते हैं ? इन शाखवचनोंसे यही सिद्ध होता है कि जीवन्युक्तके शुद्ध अन्तःकरणमें विकारोंका अस्तित्व मानना कदापि उचित नहीं है। यदि ऐसा मान भी लिया जाय कि जीवन्मुक्तिके बाद भी काम-क्रोधादि विकारोंका लेश शेष रह जाता है और जो लोग उसका रोष रहना नहीं मानते, वे भूलसे ही काम-क्रोधादि विकारोंको जड़से उखाड़नेकी धुनमें लगे रहते है, इसपर यह सोचना चाहिये कि क्या इस भूलसे उसका कोई नुकसान होता है ? यदि पक्षपात छोड़कर विचार किया जाय तो पता लगता है कि काम-क्रोधादि बिकारोंके नाशका उपाय करनेबालोंकी अपेक्षा उपाय करनेवाले अधिक बुद्धिमान्‌ हैं; क्योंकि उपाय करनेसे उनके विकार अधिक नष्ट होंगे और इससे वें कम-से-कम जीव्न्युक्तोंमें तो उत्तम ही माने जायँंगे। एक मनुष्य अत्यन्त क्रोधी तथा कामी है और दूसरा इन दोनॉसे छूटा हुआ है और इस सिद्धान्तके अनुसार थे दोनों ही जीवन्भुक्त हैं। इस दश्मामें यह तो स्वाभाविक है कि इनमें काम-क्रोधपरायण मनुष्यकी अपेक्षा काम-क्रोधरहित जीवन्भुक्त ही अधिक सम्माननीय होगा। इस दृष्टिसे भी

#* तत्त्वचिन्तामणि *

काम-क्रोधादि विकारोंका नाश करना ही उचित सिद्ध होता हैं और यदि कहीं यही बात सत्य हो कि जीवन्मुक्तके अन्तःकरणमें कोई विकार शेष नहीं रहता तब तो विकारोंका शेष रहना माननेवालेकी केवल मुक्ति नही होगी सो ही बात नही, परन्तु उसकी और भी बड़ी हानि होगी; क्योंकि वह मिथ्या ज्ञानससे (गीता १८ | २२के अनुसार) ही अपनेको ज्ञानी और मुक्त मानकर अपने चरित्र-सुधारके पवित्र कार्यसे भी वल्चित रह जायगा और काम-क्रोधादि विकारोंके मोहमय जालोंमें फँसकर अनेक प्रकारकी नरक-यन्त्रणा भोगता हुआ (गीता अध्याय १६के इलोक १६ से २० के अनुसार) लूमातार संसार-चक्रमें भटकता फिरेगा इसलिये यही सिद्धान्त सर्वोपरि मानना चाहिये कि जीवन्मुक्तके अन्तःकरणमें काम- क्रोध और हर्ष-शोकांदि कोई भी विकार शेष नही रह जाते

इसके सिवा मुक्तिके सम्बन्धमें लोग और भी अनेक प्रकारकी शंकाएँ किया करते हैं पर लेख बढ़ जानेके कारण उन सबपर विचार नही किया गया।

इस लेखसे पाठक समझ गये होंगे कि मुक्त पुरुष तीनों गुणोंसे सर्वथा अतीत होता है (गीता अ० १४ के १९वें ओर

२रवेंसे २५वें इलोकतक इसका वर्णन है), इसीसे उसके अन्तःकरणमें कोई विकार या कोई भी कर्म शेष नहीं रहता और इसीलिये उसका पुनर्जन्म भी नहीं होता पुनर्जन्मका हेतु गुणोंका सड़ ही है। भगवान्‌ कहते हैं-- पुरुष: प्रकृतिस्थो हि. भुड्क्ते प्रकृतिजानुणान्‌ | कारण... गुणसड्डोउस्थ. सदसद्योनिजन्मसु ॥। (गीता १३।२१) पाठक यह भी समझ गये होंगे कि वर्तमान देश-कालमें मुक्त होना कोई असम्भव बात नहीं है अतएव अब शीघ्र सावधान होकर कर्तव्यमें लग जाना चाहिये। आलस्पमें अबतक बहुत समय नष्ट हो चुका। अब तो सचेत होना चाहिये। मनुष्य-जीवनके एक भी अमूल्य क्षणको व्यर्थमे गैंवाना उचित नहीं। गया हुआ समय किसी भी उपायसे बापस नहीं मिल सकता। अतए्व यथासाध्य जञीघ्र ही सत्सड्रके द्वारा अपने कल्याणका मार्ग समझकर उसपर आरूढ़ हो जाना चाहिये। --यही कल्याणका तत्त्व है ! उत्तिप्ठत जाप्मत प्राप्य वराजत्रिबोधत।

ूृबप +-.... लिवर, है. है&&- हम कल्याण-प्राप्तिके उपाय

कल्याण मुक्तिको कहते हैं, यह शब्द परमपद या परमगतिका वाचक है | कल्याणको प्राप्त करनेके प्रधान उपाय तीन हैं-- निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग अर्थात्‌ सोख्ययोग और भक्तियोग अर्थात्‌ ध्यानयोग। इनमें भक्तिका साधन स्वतनत्र भी किया जा सकता हैं और निष्काम कर्मयोग छवे सांख्ययोगके साथ भी।

निष्काम कर्मयोगका विस्तृत वर्णन श्रीमद्धमवद्गीताके द्वितीय. अध्यायके ३९वें इलोकसे ५उवें इलोकतक हैं और निष्काम कर्मयोगद्वास सिद्धिको प्राप्त हुए पुरुषेकि लक्षण इसी अध्यायके ५४ वेंसे ७रवें इलोकतक वर्णित हैं।

ज्ञानयोगका विस्तारसे वर्णन द्वितीय अध्यायके ११वेंसे ३०वे इलोकतक है और उसीके अनुसार तृतीय अध्यायके २८वें; पक्षम अध्यायके ८वे और ९वे तथा चत्ुर्दश अध्यायके १९वें इलोकमें ज्ञानयोगीके कर्म करनेकी लिधि बतलायी है। इसके अतिरिक्त पञ्ञम अध्यायके १३वेंसे २६वें इलोकतक ज्ञान और अष्टादश अध्यायके ४९वेंसे ५ण्वें इलोकतक उपासनासहित ज्ञानयोगका वर्णन है।

क्‍ दरशाम अध्यायके ८वेंसे १२वें, एकादश अध्यायके ३प्लेंसे ५५वे ओर द्वादश अध्यायके २सरेसे ८वे इलोकतक ध्यानयोग या भक्तियोगका वर्णन है, वास्तवमें ध्यानयोग और भक्तियोग एक ही वस्तु है। इसी प्रकार श्रीगीताजीके अन्यान्य स्थल्मॉमें भी तीनों साधनोंका भिन्न-भिन्न रूपसे वर्णन है, इन सबसें वर्तमान समयके छिये कल्याणकी प्राप्तिका सबसे सुगम और उत्तम उपाय भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग है इसका बड़ा सुन्दर उपदेश श्रीगीताजीके अष्टादश अध्यायके निम्नलिखित ११ इलोकोंमें है--

भगवान्‌ श्रीकृष्ण महाराज कहते है--

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मदव्यपाश्रयः मत्यसादादवाप्रोति. शाश्त॑ परदमव्ययम ५६ चेतस! सर्वक्र्माण मधि संन्यस्थ मत्परः बुद्धियोगमुपाधित्य_ मछित्त: सतते भव ७७ मधित्त: . सर्वदुर्गाण मत्यसादात्तरिष्यसि अथ चेत्त्वमहकाराज्र श्रोष्यसि विनडक्ष्यसि ५८ यदहंकारमाभशित्य योत््य इति मन्यसे। प्रिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वों नियोक्षयति ५९

पश्षम अध्यायके २७वेंसे २२वें, षष्ट अध्यायके ११वेंसे | स्वभावजेन कौन्तेय निबद्ध: स्वेन कर्मणा।

३२वें; अष्टम अध्यायके प्खेंसे २२व; नवभ अध्यायके ३०वेसे

कर्तु नेच्छसि यन्मोहात्‌ करिष्यस्थवज्ञोडपि तत्‌॥ ६०

* कल्याण ग्राप्तिके उपाय * श्३

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ईश्वर: सर्वभूतानां. हद्देशेडर्जुन॒ तिप्ठति भ्रामयन्सर्वभूतानि वन्त्रार्हानि_ मायया ६१ तमेव शरण गर्छ सर्वभावन भारत तत्मसादात्परां झान्ति स्थान प्राप््यसि झाश्चवतम्‌॥ ६२ इति ते ज्ञानमाख्यातं॑ गुह्ादगुहातरं॑ मया। विभृश्यैतदशेषेण. यथेक्कसि तथा. कुरू॥ ६३ सर्वगुहतम॑ भूयः: श्रूण मे परम॑ बच: इष्टोडसि में दृढ़मिति ततो वक्ष्यामि ते हितम ॥| ६४ मन्मना भब मसद्धक्तो मद्याजी मां नमस्कुक। मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोद्सि में॥६५॥ सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेके शरण ब्रज अहं त्वा सर्वपाधेभ्यो मोक्षय्रिष्यामि मा शुच्चः ६६

'मेरे परायण हुआ निष्काम कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मोको सदा करता हुआ भी मेरी कृपासे सनातन अविनाशी परमपदको श्राप्त हो जाता है। अतएव हे अर्जुन | तू सब कर्मोंको मनसे मेरेमें अर्पथ करके मेंरे परायण हुआ समत्वबुद्धिरूप निष्काम कर्मयोगको अबलम्बन करके निरन्तर मेरेमें चित्तवाला हो |

'इस प्रकार तू मेरेमें निरन्तर मनवाला हुआ मेरी कृपासे जन्म-मृत्यु आदि संकटोंसे अनायथास ही तर जायया और यदि अहंकारके कारण मेरे बचनोंको नहीं सुनेगा तो नष्ट हो जायगा अर्थात्‌ परमार्थसे भ्रष्ट हो जायगा ।'

जो तू अहड्डारकों अवरूम्बन करके ऐसे मानता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो तेशा यह निश्चय मिथ्या है; क्योंकि क्षत्रियपनका स्वभाव तेरेको जबर्दस्ती युद्धमें लगा देगा।'

'हे अर्जुन | जिस कर्मको तू मोहसे नहीं करना चाहता है उसको भी अपने पूर्वकृत खाभाविक कर्मसे बँंधा हुआ परवश होकर करेगा ।'

क्योकि हे अर्जुन ! झरीररूप यन्त्रमें आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी मायासे उनके कर्मोके अनुस्तार श्रमाता हुआ सब भूत-प्राणियोंके हृदयमें स्थित है, अतएव हे भारत ! सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही अनन्य शरणको श्राप्त हो, उस परमात्माकी कृपासे परम शान्तिको एवं सनातन परम धामको प्राप्त होगा।'

'इस अ्रकार यह गोपनीयसे भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तेरे लिये कहा है। इस रहस्युक्त ज्ञानको सम्पूर्णतासे अच्छी

जननननन ने ेाआंाणााक्ंर सा 3 तल जलन मल ७-०

प्रकार विचारके फिर तू जैसे चाहता है वैसे ही कर यानी जैसी तेरी इच्छा हो बेसे ही कर ।'

है अर्जुन ! सम्पूर्ण गोपनीयोंसे भी अति गोपनीय मेंरे परम रहस्ययुक्त बचनको तू फिर भी सुन; क्योंकि तू मेरा अतिशय प्रिय है। इससे यह परम हितकारक वचन मैं तेरे लिये कहूँगा ।'

'हे अर्जुन ! तू केवल मुझ सचचिदानन्दघन वासुदेव परमात्ममें ही अनन्य प्रेमसे नित्य, निरन्तर अचल मनवाला हो और मुझ परमेश्वरको ही अतिशय श्रद्धा-भक्तिसहित निष्काम- भावसे नाम, गुण और ग्रभावके श्रवण, कीर्तन, मनन और पठन-पाठनद्वारा निरन्तर भजनेवाला हो तथा मेरा (शंख, चक्र, गदा, पद्य और किरीट, कुष्डल आदि भूषणोंसे युक्त पीताम्बर, वनमाला और कोस्तुभभणिधारी विष्णुका) मन, वाणी और शरीरके द्वारा सर्वस्व अर्पण करके अतिद्ञय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमसे बिहललतापूर्वक पूजन करनेबाला हो और मुझ सर्वशक्तिमान्‌, विभूति, बल, ऐश्वर्य, माधुर्य, गम्भीरता, उदारता, वात्सल्य ओर सुहृदता आदि गुणोंसे सम्पन्न, सबके आश्रयरूप वासुदेवको विनयभावपूर्वक भक्तिसहित साष्टाग दण्डवत्‌-प्रणाम कर, ऐसा करनेसे तू मेरेको ही प्राप्त होगा, यह मैं तेरे लिये सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय सखा है ।'

'अत्तजब सर्द धर्मोको अर्थात्‌ सम्पूर्ण कमेंके आश्रयको त्यागकर केवल एक मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्माकी ही अनन्य शरणको प्राप्त हो; मैं तेरेको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर |!

कैसा दिव्य उपदेश है | इसके सिवा ध्यानयोग और भक्तियोग-सम्बन्धी अन्थोंमें पातज्ललयोगदर्शन ध्यानयोगका और नारदसूत्र तथा शाण्डिल्यसूत्र भक्तियोगके प्रधान ग्रन्थ हें, अवश्य ही इनमें कुछ मतभेद है परन्तु इन अम्धोंमें भक्तियोगका ही ग्रतिपादन है। इन ग्रन्थोंको मनन करनेसे भक्तियोगका बहुत कुछ पता लग सकता है

बहुत विस्तारसे लिखकर मैंने श्रीगीताजीके कुछ इलोकोंको उद्धृत कर तथा कुछकी केवल संख्या ही बतलाकर पाठकोंसे सड्भेतमात्र कर दिया है, यदि कोई सज्जन इन इलोकोंके अर्थका मनन-कर उसके अनुसार चलना आरम्भ कर दें तो मेरी सम्मति्में उनको परम कल्याण-- मोक्षकी प्राप्ति बहुत ही सुगमतासे हो सकती है।

5.0... व््न्न्च्््यय्य्ज

* तत्त्वच्तिन्तामणि *

भगवान क्‍या हैं ?

भगवान्‌ क्या हैं ? इस सम्बन्धमें जो कुछ कहना चाहता हूँ बह मेरे अपने निश्चयकी बात है, हो सकता है कि मेरा निश्चय ठीक हो। मैं यह नहीं कहता कि दूसरोंका निश्चय ठीक नहीं हैं। परंतु मुझे अपने निश्चयें कोई सन्देह नहीं हैं, मैं इस विष्यमें संशयात्मा नहीं हूँ तथापि दूसरोंके निश्चयको गलत बतानेका मुझे कोई अधिकार नहीं हें।

भगवान्‌ क्या हैं ? इन शब्दोंका वास्तविक उत्तर तो यही हैं कि इस बातको भगवान्‌ ही जानते हैं। इसके सिवा भगवानके विषयमें उन्हें तत्वसे जाननेवाला ज्ञानी पुरुष उनके तटस्थ अर्थात्‌ नजदीक कुछ भाव बतला सकता है वास्तवमें तो भगवानके स्वरूपको भगवान्‌ ही जानते हैं। तत्त्तज्ञ लोग संकेतके रूपमें भगवानके स्वरूपका कुछ वर्णन कर सकते हैं परन्तु जो कुछ जानने और वर्णन करनेमें आता हैं, वास्तवर्मे भगवान्‌ उससे और भी विलक्षण हैं। वेद, शाख्र और मुनि, महात्मा परमात्माके सम्बन्धमें सदासे कहते ही रहे हैं किन्तु उनका वह कहनां आजतक पूरा नहीं हुआ। अबतकके उनके सब वचनोंको मिलाकर या अलग-अलगकर, कोई परमात्माके वास्तविक स्वरूपका वर्णन करना चाहे तो उसके द्वारा भी पूरा वर्णन नहीं हो सकता। अधूरा ही रह जाता है। इस विवेचनमें यह तो निश्चय हो गया कि भगवान्‌ हैं अवश्य, उनके होनेमें स्तीभर भी शंका नहीं है, यह दूढ़ निश्चय है अतएव जो आदमी भगवानको अपने मनसे जैसा समझकर साधन कर रहे है, उसमें परिवर्तनकी कोई आवश्यकता नहीं, परन्तु सुधार कर लेना चाहिये। बास्तवमें साधन करनेवालोंमें कोई भी भूलमें नहीं है या एक तरहसे सभी भूलमें हैं। जो परमात्माके लिये साधन कर्ता है, वह उसीके मार्गपर चलता है, इसलिये कोई भूलें नहीं हैं और भूलमें इसलिये हैं कि जिस किसी एक वस्तुकों साध्य या ध्येय मानकर वे उसकी प्राप्तिका साधन करते हैं, उनके उस साध्य या ध्येयसे वास्तविक परमात्माका स्वरूप अत्यन्त ही विलक्षण है। जो जानने, मानने और साधन करनेमें आता है वह तो ध्येय परमात्माको बतानेवाला साकेतिक लक्ष्य है। इसलिये जहाँत॒क उस ध्येयकी प्राप्ति नहीं होती, वहाँतक सभी भूलमें है ऐसा कहा गया हैं परन्तु इससे यह नहीं मानना चाहिये कि पहले भूलको ठीक करके फिर साधन करेंगे। ठीक तो कोई कर ही नहीं सकता, यथार्थ प्राप्तिक बाद आप ही ठीक हो जाता है। इससे पहले जो होता है सो अनुमान होता है और उस अनुमानसे जो कुछ किया जाता है वही उसकी प्राप्तिका ठीक

है, वह दूसरे देखनेवालोंको इशारेसे बतलाता है कि तू मेरी नजससे देख, उस वृक्षसे चार अंगुल ऊँचा चन्द्रमा है। इस कथनसे उसका लक्ष्य वक्षकी ओरसे होकर चन्द्रमातक चला जाता है और वह चन्द्रमाको देख लेता है वास्तवमें तो वह उसकी आँखमें घुसकर ही देखता हैं और चन्द्रमा उस वृक्षसे चार अंगुल ऊँचा ही है और चन्द्रमण्डल जितना छोटा बह देखता है उतना छोटा ही है। परन्तु लक्ष्य बँंध जनेसे वह उसे देख लेता है ।कोई-कोई द्वितीयाके चन्द्रमाका लक्ष्य करनेके लिये सरपतसे बतलाते हैं, कोई इससे भी अधिक लक्ष्य करनेके लिये चूनेसे रूकीर खींचकर या चित्र बनाकर उसे दिखाते हैं, परन्तु वास्तवमें चन्द्रमाके वास्तविक स्वरूपसे इनकी कुछ भी समता नहीं है। तो इनमें चन्द्रमाका प्रकाश ही है, यह उतने बड़े ही है और इनमें चन्द्रमाके अन्य गुण ही हैं। इसी प्रकार लक्ष्यके द्वारा देखनेपर भगवान्‌ देखे या जाने जा सकते हैं। वास्तवमें लक्ष्य और उनके असली स्वरूपमें बैसा ही अन्तर है कि जैसा चद्धमा और उसके लक्ष्यमें | चन्द्रमाका स्वरूप तो शायद कोई योगी बता भी सकता है, परन्तु भगवान्‌का खरूप कोई भी बता नहीं सकता; क्योंकि यह वाणीका विषय नहीं है| वह तो जब प्राप्त होगा तभी मालूम होगा। जिसको प्राप्त होगा वह भी उसे समझा नहीं सकेगा। यह तो असली स्वरूपकी बात हुई। अब यह बतलाना है कि साधकके लिये यह ध्येय या लक्ष्य किस प्रकारका होना चाहिये और वह किस प्रकार समझा जा सकता है। इस विषयमे महात्माओंसे सुनकर और शाखरोंको सुन और देखकर, मेरे अनुभवमें जो बातें निश्चयात्मकरूपसे जैँची हैं, वहीं बतलायी जाती हैं। किसीकी इच्छा हो तो वह उन्हें काममें ला सकता है।

परमात्माके असली स्वरूपका ध्यान तो वास्तवमें बन नहीं सकता। जबतक नेत्रोंसे, मससे ओर बुद्धिसे परमात्माके स्वरूपका अनुभव हो जाय, तबतक जो ध्यान किया जाता हैं, वह अमुमानसे ही होता हैं। महात्माओंके द्वार सुनकर, शास्त्रोंमें पढ़कर, चित्रादि देखकर साधन करनेसे साधकको पस्मात्माके दर्शन हो सकते हैं। पहले यह बात कही जा चुकी है कि जो परमात्माका जिस प्रकार ध्यान कर रहे हैं, वे बैसा ही करते रहें, परिवर्ततनकी आवश्यकता नहीं। कुछ सुधारको आवश्यकता अवश्य हैं।

ध्यान कैसे करना चाहिये ? कुछ लोग निराकार शुद्ध ब्रह्मका ध्यान करते हैं, कुछ

उपाय हैं। जैसे एक आदमी द्वितीयाके चद्रमाको देख चुका | साकार दो भुजावाले और कुछ चतुर्भुजधारी भगवान्‌ विष्णुका

+* भगवान्‌ क्‍या हैं? +

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ध्यान करते हैं, वास्तवमें भगवान्‌ विष्णु, राम और कृष्ण जैसे एक है, वैसे ही देवी, शिव, गणेश और सूर्य भी उनसे कोई भिन्न नहीं। ऐसा अनुमान होता है कि लोगोंकी भिन्न-भिन्न धारणाके अनुसार एक ही परमात्माका निरूपण करमेके लिये, श्रीवेदव्यासजीने अठारह पुराणोंकी रचना की है, जिस देवके नामसे जो पुरण बना, उसमें उसीको सर्वोपरि, सृष्टिकर्ता, सर्वगुणसम्पन्न ईश्वर बतलाया गया। वास्तवमे नाम-रूपके भेदसे सबमें उस एक ही परमात्माकी बात कही गयी है। नाम-रूपको भावना साधक अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं, यदि कोई एक स्तम्भको ही परमात्मा मानकर उसका ध्यान करे तो बह भी परमात्माका ही ध्यान होता है, अवश्य ही लक्ष्यमें ईश्वरका पूर्ण भाव होना चाहिये।

साकार और निराकारके ध्यानमें साकारकी अपेक्षा निराकारका ध्यान कुछ कठिन है, फल दोनोंका एक ही हैं, केवल स्राधनमें भेद हैं। अतएव अपनी-अपनी प्रीतिके अनुसार साधक निरकार या साकारका ध्यान कर सकते हैं|

निराकारके उपासक साकारके भावकों साथमें रखकर केवल निराकारकी ही ध्यान करें, तो भी कोई आपत्ति नहीं, परन्तु साकारका तत्त समझकर परमात्माको सर्वदेशी, विश्वरूप मानते हुए निराकारका ध्यान करें तो फल ज्ञीत्र होता है। साकारका तत्त्व समझनेसे कुछ बिलम्बसे सफलता होती है

साकारके उपाप्तककों निराकार, व्यापक ब्रह्मका तत्त्व जाननेकी आवश्यकता है, इसीसे बह सुगमतापूर्वक शीघ्र सफलता प्राप्त कर सकता है। भगवानने गीतामें प्रभाव समझकर ध्यान करनेकी ही बड़ाई की है।

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। अद्धया परथयोपेत्तास्ते मे युक्ततमा मतता: || (१२।२)

हे अर्जुन ! मेरेमें मनको एकाग्र करके निरन्तर मेरे

भजन, ध्यानमें लगे हुए* जो भक्तजन, अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धासे

युक्त हुए मुझ संगुणरूप परमेश्वरकों भजते है, बे मेंरेको योगियोंमें भी अति उत्तम योगी मान्य हैं अर्थात्‌ उनको मैं अति श्रेष्ठ मानता हूँ।'

वास्तवमें निराकारके प्रभावको जानकर जो साकारका ध्यान किया जाता है, वही भगवतकी जीष्र प्राप्तिके लिये उत्तम और सुलभ साधन है। परन्तु परमात्माका असली स्वरूप इन दोनोंसे ही विलक्षण है, जिसका ध्यान नहीं किया जा सकता। निराकारके ध्यान करनेकी कई युक्तियाँ हैं। जिसको जो सुगम |

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मालूम हो, वह उसीका अभ्यास करे। सबका फल एक ही है। कुछ युक्तियाँ यहाँपर बतलायी जाती है।

साधकको श्रीगीताके अ० ६।११ से १३ के अनुसार, एकान्त स्थानमें स्वस्तिक या सिद्धासनसे बैठकर, नेत्रोंकी दृष्टिकों नासिकाके अग्रभागपर रखकर या आँखें बंदकर (अपनी इच्छानुसार) नियमपूर्वक प्रतिदिन कम-से-कम तीन घण्टेका समय ध्यानके अभ्यासमें बिताना चाहिये। तीन घण्टे कोई कर सके तो दो करे, दो नहीं तो एक घण्टे अबश्य ध्यान करना चाहिये। शुरू-शुरूमें मन लगे तो पंद्रह-बीस मिनिटसे आरमभ कर धीरे-धीरे ध्यानका समय बढ़ाता रहे बहुत शीत्र प्राप्तिकी इच्छा रखनेवाले साधकोंके लिये तीन घण्टेका अभ्यास आवश्यक है। ध्यानमें नाम-जपसे बड़ी सहायता मिलती है। ईश्वरके सभी नाम समान है, परंतु निराकारकी उपासनामें 3“कार प्रधान है। योगदर्शनमें भी महर्षि पतञ्ञलिने कहा है--

त्तस्थ वाचक: प्रणब: | तज्नपस्तदर्थभावनम्‌ (सा० पाद १। २७-२८)

उसका वाचक प्रणव (35%) है, उस ग्रणवका जप करना ओर उसके अर्थ (परमात्मा) का ध्यान करना चाहिये।

इन सूत्रोंका मूल आधार--'ईश्वरप्रणिधानाद्दा ।' (योग १। २३) है। इसमें भगवानकी शरण होनेको और उन दोनोंमेंसे पहलेमें भगवानका नाम बतलाकर, दूसरेमें नाम-जप और स्वरूपका ध्यान करनेकी बात कही गयी है।

महर्षि पतझलिके परमेश्वरके स्वरूपसम्बन्धी अन्य विचारोंके सम्बन्धमें मुझे यहाँपर कुछ नहीं कहना है। यहाँपर मेरा अभिप्राय केवल यही है कि ध्यानका लक्ष्य ठीक करनेके लिये पतझलिजीके कथनानुसार ख्रूपका ध्यान करते हुए नामका जप करना चाहिये। 3£की जगह कोई 'आनन्दमय' या 'विज्ञानानन्दघन' ब्रह्मका जप करे, तो भी कोई आपत्ति नहीं है। भेद नामोंमें है, फलमें कोई फर्क नहीं है।

जप सबसे उत्तम वह होता है, जो मनसे होता है, जिसमें जीभ हिलाने और ओएसे उच्चारण करनेकी कोई आवश्यकता नहीं होती | ऐसे जपमें ध्यान और जप दोनों साथ ही हो सकते है। अन्तःकरणके चार पदार्थोमेंसे मन और बुद्धि दो प्रधान है बुद्धिसे पहले परमात्माका स्वरूप निश्चय करके उसमे बुद्धि स्थिर कर ले, फिर मनसे उसी सर्वत्र परिपूर्ण आनन्दमयकी पुनः-पुनः आवृत्ति करता रहे | यह जप भी हैं और ध्यान भी | वास्तवमें आनन्दमयके जप और ध्यानमें कोई खास अन्तर

# अर्थात्‌ गीता अ* ११। ५५ में बताये हुए प्रकारसे निरन्तर मेरेमें छगे हुए।

श्घ

नहीं है। दोनों काम एक साथ किये जा सकते हैं। दूसरी युक्ति श्रासके द्वारा जप करनेकी है। श्रासोंके आते और जाते समय कण्ठसे नामका जप करे, जीभ और ओष्ठको बंदकर श्वासके साथ नामकी आवृत्ति करता रहे, यही प्राणजप है, इसको प्राणद्वारा उपासना कहते है। यह जप भी उच्च श्रेणीका है। यह हो सके तो मनमें ध्यान करे और जीभसे उच्चारण करे परन्तु मेरी समझसे इनमें साधकके लिये अधिक सुगम और ल्ाभप्रद श्वासके द्वास किया जानेवाछा जप है | यह तो जपकी बात हुई, असलमें जप तो निराकार और साकार दोनों प्रकारके ध्यानमें ही होना चाहिये। अब निराकारके ध्यानके सम्बन्धमें कुछ कहा जाता है--

एकान्त स्थानमें स्थिर आसनसे बैठकर एकाग्रचित्तसे इस प्रकार अभ्यास करे। जो कोई भी वस्तु इन्द्रिय और मनसे प्रतीत हो उसीको कल्पित समझकर उसका त्याग करता रहे | जो कुछ प्रतीत होता है, सो है नहीं। स्थूछ शरीर, झ्ञनेद्धियाँ, मन, बुद्धि आदि कुछ भी नहीं हैं, इस प्रकार सबका अभाव करते-करते, अभाव करनेवाले पुरुषकी वह वृत्ति-- (जिसे ज्ञान, बिवेक और प्रत्यय भी कहते हैं, यह सब शुद्ध बुद्धिके कार्य हैं, यहाँपर बुद्धि ही इनका अधिकरण है, जिसके द्वारा परमात्माके खरूपका मनन होता है और प्रतीत होनेवाली प्रत्येक बस्तुमें यह नहीं है, यह नहीं है, ऐसा अभाव हो जाता है, इसीको वेदोंमें 'नेति-नेति'-- ऐसा भी नहीं, ऐसा भी नहीं--कहा है।) अर्थात्‌ दृश्यको अभाव करनेवाली वृत्ति भी शान्त हो जाती है। उस वृत्तिका त्याग करना नहीं पड़ता, स्वयमेव हो जाता है। त्याग करनेमें तो त्याग करनेवाला, त्याज्य वस्तु और त्याग, यह त्रिपुटी जाती है। इसलिये त्याग करना नहीं बनता, त्याग हो जाता है। जैसे, इन्धनके अभावमें अप्नि स्वयमेव ज्ञान्त हो जाती है, इसी प्रकार विषयोंके सर्वथा अभावसे वृत्तियाँ भी सर्वथा श्ञान्त हो जाती हैं। शेषमें जो बच रहता है, वही परमात्माका स्वरूप है। इसीको निर्बीज समाधि कहते हे।

तस्थापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधि:

(योग० १। ५१)

यहाँपर यह शजड्जा होती है कि त्यागके बाद त्यागी क्‍ है। वह अल्प है, परमात्मा महान्‌ है, इसलिये बच रहनेवालेको ही परमात्माका स्वरूप कैसे कहा जाता है ? बात ठीक है परन्तु वह अल्प वहींतक है, जबतक वह एक सीमाबद्ध स्थानमें अपनेको मानकर बाकीकी सब जगह दूसरोंसे भरी हुई समझता है | दूसरी सब वस्तुओंका अभाव हो जानेपर, शोषमें, बचा हुआ केवल एक तत्त्व ही 'परमात्मतत्तत' है। संसारको

* सत्तवचिन्तामणि *

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जड़से उखाड़कर फेंक देनेपर परमात्मो आप ही रह जाते है। उपाधियोंका नाश होते ही सास भेद मिट्कर अपार एकरूप परमात्माका स्वरूप रह जाता है, वही सब जगह परिपूर्ण और सभी देश-कालमें व्याप्त है। वास्तवमें देश-काऊ भी उसमे कल्पित ही हैं वह तो एक ही पदार्थ है, जो अपने ही आपमें स्थित है, जो अनिर्वचनीय है और अचिन्त्य है जब खिन्तनका सर्वथा त्याग हो जाता है, तभी उस अचिन्त्य ज़रह्मका खजाना निकल पड़ता है, साधक उसमे जाकर मिल जाता है | जबतक अज्ञानकी आडसे दूसरे पदार्थ भरे हुए थे, तबतक वह खजाना अदृश्य था। अज्ञान मिटनेपर एक ही वस्तु रह जाती है, तब उसमें मिल जाना यानी सम्पूर्ण वृत्तियोंका शञान्त होकर एक ही वस्तुका रह जाना निश्चित है।

महाकाशसे घटाकाश तभीतक अलग है, जबतक घड़ा फूट नहीं जाता। घड़ेका फूटना ही अज्ञानका नाञ होना है, परन्तु यह दृष्टान्त भी पूरा नहीं घटता | कारण, घड़ा फूटनेपर तो उसके टूटे हुए ठुकड़े आकाशका कुछ अंश रोक भी लेते हैं परन्तु यहाँ अज्ञानरूपी घड़ेके नाश हो जानेपर ज्ञानका जरा-सा अंश सेकनेके लिये भी कोई पदार्थ नहीं बच रहता | भूल मिटते ही जगत्‌का सर्वधा अभाव हो जाता है। फिर जो बच रहता है, वहीं ब्रह्म है। उदाहरणार्थ जैसे, घटाकाश जीब है, महाकाश परमात्मा है। उपाधिकपी घट नष्ट हो जानेपर दोनों एकरूप हो जाते है। एकरूप तो पहले भी थे, परन्तु उपाधि-भेदसे भेद प्रतीत होता था।

वास्तवमें आकादका दृष्टान्त परमात्माके लिये सर्वदेशी नहीं है। आकाश जड़ है, परमात्मा जड़ नहीं। आकाश दृश्य है, परमात्मा दृश्य नहीं है। आकाइ विकारों है, परमात्मा विकारशून्य है। आकाश अनित्य है, महाप्रऊयमें इसका नाश होता है, परमात्मा नित्य है। आकाश शून्य है, उसमे सब कुछ समाता है, परमात्मा घन है, उसमें दूसरेका समाना सम्भव नहीं | आकाइसे परमात्मा अत्यन्त विलक्षण है। ब्रह्मके एक अंञमें माया है, जिसे अव्याकृत प्रकृति कहते है, उसके एक अंशमें महत्तत्त (समष्टि-बुद्धि) है, जिस बुद्धिसे सबकी बुद्धि. होती है, उस बुद्धिके एक अंशमें अहंकार है, उस अहंकारके एक अंशमे आकाश, आकादमें वायु, वायुमें अग्नि, अम्निमें जल और जलमें पृथ्वी | इस प्रकार प्रक्रियासे यह सिद्ध होता है कि समस्त ब्रह्माण्ड मायाके एक अंशमें हे और वह माया परमात्मके एक अंशमें है, इस न्यायसे आकाश तो परमात्माकी तुलनामें अत्यन्त ही अल्प है परन्तु इस अल्पताका पता परमात्माके जाननेपर ही लगता है। जैसे, एक आदमी स्वप्न देखता है। स्वप्रमें उसे दिशा, काल, आकाश,

* भगवान्‌ क्‍या हैं? *

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वायु, अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, दिन, रात आदि समस्त भासते हैं, बड़ा विस्तार दीख पढ़ता है, परन्तु आँख खुलते ही उस सारी सृष्टिका अत्यन्त अभाव हो जाता है, फिर पता लगता है कि वह सृष्टि तो अपने ही संकल्पसे अपने ही अन्तर्गत थी, जो मेरे अंदर थी, वह अबद्य ही मुझसे छोटी वस्तु थी, में तो उससे बड़ा हूँ। वास्तवमें तो थी ही नहीं, केवल कल्पना ही थी, परन्तु यदि थी भी तो अत्यन्त अल्प थी, मेरे एक अंशमें थी, मेरा ही संकल्प था अतएव मुझसे कोई भिन्न वस्तु नहीं थी। यह ज्ञान आँख खुलनेपर-- जागनेपर होता है, इसी प्रकार परमात्माके सच्चे स्वरूपमें जागनेपर यह सृष्टि भी नहीं रहती। यदि कहीं रहती है ऐसा मानें, तो वह महापुरुषोंके कथनानुसार परमात्माके एक जया-से अंशमें ओर उसीके संकल्पमात्रमें रहती है।

इसलिये आकाशका दृष्टान्त परमात्मामें पूर्णरूपसे नहीं घटता। इतने ही अंशमे घटता है कि भनुष्यकी दृष्टिमें जैसे आकाश निराकार है, ब्रह्म वास्तवमें बैसे ही निराकार है। मनुष्यकी दृष्टिमें जैसे आकाह्यकी अनन्तता भासती है, बैसे ही ब्रह्म सत्य अनन्त है। मनुष्यकी दृष्टिसे समझानेके लिये आकाशका उदाहरण है। इन सब वस्तुओंका अभाव होनेपर प्राप्त होनेवाली चीज कैसी है, उसका स्वरूप कोई नहीं कह सकता, वह तो अत्यन्त विलक्षण है। सूक्ष्मभावके तत्त्वज्ञ सूक्ष्मदर्शी महात्मागण उसे 'सत्यं ज्ञाममनन्तं ब्रह्म' कहते है। वह अपार है, असीम है, चेतन है, ज्ञाता है, घन है, आनन्दमय है, सुखरूप है, सत्‌ है, नित्य है। इस प्रकारके विशेषणोंसे वे विलक्षण बस्तुका निर्देश करते है। उसकी प्रा हो जानेपर फिर कभी पतन नहीं होता। दुःख, क्लेद, दुर्गुण, शोक, अल्पता, विक्षेप, अज्ञान और पाप आदि सब विकारोंकी सदाके लिये आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है। एक सत्य, ज्ञान, बोध आनन्दरूप ब्रह्मके बाहुल्यकी जागृति रहती है यह जागृति भी केवल समझानेके लिये ही है। वास्तवमे तो कुछ कहा नहीं जा सकता |

अनादिमत्परं ब्रह्म सत्तन्नासदुच्यते (गीता १३। १२)

वह आदिरहित परबरह्म अकथनीय होनेसे सत्‌ कहा जाता है और असत्‌ ही कहा जाता है।

यदि ज्ञानका भोक्ता कहें तो कोई भोग नहीं है। यदि ज्ञानरूप या सुखरूप कहें तो कोई भोक्ता नहीं है। भोक्ता, भोग, भोग्य सब कुछ एक ही रह जाता है, वह एक ऐसी चीज है जिसमें त्रिपुटी रहती ही नहीं। एक तो यह निराकाशके ध्यानकी विधि है।

ध्यानकी दूसरी विधि

एकान्त्र स्थानमें बैठकर आँखें मूँदकर ऐसी भावना करे कि मानों सत्‌-चित्‌-आनन्दघनरूपी समुद्रकी अत्यन्त बाढ़ गयी है और मैं उसमें गहरा डूबा हुआ हूँ। अनन्त- विज्ञानानन्दधन समुद्रमें निमत्र हूँ। समस्त संसार परमात्माके संकल्पमें था, उसने संकल्प त्याग दिया, इससे मेरे सिवा सारे संसारका अभाव होकर, सर्वत्र एक सचिदानन्दघन परमात्मा ही रह गये। मै परमात्माका ध्यान करता हूँ तो परमात्माके सडडल्पमें में हूँ, मेरे सिवा और सबका अभाव हो गया | जब परमात्मा मेस सड्डल्प छोड़ देंगे, तब मैं भी नहीं रहूँगा, केवल परमात्मा ही रह जायँंगे। यदि परमात्मा मेरा सड़ल्प त्याग कर मुझे स्मरण रखें तो भी बड़े आनन्दकी बात है | इस प्रकार भेदसहित निय्॒कारकों उपासना करे।

इसमें साधनकालमें भेद है और सिद्धकालमें अभेद है, परमात्माने सड्डल्प छोड़ दिया, बस एक परमात्मा ही रह गये ! एक युक्ति यह है। इसके अतिरिक्त निराकारके ध्यानकी और भी कई युक्तियाँ हैं, उनमेंसे दो युक्तियाँ 'सच्चे सुखकी प्राप्तिक उपाय' शीर्षक लेखमें बतलायी गयी है, वहाँ देखनी चाहिये कहनेका अभिप्राय यह है कि निशाकारका ध्यान दो प्रकारसे होता है, भेदसे और अभेदसे। दोनोंका फल एक अभेद परमात्माकी प्राप्ति ही है। जो लोग जीवको सदा अल्प मानकर परमात्मासे कभी उसका अभेद नहीं मानते, उनकी मुक्ति भी अल्प होती है, सदाके लिये बे मुक्त नहीं होते। उन्हें प्रल्यकालके बाद बापस लौटना ही पड़ता है, इस मुक्तिवादसे वे ब्रह्मको प्राप्त हो करके भी अलग रह जाते हैं।

अब साकारके ध्यानके सम्बन्धमें कुछ कहा जाता है। साकारकी उपासनाके फल दोनों प्रकारके होते हैं। साधक यदि सद्योमुक्ति चाहता है, शुद्ध ब्रह्ममें एकरूपसे मिलना चाहता है तो उसमें मिल जाता है, उसको सद्योमुक्ति हो जाती है परन्तु यदि वह ऐसी इच्छा करता है कि मैं दास, सेवक या सखा बनकर भगवानूके समीप निवास कर प्रेमानन्दका भोग करूँ या अलग रहकर संसारमें भगवद्मेम-प्रचाररूप पस्म सेवा करूँ तो उसको सालेक्य, सारूप्य, सामीष्य, सायुज्य आदि मुक्तियोंमेंसे यथारुचि कोई-सी मुक्ति मिल जाती है और बह मृत्युके बाद भगवान्‌के परम नित्यधाममें चला जाता हैं। महाप्रलूयतक नित्यधाममें रहकर अन्तमें परमात्मामें. मिल जाता हैं या संसारका उद्धार करनेके लिये कारक पुरुष बनकर जन्म भी ले सकता है परन्तु जन्म लेनेपर भी वह किसी फँसावटमें नहीं फैसता | माया उसे किन्नित्‌ भी दुःख-कष्ट नहीं पहुँचा सकती, वह नित्य मुक्त ही रहता है। जिस नित्यधाममें

१८

* तत््वचिन्तामणि +

ऐसी साधक जाता है बह परमधाम सर्बेपरि है, सबसे श्रेष्ठ है उससे परे एक सचिदानन्दघन निरयकार शुद्ध ब्रह्मके अतिरिक्त और कुछ भी नही है। बह सदासे है, सब लोके नाश होनेपर भी वह बना रहता है | उसका स्वरूप कैसा है ? इस बातको वही जानता है जो वहाँ पहुँच जाता है। बहाँ जानेपर सारी भूलें मिट जाती हैं। उसके सम्बन्धकी सम्पूर्ण भिन्न-भिन्न कल्पनाएँ वहाँ पहुँचनेपर एक यथार्थ सत्यस्वरूपमें परिणत हो जाती हैं। महात्मागण कहते हैं कि वहाँ पहुँचे हुए भक्तोंकी प्राय: बह सब शक्तियाँ और सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं जो भगवाममें हैं, परन्तु वे भक्त भगवानके सृष्टिकार्यके विरुद्ध उनका उपयोग कभी नही करते | उस महामहिम प्रभुके दास, सखा या सेवक बनकर जो उस परमधाममें सदा समीप निवास करते हैं वे सर्वदा उसकी आज्ञामें ही चलते हैं। गीताके अ० ८। र४ का इलोक इस परमधाममे जानेवाले साधकके लिये ही है। बहदारण्यक और छान्दोग्य उपनिषदमें भी इस अर्चिमार्गका विस्तृत वर्णन है। इस नित्यधामकों ही सम्भवतः भगवान्‌ श्रीकृष्के उपासक गोलोक, भगवान्‌ श्रीरमके उपासक साकेतलोक कहते हैं। वेदमें इसीको सत्यलोक और ब्रह्मलोक कहा है। (बह ब्रह्मलोक नहीं जिसमें ज्रह्माजी निवास करते है, जिसका वर्णन गीता अध्याय के १६ वें इलोकके पूर्वार्धमें है।) भगवान्‌ साकाररूपसे अपने इसी नित्यधाममें विसजते हैं। साकारुरूप मानकर नित्य परमधाम मानना बड़ी भूलकी बात है। भक्तोंके लिये भगवान्‌ साकार कैसे बनते हैं?

परमात्मा-सत्‌-चित्‌ आनन्दघन नित्य अपाररूपसे सभी जगह परिपूर्ण हैं। उदाहरणके लिये अग्निका नाम लिया सकता है। अग्नि निश॒कारूपसे सभी स्थानोंमें ध्याप्त है, प्रकट करनेकी सामग्री एकत्र करके साधन करनेसे ही बह प्रकट हो जाती है। प्रकट होनेपर उसका व्यक्तरूप उतना ही लंबा-चौड़ा दीख पड़ता है, जितना लकड़ी आदि पदार्थका होता है। इसी प्रकार गुप्तरूपसे सर्वत्र व्यापक्त अदृश्य सूक्ष्म निसकार परमात्मा भी भक्तकी इच्छानुसार साकाररूपमें प्रकट होते है। बास्तवमें अप्निका व्यापकताका उदाहरण भी एकदेशीय है; क्योंकि जहाँ केवल आकाश या बायुतत्त्व है, वहाँ अम्नि नहीं है परन्तु परमात्मा तो सब जगह परिपूर्ण है; परमात्माकी व्यापकता सबसे श्रेष्ठ और विलक्षण है। ऐसी कोई स्थान नहीं जहाँ परमात्मा हो और संसारमें ऐसा भी.कोई जगह नहीं कि जहाँ परमात्माकी माया हो | जहाँ देश-काल हैं बहीं माया है। मायारूप सामग्रीको लेकर परमात्मा चाहे जहाँ प्रकट हो सकते हैं। जहाँ जल है और शीतलता है, वहीं बर्फ जम

सकती है। जहाँ मिट्टी और कुम्हार है, वहीं घड़ा बन सकता है। जल और मिट्टी तो शायद सब जगह भी मिले परन्तु परमात्मा और उनकी माया तो संसारमें सभी जगह मिलती है, ऐसी स्थितिमें उनके प्रकट होनेमें कठिनता ही क्या है? भक्तका प्रेम चाहिये। हरि व्यापक सर्जनत्र समाना ग्रेम तें प्रगटट होहि. मैं. जाना॥

निराकारकी व्यापकताका बिचार तो सभी कर सकते है परन्तु साकाररूपसे तो भगवान्‌ केवल भक्तको ही दीखते है। वे सर्वशक्तिमान्‌ है, चाहे जैसे कर सकते है। एकको, अनेकको या सबको एक साथ दर्शन दे सकते हैं, उनकी इच्छा है। अवश्य ही बह इच्छा लड़कोंके खेलकी तरह दोषयुक्त नहीं होती है। उनकी इच्छा विशुद्ध होती हैं। भक्तकी इच्छा भी भगवानके भावानुसार ही होती है। भगवानने कहा हैं कि मैं भक्तके हृदयमें रहता हूँ। बात ठीक है जैसे हम सबके शरीरमें निराकररूपसे अग्नि स्थित है, उसी प्रकार भगवान्‌ भी निश्यकार सत्‌-चित्‌-आनन्दघनरूपसे सभीके हृदयमें स्थित हैं परन्तु भ्क्तोंका हृदय शुद्ध होनेसे उसमें वे प्रत्यक्ष दीख पड़ते हैं, यही भक्त-हृदयकी विशेषता हैं। सूर्यका प्रतिबिम्ब काठ, पत्थर और दर्पणपर समान ही पड़ता हैं परन्तु स्वच्छ दर्पणमें तो वह टोखता है, काठ, पत्थरमें नहीं दीखता। इसी प्रकार भगवान्‌ सबके हृदयमें रहनेपर भी अभक्तोंके काप्ठ-सदृश अशुद्ध हृदयमें दिखलायी नहीं देते और भक्तोंके स्वच्छ दर्पण-सदृश शुद्ध हृदयमें प्रत्यक्ष दीख पड़ते हैं। भक्त ध्यानमें उन्हें जेसा समझता है, बैसे ही वे उसके हृदयमें बसते है

महात्मा लोग कहा करते हैं कि जहाँ कीर्तन होता है वहाँ भ्रगवान्‌ खय॑ साकाररूपसे उपस्थित रहते हैं, कीर्तन करते हुए भ्क्तको साकाररूपमें दौखते भी हैं। यह नहीं समझना चाहिये कि यह केवल भक्तकी भाजना ही है वास्तवमें उसे सत्यरूपसे ही दीखते है। केवल प्रतीत होनेबाला तो मायाका कार्य है। भगवान्‌ तो मायाशक्तिके प्रभु है। महापुरुषोंकी यह मान्यता सत्य है कि--

मद्धक्तां यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठाभि नारद | (आटदिपुर १९ | ३०)

यह हो सकता हे कि भगवान्‌ साकाररूपसे कीर्तनमें रहकर भी किसीको दीखें परन्तु वे कीर्तनमें स्वयं रहते हैं, इस बातपर विश्वास करना ही श्रेयस्कर है

जब भगवान्‌ चाहे जहाँ, जिस रूपमें भक्तके इच्छानुप्तार प्रकट हो सकते है तब भक्त अपने भगवानका किसी भी रूपमें ध्यान करे, फल एक़ ही होता है। मोरमुकुटधारी इयामसुन्दर

# भगकान्‌ क्‍या हैं 7 *

किकाक- १९

भगवान्‌ श्रीकृष्णका ध्यान करे या धनुषबाणधारी मर्यादा- भगवान्‌ श्रीरामंका कर। शह्ढ, चक्र, गदा, पद्मधारी भगवान्‌ श्रीविष्णुका ध्यान करे या विश्वरूप विराट

परमात्माका, बात एक ही है | जिस रूपका ध्यान करे उसीको

पूर्ण मानकर करना चाहिये | इसी प्रकार जप भी अपनी रुचिके अनुसार 3», राम, कृष्ण, हरि, नारायण, शिव आदि किसी भी _

भगवत्नामका करे, सबका फल एक ही है। सगुणके ध्यानकी कुछ विधि प्रेमभक्तिप्रकाशझ' और 'सच्चे सुखकी प्राप्तिके उपाय * शीर्षक लेखोंमें हैं। वहाँ देख लेनी चाहिये |

अब यहाँ भगवानके विश्वरूपके सम्बन्धमें कुछ कहना है। भगवानने अर्जुनको जो रूप दिखलाया था वह भी विश्वरूप था ओर वेदवर्णित भूर्भुबः स्व: रूप यह त्द्याप्ड भी भगवानका विश्वरूप है। दोनों एक ही बात है। सारा विश्व हो भगवान्‌का स्वरूप है। स्थावरजड्रम सबमें साक्षात्‌ परमात्मा विराजमान हैं। समस्त विश्वको परमात्माका स्वरूप मानकर उसका सत्कार और सेवा करना ही विश्वरूप परमात्माका सत्कार और सेवा करना है | विश्वमें जो दोष या बिकार है, वह सब परतमात्माके स्वरूपमें नहीं हैं। ये सब बाजीगरकी लीलाके समान क्रीड़ामात्र हैं। नाम-रूप सब खेल है भगवान्‌ तो सदा अपने ही स्वरूपमें स्थित हैं | निकाररूपसे तो परमात्मा बर्फमें जलकी भांति सर्वत्र परिपूर्ण हैं, बर्फमें जलसे भिन्न अन्य कोई वस्तु नहीं है। जलकी जगह बर्फका पिण्ड दीखता हैं, वास्तवमें कुछ है नहीं, इसी प्रकार उस शुद्ध ब्रह्ममें यह संसार दीखता है, वस्तुतः है नहीं

सगुणरूपसे अग्निकी तरह अव्यक्त होकर व्यापक है, सो चाहे जब साकाररूपमें प्रकट हो सकता है, यही बात ऊपर कही गयी है, इसी व्यापक परमात्माको विष्णु कहते हैं, विष्णु-शब्दका अर्थ ही व्यापक होता है

भगवान्‌ गुणातीत हैं, बु॒रे-भले सभी गुणोंसे युक्त हैं और केबल सद्ुणसमय्न हैं

भगवानमें कोई भी गुण नहीं, वे गुणातीत हैं, बुरे-भले सभी गुण उनमें हैं और उनमें केवल सद्गुण है, दुर्गुण है हो नहीं ये तीनों ही बातें भगवानके लिये कही जा सकती है। इस विषयको कुछ समझना चाहिये।

शुद्ध ब्रह्म निराकार चेतन विज्ञानानन्द्घन सर्वव्यापी परमात्माका वास्तविक रूप सम्पूर्ण गुणोंसे सर्वथा अतीत हैं| जगत्‌के सारे गुण-अवगुण सत्‌, रज और तमसे बनते है। सत्‌, रज, तम तीनों गुण मायाके अन्तर्गत है, इसीसे उसका

नाम त्रिगुणमयी माया है। इनमें सत्य उत्तम है, रज मध्यम है और तम अधम है। परमात्मा इस मायासे अत्यन्त विलक्षण, सर्वथा अतीत और गुणरहित है, इसीसे उसका नाम जुद्ध है। अतए्व वह गुणातीत है।

माया वास्तवमें है तो नहीं, यदि कहीं मानी जाय ते वह भी कल्पनामात्र है। यह मायाकी कल्पना परमात्माके एक अंशमें है। गुण-अवगुण सब मायामें है। इस न्यायसे सत्य, दया, त्याग, विचार और काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि गुण ओर अवशुणोंसे युक्त यह सम्पूर्ण संसार उस परमात्मामें हो अध्यारोपित है। इसीसे सभी सद्रुण और दुर्गण उसीमें आरोपित माने जा सकते हैं। इस स्थितिमें वह बुरे- भले सभी गुणोंसे युक्त कहा जा सकता है।

यह ब््माप्ड जिसके अन्तर्गत है, वह मायाविश्िष्ठ ब्रह्म सृष्टिकर्ता ईश्वर शुद्ध ब्रहसे भिन्न नहीं है, बह मायाकों अपने अधीन करके प्रादुर्भत होता है, समय-समयपर अवतार धारण करता है, इसीसे उसे मायाविशिष्ट कहते है। गीतामें कहा है--

अजो5पि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोडपि सन्‌ प्रकृति स्वामधिष्ठाय.. संभवाम्यात्ममायया (४। ६)

जैसे अवतार होते हैं वैसे ही सृष्टिक आदिमें भी मायाको अपने अधीन करके ही भगवान्‌ प्रकट होते हैं। इन्हींका नाम विष्णु है, ये आदिपुरुष विष्णु सर्वसत्त्गगुणसम्पन्न हैं। सत्त्वगुणको मूर्ति है। सात्तिक तेज, प्रभाव, सामर्थ्य, विभूति आदिसे विभूषित है। दैवी सम्पदाके गुण ही सत्तवगुण हैं शुद्ध सत्त्व ही उनका स्वरूप है। दुर्गुण तो रज और तममें रहते है, प्रेम सादुश्यता और समानतामें होता है, इसीसे जिस भक्तमें दैवी सम्पत्तिके गुण होते हैं वही भगवानके दर्शनका उपयुक्त पात्र समझा जाता है। मायाविशिष्ट सगुण भगवान्‌ मायाको साथ लेकर समय-समयपर अवतार धारण किया करते हैं | दे सर्वगुणसम्पन्न है। शुद्ध, स्वतन्त्र, प्रभु और सर्वशक्तिमान्‌ हैं। ऐसी कोई भी बात नहीं जो वे नहीं कर सकें | इसीलिये यद्यपि उन शुद्ध सत्तगुणरूप सगुण साकार परमात्मामें रज और तम वास्तवमें नहीं रहते तथापि वह रज-तमका कार्य कर सकते है। भगवान्‌ विष्णु दुष्टटलनरूप हिंसात्मक कार्य करते हुए दीख पड़ते हैं। मानव-दृष्टिसे उनमे हिसा या तमकी ग्रतीति होती है परन्तु वस्तुतः उनमें यह बात नहीं है न्यायकारी होनेके कारण वे यथावद्यक कार्य करते हैं। राजा जनक मुक्त पुरुष

*# 'प्रेमभक्तिप्रकाशझ' और “सच सुखकी प्राप्तिके उपाय' नामक दोनों लेख पुस्तकाकार गीताप्ेससे अऊुग भी मिल सकते हैं।

२०

* तत्त्वंचित्तामणि *

थे, परम सात्तिक थे, परन्तु राजा होनेके कारण न्याय करना उनका काम था चोरोंकों वे दण्ड भी दिया करते थे। इसमें कोई दोषकी बात भी नहीं। माता अपने प्यारे बच्चेको शिक्षा देनेके लिये धमकाती और किसी समय आवश्यक समझकर हितभरे हृदयसे एक-आध थप्पड़ भी जमा देती है, परन्तु ऐसा करनेमें उसकी दया ही भरी रहती है। इसी प्रकार दयानिधि न्यायकारी भगवानका दण्डविधान भी दयासे युक्त ही होता है। घर्मानुकूछ काम भी भगवान्‌ है। भगवानने कहा है-- धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोडस्मि भरतर्षभ

धर्मयुक्त काम मैं हूँ, परन्तु पापयुक्त नहीं। भगवान्‌ सत्‌ है, सात्तिक है, शुद्ध सत्तव है। वे मायाकी शुद्ध सत्तविद्यासे सम्पन्न हैं। जीव अविद्यासम्पन्न है। विद्यामें ज्ञान है, प्रकाश है, वहाँ अवगुण या अश्वकार ठहर ही कैसे सकता है ? अवगुण तो अविद्यामें रहते हैं। इस न्यायसे भगवान्‌ केवल सदुण- सम्पन्न हैं।

ऊपरके विवेचनसे यह सिद्ध हो गया कि परमात्मा गुणातीत, गुणागुणयुक्त और केवल सच्वगुणसम्पन्न कहे जा सकते है। भगवान्‌का स्वरूप और निराकार-साकारकी एकता

शरीरके तीन भेद है--स्थूल, सूक्ष्म और कारण। जो दीख पड़ता हैं सो स्थूल है, जो मरनेपर साथ जाता है वह सूक्ष्म है और जो मायामें लय हो जाता है वह कारण है। शरीरके ये तीनों भेद नित्य भी देखे जाते है। जाग्रतमें स्थूल शरीर काम करता है, स्वप्रमें सूक्ष्म और सुघुप्तिमें कारण रहता है। इसी प्रकार परमात्माके भी तीन स्वरूप कहे जा सकते है | महाप्रलयमें रहनेवाला परमात्माका कारण स्वरूप है, सारा विश्व उसीमें लूय होकर रहता है, उस समय केवल परमेश्वर और उनकी प्रकृति रहते हैं, सारे जीव प्रकृतिके अंदर लय हो जाते हैं। जीवमें भी प्रकृति-पुरुष दोनोंका अंश है। परमात्माका अड है और अज्ञान प्रकृतिका मायाकी उपाधिके कारण महाप्रलुयमें भी जीव मुक्त नहीं होते। उसके बाद सृष्टिके आदिमें फिर सोकर जाग उठनेके समान अपने-अपने कर्मफलानुरूप नाना रूपोंमें जाग उठते है। इस प्रकार महाप्रलयमे परपात्माका रूप कारण कहा जा सकता है।

परमात्माका सूक्ष्म रूप सब जगह रहता है, इसीका नाम आदिपुरुष है, सृष्टिका आदिकारण यही है, इसीका - नाम पुरुषोत्तम, सृष्टिकर्ता ईश्वर है

परमात्मा स्थूलरूपसे शद्गू-चक्र-गदा-पद्मधारी भगवान्‌ विष्णु हैं, जो सदा नित्यधाममें विराजते हैं।

भक्तकी भावनाके अनुसार ही भगवान्‌ बन जातें है। यह

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समस्त ब्रह्माण्ड परमात्माका शरीर है, इसीके अंदर अपना शरीर है, इस स्यायसे हम सब भी परमात्माके पेटमें हैं।

एक तत्त्वकी बात और समझनी चाहिये। जब आकाश निर्मल होता है, सूर्य उगे हुए होते है, उस समय सूर्यके और अपने बीचमें आकाशमें कोई चीज नहीं दीखती, परंतु वहाँ जल रहता है। यह मानना पड़ेगा कि सूर्य और अपने बीचमें जल भय हुआ है परन्तु वह दीखता नहीं; क्योंकि वह सूक्ष्म और परमाणुरूपमें रहता है, जब उसमें घनता आती है तब क्रमशः उसका रूप स्थूल होकर व्यक्त होने लगता है। सूर्यदेवके तापसे भाप बनती है, जब भाष घन होती है तब उसके बादल बन जाते है, फिर उनमें जलूका सझार होता है। पानीके बादल पहाड़परसे चले जाते हों, उस समय कोई वहाँ चला जाय तो वर्षा होनेपर भी उसके कपड़े भीग जाते है। बादलमें जलकी घनता होनेपर बुँदें बन जाती हैं और घनता होती है तो वही ओले बनकर बरसने लगता है। फिर वह ओले या बर्फ गर्मी पहुँचते ही गलकर पानी हो जाते है और अधिक गर्मी होनेपर उसीकी फिर भाष बन जाती है, भाष आकाशमें उड़कर अदृश्य हो जाती है और अन्तमें जल फिर उसी परमाणु अव्यक्तरूपमें परिणत हो जाता है। इस परमाणुरूपमें स्थित जलको-- अत्यन्त सूक्ष्म परमाणुको सहस््रगुण स्थूल दिखलानेवाले यनत्रसे भी कोई नहीं देख सकता | पर जल रहता अवइय है, रहता तो आता कहाँसे ?

इस दुृष्टान्तके अनुसार परनात्माका स्वरूप समझना चाहिये। श्रीमद्धगवद्वीतामें कहा है--

अक्षर ब्रह्मा परमं स्वभावो5ध्यात्मघुच्यते भूतभावोद्धधकरो.. विसर्गः.. कर्मसंज्ञितः अधिभूत॑. क्षरो. भावः .पुरुषश्चाधिदेवतम्‌ अधियज्ञोड्हमेवात्र. देहे.. देहभूतों.. बर॥॥

(८ | रे-४ )

अर्जुनके सात प्रश्नोंमें छः प्रश्न ये थे कि जहा क्या है, अध्यात्म क्या है, कर्म क्या है, अधिभूत क्या है, अधिदेव कया है और अधियज्ञ बया है ? भगवानने उपर्युक्त इलेकोंमें इनका यह उत्तर दिया कि अक्षर ब्रह्म है, खभाव अध्यात्म है, शाम्रोक्त त्याग कर्म है, नाश होनेवाले पदार्थ अधिभूत है, समष्टिप्राणरूपसे हिरण्यगर्भ द्वितीय पुरुष अधिदेव है और निरकार व्यापक विष्णु अधियज्ञ मैं हूँ।

वपर्युक्त दृष्टान्तसे इसका दाष्टरत्त इस प्रकार समझा जा सकती है।

(१) परमाणुरूप जलके स्थानमें--

शुद्ध सचिदानन्दघन गुणातीत परमात्मा, जिसमें यह

* भगवान्‌ क्‍या हैं ? * २१

संसार तो कभी हुआ और है; जो केवल अतीत, परम, अक्षर है।

(२) भापरूप जल---

बही शुद्ध ब्रह्म अधियज्ञ निराकाररूपसे व्याप्त रहनेवाला मायाविशिष्ट ईश्वर |

(३) बादल--

अधिदेब, सबका प्राणाधार हिरण्यगर्भ ब्रह्मा। सत्रह तत्वोंके समूहको सूक्ष्म कहते हैं, इनमें प्राण प्रधान है। सबके प्राण मिलकर समटष्टिप्राण हो जाते हैं, यह समष्टिप्राण प्रल्यमें भी रहता है, महाप्रलयमें नहीं। यह सत्रह तत्त्वोंका समूह हिरण्यगर्भ ब्रह्मका सूक्ष्य शरीर है।

(४) जलकी लाखों-करोड़ों बूँदें--

जयगत्‌के सब जीव |

(५) वर्षा--

जीबोंकी क्रिया |

(६) जलके ओलछे या बर्फ--

पञ्मभूतोंकी अत्यन्त स्थूल सृष्टि |

इस सृष्टिका स्वरूप इतना स्थूल और बिनाञशीछ है कि जरा-सा ताप छगते ही क्षणभरमें ओलॉके गलकर पानी हो जानेके सदृह्षा तुरंत गल जाता है। यहाँ ताप ज्ञानाम्रिरूप वह प्रकाश है, जिसके पैदा होते ही स्थूल सृष्टिरूपी ओले तुरंत गल जाते हैं |

अज्ञान ही सरदी है। जितना अज्ञान होता है उतनी स्थूलता होती है और जितना ज्ञान होता है उतनी ही सूक्ष्मता होती है। जो पदार्थ जितना भारी होता है, वह उतना ही नीचे

गिरता है, जितना हछका होता है उतना ही ऊपरको उठता है।

अज्ञान ही बोझा है, जलके अत्यन्त स्थूल होनेपर जब बह बर्फ बन जाता है तभी उसे नीचे गिरना पड़ता है, इसो प्रकार अज्ञानके बोझसे स्थूल हो जानेपर जीवको गिरना पड़ता है

ज्ञानरूपी तापके प्राप्त होते ही संसारका बोझ उतर जाता है और जैसे तापसे गलकर जल बननेपर और भी ताप प्राप्त होनेसे वह जल धूआँ या भाप होकर ऊपर उड़ जाता है, वैसे ही जीव भी ऊपर उठ जाता है।

जीवात्मा खास ईश्वरका स्वरूप है, परंतु जड़ता या अज्ञानसे जब यह स्थूल हो जाता है तभी इसका पतन होता है। अज्ञान ही अधःपतनका कारण है और ज्ञान ही उत्थानका

कारण है | जीवात्मा एक बार रोष सीमातक उठनेपर फिर नहीं

गिरता। उसके ज्ञानमें सब कुछ परमेश्वर ही हो जाता है, वास्तवमें तत्तसे है तो एक ही। परमाणु, भाष, बादल, बूँद, ओले सब जल ही तो हैं।

इस न्यायसे सभी वस्तुएँ एक ही परमात्मतत्त्व है, इसलिये भगवान्‌ चाहे जैसे, चाहे जब, चाहे जहाँ, चाहे जिस रूपसे प्रकट हो जाते है। इस बातका ज्ञान होनेपर साधककों सब जगह इंश्वर ही दीखते हैं | जलका तत्त्व समझ लेनेपर सब जगह जल ही दीखता है, वही परमाणुमें और वही ओलोंमें | अत्यन्त सूक्ष्में भी वही और अत्यन्त स्थूलमें भी वही इसी प्रकार सूक्ष्म और स्थूलमें वही. एक परमात्मा है। “अणोरणीयान्‌ महतो महीयान्‌।'यही निशाकार-साकारकी एकरूपता है

अज्ञानसे अहंकार बढ़ता है, जितना अहंकार अधिक होता है उतना ही वह सांसारिक वस्तुओंको अधिक ग्रहण करता है। जितना सांसारिक बोझ अधिक होगा उतना ही बह नीचे जायगा। गुण तीन हैं, इनमें तमोगुण सबसे भारी है, इसीसे तमोगुणी पुरुष नीचे जाता है। रजोगुण समान है, इससे सजोगुणी बीचमें मनुष्यादिमें रह जाता है। सत्ततगुण हलका है, इससे सक्त्वगगुणी परमात्माकी ओर ऊपरको उठता है--

, ऊर्ध्व गच्छन्ति.. सत्स्था:! 'मध्ये तिष्ठन्ति राजसा:' 'अधो गच्छन्ति तामसा:'

हलकी चीज ऊपर तैरती है, भारी डूब जाती है। आसुरी सम्पदा तमोगुणका खरूप हैं इसलिये बह नीचे ले जाती है, सत्तगुण हलका होनेसे ऊपरकों उठाता है दैवी सम्पदा ही सत्त्वगुण है, यही ईश्वरकी सम्पत्ति है। यह सम्पत्ति ज्यों-ज्यों बढ़ती है त्यों-ही-त्यों साधक ऊपर उठता है, यानी परमात्माके समीप पहुँचता है

इस तरहसे स्थूल और सूक्ष्ममें उस एक ही परमात्माको व्यापक समझना चाहिये |

परमात्मा व्यापकरूपसे सबको देखते और जानते हैं।

सर्वतःपाणिपादं तत्सर्बतो5क्षिशिरोमुखम सर्वतः भ्रुतिमल्‍लोके सर्बमावृत्य तिष्ठति (गीता १३। ३३)

वह ज्ञेय कैसा है? सब ओरसे हाथ-पैरवाला, सब ओरसे नेत्र, सिर तथा मुखबाल्ला एवं सब ओरसे कानबाला है। ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ वह हो, ऐसा कोई दाब्द नहीं जिसे वह सुनता हो, ऐसा कोई दृश्य नहीं जिसे वह देखता हो, ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसे बह ग्रहण करता हो ओर ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ बह पहुँचता हो |

हम यहाँ प्रसाद लगाते हैं तो बह तुरंत खाता है। हम यहाँ स्तुति करते हैं तो बह सुनता है। हमारी प्रत्येक क्रियाको वह देखता है परन्तु हम उसे नहीं देख सकते इसपर यह प्रश्न होता है कि एक ही पुरुषकी सब जगह सब इन्द्रियाँ कैसे रहती

ग्रे

* तक््वचिन्तामणि -*

है ? आँख है, वहाँ नाक कैसे हो सकती है ? इसके उत्तरमें यही कहा जा सकता है कि यह बात तो ठीक है, परन्तु परमात्मा इससे विलक्षण है। वह कुछ अलोकिक शक्ति है, उसमें सब कुछ सम्भव है मान लीजिये, एक सोनेका ढेल्ज है, उसमें कड़े, बाजूबंद, कण्ठी आदि सभी गहने सभी जगह है | जहाँ इच्छा : हो बहींसे सब चीजें मिल सकती हैं, इसी प्रकार वह एक ऐसी - वस्तु है जिसमें सब जगह सभी वस्तुएँ व्यापक है, सभी उसमेंसे निकल सकती हैं, बह सब जगहकी और सबको बातोंको एक साथ सुन सकता है और सबको एक साथ देख सकता है। स्वप्रमें आँख, कान, नाक वगैरह होनेपर भी अन्तःकरण स्वयं सब क्रियाओंको आप ही करता और आप हो देखता-सुनता है। द्रष्टा, दर्शन और दृश्य सभी कुछ बन जाता है, इसी प्रकार ईश्वरीय शक्ति भी बड़ी विलक्षण है, बह सब जगह सब कुछ करनेमें सर्वथा समर्थ है। यही तो उसका ईश्वरत्व और विशट्‌ खरूप है। साकाररूप उस परमेश्वरका समस्त ब्रह्माण्ड शरीर है, जैसे बर्फ जलका शरीर है परन्तु उससे अलग नहीं है। इसी प्रकार क्‍या संसार भी वस्तुतः ऐसा ही है ? क्या झरीर भी परमात्मा है ? इसके उत्तरमें यही कहना पड़ता है कि है भी ओर नहीं भी इस दरीरकी कोई सेवा करता या आराम पहुँचाता है, तब मैं उसे अपनी सेवा और अपनेको आराम पहुँचता है, ऐसा मानता हूँ परन्तु वस्तुतः मैं शरीर नहीं हूँ; में आत्मा हूँ, पर जबतक मैं इस साढ़े तीन हाथकी देहको 'मैं' मानता हूँ तबतक़ वह मैं हूँ। इस स्थितिमें चराचर ब्रह्माण्ड ईश्वर है,

सबको उसकी सेवा कसी चाहिये, उसकी सेवा ही ईश्वर्की 4 जल मर काम , से सुख पहुंचाना ही परमात्माकों सुख पहँ है और जब में यह शरीर नहीं हूँ, तब यह ब्रह्माण्डरूपी शरीर भी ईश्वर नहीं है। यह अपना शरीर है तभीतक वह उसका शरीर है हम सब उनके अंश है तो वह अंश्ञी है। वास्तवमें अन्तमें हम आत्मा ही ठहरते है, शरीर नहीं परन्तु जबतक ऐसा नहीं है तबतक इसी चालसे चलना चाहिये | यथार्थ ज्ञान होनेपर तो एक शुद्ध ब्रह्म हो रह जायगा।

इस न्यायसे निराकार-साकार सब एक ही वस्तु है। जगत्‌ परमेश्वरमें अध्यारोपित है | महात्मा लोग ऐसा ही कहते हैं जैसे रज्जुमें सर्पकी प्रतीतिमात्र है, वास्तवमें है नहीं | स्वप्रका संसार अपमेमें प्रतीत होता हैं, मुगतृष्णाकां जल या आकाझमें तिरमिरे प्रतीत होते हैं, इसी प्रकार परमात्मामें संसारकी प्रतीति होती है इस बातको महात्मा पुरुष ही जानते हैं। जागनेपर जागनेवालेको ही स्वप्नके संसारकी असारताका यथार्थ ज्ञान होता है जबतक यह बात जाननेमें नही आती तबतक उपाय करना चाहिये। उपाय यह है--

निय्कार और साकार किसी भी रूपका ध्यान करनेपर जो एक हो परम वस्तु उपलब्ध होती है, उस परमेश्वस्की सब प्रकारसे शरण होकर इच्द्रिय और शरीरसे उसकी सेवा करना, मनसे उसे स्मरण करना, श्वाससे उसका नामोश्चारण करना, कानोंसे उसका प्रभाव सुनना और शरीरसे उसकी इच्छानुसार चलना यही उसकी सेवा है, यही असली भक्ति है ओर इसीसे | आत्माका ज्ञीघ्र कल्याण हो सकता है।

३४ शान्ति: शान्ति: शान्ति:

ल-+ और त्यागसे भगवत-प्राप्ति

त्यक्त्ता कर्मफलासडूं. नित्यतृप्ती निराश्रय: कर्मण्यभिप्रवृत्तोतषषि. नैव किज्वित्करोति सः हि देहभ्ृता शक्य त्यक्तः कम्मण्यशेक्ततः यस्तु कर्मफलत्यागी स॒ त्यागीत्यभिधीयते गृहस्थाश्रममें रहता हुआ भी मनुष्य त्यागके द्वास परमात्माको प्राप्त कर सकता है। पस्मात्माको प्राप्त करनेके लिये 'त््याग' ही मुख्य साधन है। अतएव सात श्रेणियोंमें विभक्त करके त्यागके लक्षण संक्षेपमें लिखे जाते हैं (१) निषिद्ध कर्मोका सर्वथा त्याग। चोरी, व्यभिचार, झूठ, कपट, छल, जबरदस्ती, हिंसा,

अभक्ष्यभोजन और प्रमाद आदि शास्त्रविरुद्ध नीच कर्मोंको मन, वाणी और झ्रीरसे किसी प्रकार भी करना, यह पहली श्रेणीका त्याग है। (२) कांष्य कर्मोका त्याग स्त्री, पूत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओंकी प्राप्तिक उद्देश्यसे एवं रोग-संकटादिकी निवृत्तिक उद्देश्यसे किये जानेवाले यज्ञ, दान, तप और उपासनादि सकाम कर्मोंको अपने स्वार्थक लिये करना *, यह दूसरी श्रेणीका त्याग है। (३) तृष्णाका सर्वथा त्याग मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा एवं खी, पुत्र और धनादि जो कुछ

है. /!_ 5 कस नम. सु प----स््मन्‍न्‍मेममानननम

# यदि कोई लौकिक अथवा शास्त्रीय ऐसा कर्म संयोगवश्म प्राप्त हो जाय जो कि स्वरूपसे तो सकाम हो, परन्तु उसके करनेसे किसीको कष्ट पहुँचता हो या कर्म -ठपासनाकी परम्परामें किसी प्रकारकी बाधा आती हो तो स्वार्थका त्याग करक केवल लोकसंग्रहके लिये उसका कर लेना सकाम कर्म नहीं है

* त्यागसे भगवत-प्राप्ति *

श्डे

भी अनित्य पदार्थ प्रारब्धके अनुसार प्राप्त हुए हों, उनके बढ़नेकी इच्छाको भगवत्माप्तिमें बाधक समझकर उसका त्याग करना, यह तीसरी श्रेणीका त्याग है। (४) स्वार्थके लिये दूसरोंसे सेवा करानेका त्याग

अपने सुखके लिये किसीसे भी धनादि पदार्थोकी अथवा सेवा करानेकी याचना करना एवं बिना याचनाके दिये हुए पदार्थोको या की हुई सेवाको स्वीकार करना तथा किसी प्रकार भी किसीसे अपना स्वार्थ सिद्ध करनेकी मनमें इच्छा रखना इत्यादि जो स्वार्थके लिये दूसरोंसे सेवा करानेके भाव हैं, उन सबका त्याग करना, यह चौथी श्रेणीका त्याग है।

(५) सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंमें आलस्य और फलकी इच्छाका सर्वथा त्याग

ईश्वरकी भक्ति, देवताओंका पूजन, माता-पितादि गुरुजनोंकी सेवा, यज्ञ, दान, तप तथा वर्णाश्रमके अनुसार आजीविकाद्वारा गृहस्थका निर्वाह एवं शरीर-सम्बन्धी खान-पान इत्यादि जितने कर्तव्यकर्म हैं, उन सबमें आलस्यका ओर सब प्रकारकी कामनाका त्याग करना |

(क) ईश्वर-भक्तिमें आलस्यका त्याग |

अपने जीवनका परम कर्तव्य मानकर परम दयालु, सबके सुहृद, परम प्रेमी, अन्तर्यामी परमेश्वरके गुण, प्रभाव और प्रेमकी रहस्यमयी कथाका श्रवण, मनन और पठन-पाठन करना तथा आलस्यरहित होकर उनके परम पुनीत नामका उत्साहपूर्वक ध्यानसहित निरन्तर जप करना |

(ख) ईश्वर-भक्तिमें कामनाका त्याग |

इस लोक और परलोकके सम्पूर्ण भोगोंकों क्षणभड्डूर, नाशवान्‌ और भगवानूकी भक्तिमें बाधक समझकर किसी भी बस्तुकी प्राप्तिक लिये तो भगवानसे प्रार्थना कग्ना और मनमें इच्छा ही रखना तथा किसी प्रकारका संकर जानेपर भी उसके निवारणके लिये भगवानूसे प्रार्थना करना अर्थात्‌ हृदयमें ऐसा भाव रखना कि प्राण भले ही चले जायें, परंतु इस मिथ्या जीवनके लिये विशुद्ध भक्तिमें कलड्ू लगाना उचित नहीं है जैसे भक्त त्रह्मादने पिताद्वारा बहुत सताये जानेपर भी अपने कष्टनिवारणके लिये भगवानसे ग्रार्थना नहीं की

अपना अनिष्ट करनेबाल्लेंको भी 'भगवान्‌ तुम्हारा बुरा

करें” इत्यादि किसी प्रकारके कठोर शब्दोंसे शाप देना और उनका अनिष्ट होनेकी मनमें इच्छा भी रखना

भगवानकी भक्तिके अभिमानमें आकर किसीकों वरदानादि भी देना, जैसे कि 'भगवान्‌ तुम्हें आरोग्य करें', भगवान्‌ तुम्हारा दुःख दूर करें', 'भगवान्‌ तुम्हारी आयु बढ़ावें' इत्यादि

पत्र-व्यवहारमें भी सकाम झब्दोंका लिखना अर्थात्‌ जैसे 'अठे उठे श्रीठाकुरजी सहाय छै', 'ठाकुरजी बिक्री चल्ासी', 'ठाकुरजी वर्षा करसी' 'ठाकुरजी आराम करसी' इत्यादि सांसारिक वस्तुओंके लिये ठाकुरजीसे प्रार्थना करनेके रूपमें सकाम शब्द मारवाड़ी समाजमें प्रायः लिखे जाते हैं वैसे लिखकर 'श्रीपरमात्मदेव आनन्दरूपसे सर्वत्र विराजमान हैं', 'श्रीपरमेश्वरका भजन सार है' इत्यादि निष्काम माड़ुलिक शब्द लिखना तथा इसके सिवाय अन्य किसी प्रकार्से भी लिखने, बोलने आदियें सकाम शब्दोंका प्रयोग करना।

(ग) देवताओंके पूजनमें आलस्य ओर कामनाका त्याग

शास्तर-मर्यादासे अथवा लोक-मर्यादासे पूजनेके योग्य देवताओंको पूजनेका नियत समय आनेपर उनका पूजन करनेके लिये भगवान्‌की आज्ञा है एवं भगवान्‌की आज्ञाका पालन करना परम कर्तव्य है, ऐसा समझकर उत्साहपूर्वक विधिके सहित उनका पूजन करना एवं उनसे किसी प्रकारकी भी कामना करना |

उनके पूजनके उद्देश्यसे रोकड़, बहीखाते आदिमे भी सकाम शब्द लिखना अर्थात्‌ जैसे मारवाड़ी समाजमें नये बसनेके दिन अथवा दीपमालिकाके दिन श्रीलक्ष्मीजीका पूजन करके 'श्रीलक्ष्मीजी लाभ मोकलो देसी', 'भण्डार भरपूर राखसी', 'ऋद्धि-सिद्धि करसी', श्रीकालीजीके आसरे', 'श्रीगड़ाजीके आसरे' इत्यादि बहुत-से सकाम झब्द लिखे जाते हैं, वैसे लिखकर 'श्रीलृक्ष्मीगाययणजी सब जगह आनन्दरूपसे विराजमान है' तथा “बहुत आनन्द और

| उत्साहके सहित श्रीलक्ष्मीजीका पूजन किया' इत्यादि निष्काम

माड़लिक शब्द लिखना और नित्य रोकड़, नकछ आदिके आरभभ करनेमें भी उपरोक्त रीतिसे ही लिखना।

ाँयथणभप,-े--ाजपूप+ौ़फुकक ्केकक--न्‍हन-नन्‍घ3३[]3॥. /ैहफहफुफुफु$ह$झ

* यदि कोई ऐसा अवसर योग्यतासे ग्राप्त हो जाय कि शरीरसम्बन्धी सेवा अथवा भोजनादि पटार्थेकि स्वीकार करनेसे किसीको कष्ट पहुँचता हो या लोकशिक्षामं किसी प्रकारको बाधा आती हो तो उस अवसरपर स्वार्थका त्याग करके केवल उनकी प्रीतिके लिये सेवादिका स्वीकार करना दोषयुक्त नहीं है; क्योंकि ख्री, पुत्र और नौकर आदिसे की हुई सेवा एवं बच्धु-बान्धव और मित्र आदिद्वारा दिये हुए भोजनादि पदार्थ खवीकार

करनेसे उनको कष्ट होना एवं लछोक-मर्यादायें बाधा पड़ना सम्भव हैं। [683 ] त्त० चि० म० २-

श्ड

(घ) माता-पितादि गुरुजनोंकी सेथामें आलणस्य और कामनाका त्याग माता, पिता, आचार्य एवं और भी जो पूजनीय पुरुष वर्ण, आश्रम, अवस्था और गुणोंमें किसी प्रकार भी अपनेसे बड्े हों उन सबकी सब प्रकारसे नित्य सेव! करना और उनको नित्य प्रणाम करना मनुष्यका परम कर्तव्य हैं, इस भावकों हृदयमें रखते हुए आलस्यका सर्वथा त्याग करके, निष्कामभावसे उत्साहपूर्वक भगवदाज्ञानुसार उनकी सेवा करनेमें तत्पर रहना | (ड) यज्ञ, दान ओर तप आदि शुभ कमोंमें आलस्य ओर कामनाका त्याग। पञ्ञ महायज्ञादि* नित्यकर्म एवं अन्यात्य नैमित्तिक कर्मरूप यज्ञादिका करना तथा अन्न, वस्त्र, विद्या, औषध और धनादि पदार्थोंके दानद्वास सम्पूर्ण जीवॉकी यथायोग्य सुख पहुँचानेके लिये मन, वाणी और शरीरसे अपनी शक्तिके अनुसार चेष्टा करना तथा अपने धर्मका पालन करनेके लिये हर अ्रकारसे कष्ट सहन करना इत्यादि ज्ञाखविहित कर्मोमें इस लोक ओर परलोकके सम्पूर्ण भोगोंकी कामनाका सर्वथा त्याग करके एवं अपना परम कर्तव्य मानकर श्रद्धासहित उत्साहपूर्वक भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ ही उनका आचरण करना (च) आजीबिकाद्वारा गृहस्थ-निर्वाहके उपयुक्त कर्मों आलस्य ओर कामनाका त्याग आजीविकाके कर्म जैसे बैदयके लिये कृषि, गोरक्ष्य और वाणिज्य आदि कहे हैं, वैसे ही जो अपने-अपने वर्ण-आश्रमके अनुसार शासत्रमें विधान किये गये हों, उन सबके पालनद्वारा संसारका हित करते हुए ही गृहस्थका निर्वाह करनेके लिये भगवानकी आज्ञा है। इसलिये अपना कर्तव्य मानकर त्यभ-हानिकों समान समझते हुए सब प्रकारकी कामनाओंका त्याग करके उत्साहपूर्वक उपरोक्त कमोंका करना + |

* त्तस्वदिन्तामणि *

(छ) शरीरसम्बन्धी कर्मों आलस्य और कामनाका त्याग

शरीर-निर्वाहके लिये शास्रोक्त रीतिसे भोजन, बस्तर और ओऔषधादिके सेवनरूप जो दशारीरसन्बन्धी कर्म हैं, उनमें सब प्रकाकके भोगविलासौंकी कामनाका त्याग करके एवं सुख-दुःख, ल्ाभ-हानि और जीवन-मरण आदिको समान समझकर केवल भगवद्माप्तिके लिये ही योग्यताके अनुसार उनका आचरण करना।

'पूर्वोक्त चार श्रेणियोंके त्यागस॒हित इस पाँचवीं श्रेणीके त्यागानुसार सम्पूर्ण दोषोंका और सब प्रकार्की कामनाओंका नाश होकर केवल एक भगवत्य्रप्तिकी ही तीच्र इच्छाका होना ज्ञानकी पहली भूमिकामें परिपक्त अवस्थाको प्राप्त हुए पुरुषके लक्षण समझने चाहिये |

(६) संसारके सम्पूर्ण पदार्थोमें ओर कर्मोमें

ममता ओर आसक्तिका सर्वथा त्याग

धन, भवन और वसद्ादि सम्पूर्ण वस्तुएँ तथा स्त्री, पूत्र और मित्रादि सम्पूर्ण बान्धवजन एवं मान, बड़ाई ओर प्रतिष्ठा इत्यादि इस लोकके और परलोकके जितने विषयभोगरूप पदार्थ हैं, उन सबको क्षणभब्भर और नाशब़ान्‌ होनेके कारण अनित्य समझकर उनमें ममता और आसक्तिका रहना तथा केवल एक सच्निदानन्दघन परमात्ममें ही अनन्यभावसे विशुद्ध प्रेम होनेके कारण मन, वाणी और ररीरद्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंमें और शरीसमें भी ममता और आसक्तिका सर्वथा अभाव हो जाना, यह छठी श्रेणीका त्याग हेंई।

उक्त छठी श्रेणीके त्यागको प्राप्त हुए पुरुषोंका सेसास्क सम्पूर्ण पदार्थोमें वेराग्य होकर केवल एक परम प्रेममय भगवानमें ही अनन्य प्रेम हो जाता है। इसलिये उनको भगवानके गुण, प्रभाव और रहखसे भरी हुई विश्ुुद्ध प्रेमके विषयको कथाओंका सुनना-सुनावा और मनन करना तथा

+* पञ्ञ महायज्ञ यह हैं। देवयज्ञ (अग्निहोत्रादि), ऋषियज्ञ (वेदपाठ, सम्ध्या, गायत्रीजपादि), पितृबज्ञ (तर्पण-श्राद्धादि), मनुष्ययज्ञ

(अतिथिसेवा) और भूतयज्ञ (बलिवेश्व)

+ उपरोक्त भावसे करनेवाले पुरुषके कर्म लोभसे रहित होनेके कारण उनमें किसी प्रकारका भी दोष नहीं सकता; क्योंकि आर्जीविकाके

कर्मोमें लोभ ही विशेषरूपसे पाप करानेका हेतु है। इसलिये मनुष्यकों चाहिये कि 'गीताप्रेस, गारखपुर' से प्रकाशित साधारण भाषाटीका गीता अध्याय १८ इलोक ४४ की टिप्पणीमें जैसे वेइयके प्रति वाणिज्यके दोषोंका त्याग करनेके लिये विस्तारपूर्वक लिखा है, उसी प्रकार अपने-अपने बर्ण-आश्रमके अनुसार सम्पूर्ण कर्मोंमें सब प्रकारके दोषोंका त्याग करके केवल भगवानकी आज्ञा समझकर भगवान्‌क लय निष्कामभावस हो सम्पूर्ण कर्मोॉका आचरण करे।

+ सम्पूर्ण पदार्थोमें और कर्मामें तृष्णा और फलकी इच्छाका त्याग तो तीसरी और पाँचवीं श्रणीके त्याग कहा गया परन्तु उपर्युक्त त्यागके होनेपर भी उनमें ममता और आसक्ति शोष रह जाती है। जैसे भजन, ध्यान और सत्सड्अकते अभ्याससे भरतमुनिका सम्पूर्ण पदार्थॉमें और कर्मोमें तृष्ण और फलकी इच्छाका त्याग होनेपर भी हरिणमें और हरिणके पालनरूप कर्ममें ममता और आसक्ति बनी रहो। इसलिंश संमारके सम्पूर्ण पदार्थेमिं और कर्मेमें ममता और आसक्तिके त्यागकों छठी श्रणीका त्याग कहा है।

अन्त कब > >> ८-८..." ०००० २आ+नममआा----प्न-न्‍नन

* त्यागसे भगवत-श्राप्ति *

श्प

एकान्त देशमें रहकर निरन्तर भगवान्‌का भजन, ध्यान और शास्तरोंक मर्मका विचार करना ही प्रिय लगता है | विषयासक्त मनुष्योंमें रहकर हास्य, विलास, प्रमाद, निन्‍दा, विषयभोग और व्यर्थ वार्तादिमें अपने अमूल्य समयका एक क्षण भी बिताना अच्छा नहीं लगता एबं उनके द्वारा सम्पूर्ण कर्तव्यकर्म भगवानके स्वरूप और नामका मनन रहते हुए ही बिना आसक्तिके केवल भगबदर्थ होते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण पदार्थोमें और कर्मोमें ममता और आसक्तिका त्याग होकर केवल एक सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही विशुद्ध प्रेमका होना ज्ञानकी दूसरी भूमिकामें परिपक्क अवस्थाको प्राप्त हुए पुरुषके लक्षण समझने चाहिये। (७) संसार, शरीर ओर सम्पूर्ण क्मोमें सूक्ष्म बासना ओर अहंभाबका सर्वथा त्याग संसारके सम्पूर्ण पदार्थ मायाके कार्य होनेसे सर्वथा अनित्य हैं और एक सचदानन्दघन परमात्मा ही सर्वत्र समभावसे परिपूर्ण हैं; ऐसा दृढ़ निश्चय होकर शरीरसहित संसारके सम्पूर्ण पदार्थोमें और सम्पूर्ण कर्मोमें सूक्ष्म वासनाका

सर्वथा अभाव हो जाना अर्थात्‌ अन्तःकरणमें उनके चित्रोंका संस्काररूपसे भी रहना एवं शरीरमें अहंभावका सर्वथा अभाव होकर मन, वाणी और शरीरद्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कमोंमें कर्तापनके अभिमानका लेझमात्र भी रहना, यह सातदीं श्रेणीका त्याग है* |

इस सातवीं श्रेणीके' त्यागरूप पर-वैराग्यको+ प्राप्त हुए पुरुषोंके अन्तःकरणकी वृत्तियाँ सम्पूर्ण संसारसे अत्यन्त उपराम हो जाती हैं यदि किसी कालमें कोई सांसारिक फुरना हो भी जाती है तो भी उसके संस्कार नहीं जमते; क्योंकि उनकी एक सच्चिदानन्दधन वासुदेव परमात्मामे ही अनन्यभावसे गाढ़ स्थिति निरन्तर बनी रहती है।

इसलिये उनके अन्तःकरणमें सम्पूर्ण अवगुणोंका अभाव होकर अहिंसा १, सत्य २, अस्तेय ३, - ब्रह्मचर्य ४, अपैशुनता ५, लज्जा, अमानित्त ६, निष्कपटता, शौच ७, संतोष ८, तितिक्षा ९, सत्सड़र, सेवा, यज्ञ, दान, तप १०, स्वाध्याय ११, शाम १२, दम १३, विनय, आर्जव १४, दया १५, श्रद्धा १६, विवेक १७, वैराग्य

* सम्पूर्ण संसारके पदार्थोमें और कर्मोंमें तृष्ण और फलकी इच्छाका एवं ममता और आसक्तिका सर्वथा अभाव होनेपर भी उममें सूक्ष्म वासना और कर्दव-अभिमान शेष रह जाता है। इसलिये सूक्ष्य वासना और अह्दंभावके त्यागको सातवीं श्रेणीका त्याग कहा है।

+ पूर्वोक्त छठी श्रेणीके त्यागको प्राप्त हुए पुरुषकी तो विषयोका विशेष संसर्ग होनेसे कदाचित्‌ उनमें कुछ आसक्ति हो भी सकती है, परन्तु इस सातलीं श्रेणीके त्यागी पुरुषका विषयोंके साथ संसर्ग होनेपर भी उनमें आसक्ति नहीं हो सकती; क्योंकि उसके निश्चयमें एक परमात्माके सिवा

अन्य कोई चस्तु रहती ही नहीं, इसलिये इस त्यागको परवैरग्य कहा है।

१. मन, बाणी और शरीरसे किसी प्रकार किसीकों कष्ट देना।

२. अन्तःकरण और इनर्द्रियोंके द्वार जैसा निश्षय किया हो, वैसे-का-वैसा ही प्रिय ताब्दोंमें कहना

. ३, चोरीका सर्वथा अभाव | ४, आठ अकारके मैथुनोंका अभाद | ५. किसीकी भी निनदा करना। ६. सत्कार, मान और पूजादिका चाहना।

७. बाहर और भीतरकी पकित्रदा (सत्यतापूर्वक शुद्ध व्यवहाससे द्रव्यकी और उसके अब्नसे आहारकी एवं यथायोग्य बरताबिंसे आचरणोंकी और जल-मृत्तिकादिसे झरीरकी शुद्धिको तो बाहरकी शुद्धि कहते है और रुग, द्वेष तथा कपटादि विकारोंक्ा नाश होकर अन्तःकरणका स्वच्छ और

जुद्ध हो जाना, भीतरकी शुद्धि कहलाती है।) ८, तृष्णाका सर्वधा अभाव | ९. शीत-उष्ण, सुख-दुःखादि दम्दोंका सहन करना | १०, स्वधर्म-पालनके लिये कष्ट सहना। जज

११, वेद और सतशास्तरोंका अध्ययन एवं भगवान्‌के नाम और गृणोंका कीर्तना

१२. मनका व्ममें होना।

१३. इन्द्रियोंका वश्ञमें होना।

१४. शरीर और इच्ध्ियोंके सहित अन्तःकरणकी सरलता १५. दुःखियोंमें करुणा |

१६. बेद, शास्त्र, महात्मा, गुर और परमेश्वरके वचनोंमें प्रत्यक्षके सटुग् विश्वास

१७. सत्‌ और असत्‌ पदार्थका यथार्थ ज्ञान।

२६

१८, एकान्तवास, अपरिग्रह १९, समाधान २०, उपरामता, तेज २१, क्षमा २२, धैर्य २३, अद्रोह २४, अभय २५, निरहंकारता, ज्ञान्ति २६ और ईश्वरमें अनन्यभक्ति इत्यादि सदगुणोंका आविर्भाव स्ावसे ही हो जाता है।

इस प्रकार शरीरसहित सम्पूर्ण पदार्थोमें और कर्मामें बासना और अहंभावका अत्यन्त अभाव होकर एक सचिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें ही एकीभावसे नित्य निरन्तर दुढ़ स्थिति रहना ज्ञानकी तीसरी भूमिकामें परिपक्क अवस्थाको प्राप्त हुए पुरुषके लक्षण है।

उपरोक्त गुणोंमेंसे कितने ही तो पहिली और दूसरी भूमिकामें ही प्राप्त हो जाते हैं परन्तु सम्पूर्ण गुणोंका आविर्भाव तो प्रायः तीसरी भूमिकामें ही होता है। क्योंकि यह सब भगवत्‌-प्राप्तिकि अति समीप पहुँचे हुए पुरुषोंके लक्षण एवं भगवत्‌-स्वरूपके साक्षात्‌ ज्ञानमें हेतु है; इसलिये श्रीकृष्ण- भगवानने प्रायः इन्हीं गुणोंकों श्रीगीताजीके १३वें अध्यायमें (इलोक से ११ तक) ज्ञानके नामसे तथा १६ वें अध्यायमें (इलोक से तक) दैवी सम्पदाके नामसे कहा है

तथा उक्त गुणोंको शाख्त्रकारोंने सामान्य धर्म माना है, इसलिये मनुष्यमात्रका ही इनमें अधिकार है, अतएब उपरोक्त सदु्णोका अपने अन्तःकरणमें आविर्भाव करनेके लिये सभीको भगवानके झरण होकर विदेषरूपसे प्रयत्न करना चाहिये।

उपसंहार

इस लेखमें सात श्रेणियोंके त्यागद्वार भगवतद्ाप्तिका होना कहा गया है। उनमें पहिली श्रेणियोंके त्यागतक तो ज्ञानकी प्रथम भूमिकाके लक्षण और छठी श्रेणीके व्यागतक दूसरी भूमिकाके लक्षण तथा सातवीं श्रेणीके व्यागतक तीसरी भूमिकाके लक्षण बताये गये हैं। उक्त तीसरी भूमिकाके परिपक्त अवस्थाको प्राप्त हुआ पुरुष तत्काल ही सचिदानन्द्घन परमात्माको प्राप्त हो जाता है। फिर उसका इस क्षणभंगुर,

* तत्वखिन्ताभणि *

नाशवान्‌, अनित्य संसारसे कुछ सम्बन्ध नहीं रहता, अर्थात्‌ जैसे स्वप्नसे जगे हुए पुरुषका स्वप्रके संसारसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता, चैसे ही अज्ञान-निद्वासे जगे हुए पुरुषका भी मायाके कार्यरूप अनित्य संसारसे कुछ भी सम्बन्ध नही रहता | यद्यपि लोक-दृष्टिमें उस ज्ञानी पुरुषके शरीरद्वारा प्रारब्धसे सम्पूर्ण कर्म होते हुए दिखायी देते है एवं उन कर्मेद्वारा संसारमें बहुत ही लाभ पहुँचता है; क्योंकि कामना, आसक्ति और कर्तृत्व- अभिमानसे रहित होनेके कारण उस महात्माके मन, वाणी और शरीरद्वार किये हुए आचरण लोकमें प्रमाणस्वरूप समझे जाते है और ऐसे पुरुषोंके भावसे ही शाखतर बनते हैं, परंतु यह सब होते हुए भी वह सच्चिदानन्दघन वासुदेवको प्राप्त हुआ पुरुष तो इस त्रिगणमयी मायासे सर्वथा अतीत ही है। इसलिये वह तो गुणोंके कार्यरूप प्रकाश, प्रबत्ति और निद्रा आदिके प्राप्त होनेपर उनसे द्वेष करता है और निवृत्त होनेपर उनकी आकाह्न ही करता है; क्योंकि सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान और निन्दा-स्तुति आदियें एवं मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण आदियें सर्वत्र उसका समभाव हो जाता है, इसलिये उस महात्माको तो किसी प्रिय वस्तुकी प्राप्ति और अप्रियकी निवृत्तिमें हर्ष होता है, किसी अप्रियकी प्राप्ति और प्रियके वियोगमें शोक ही होता है यदि उस धीर पुरुषका झरीर किसी कारणसे शस्होंद्रागा काटा भी जाय या उसको कोई अन्य प्रकारका भारी दुःख आकर प्राप्त हो जाय तो भी वह सच्चिदानन्दघन बासुदेवर्में अनन्यभावसे स्थित हुआ पुरुष उस स्थितिसे चलायमान नहीं होता; क्योंकि उसके अन्तःकरणमें सम्पूर्ण संसार मृगतृष्णाके जलकी भाँति प्रतीत होता है और एक सचिदानन्दघन परसात्माक्रे अतिरिक्त अन्य किसीका भी होनापना नहीं भासता। विशेष क्या कहा जाय, वास्तवमें उस

| सचचिदानन्दघन परमात्माको प्राप्त हुए पुरुषका भाव वह स्वयं ही

जानता है। मन, बुद्धि और इन्द्रियोंद्वारा प्रकट करनेके लिये

१८, बह्मलोकतकके सम्पूर्ण पदार्थोमें आसक्तिका अत्यन्त अभाव |

१९, ममत्वबुद्धिसे संग्रहका अभाव | २०, अन्तःकरणमें संशय और विक्षेपका अभाव

२३. श्रेष्ठ पुरुषोंकी उस शक्तिका नाम तेज है कि जिसके ग्रभावसे विषयासक्त और नीच प्रकृतिवाले मनुष्य भी प्रायः पापाचरणसे रुककर

उनके कथनानुसार श्रेष्ठ कर्मोमें प्रवृत हो जाते हैं।

२२. अपना अपराध करनेवालेको किसी प्रकार भी दण्ड देनेका भाव रखना।

२३. भारी विपत्ति आनेपर भी अपनी स्थितिसे चलायमान होना |

२४, अपने साथ द्वेष रखनेवालोमें भी द्रेघषका होना | २७, सर्वथा भयका अभाज |

२६. इच्छा और वासनाओंका अत्यन्त अभाव होना और अन्तःकरणमें नित्य-निरत्तर प्रसन्नताका रहना।

* चारणागति *

श्

किसीकी भी सामर्थ्य नहीं है। अतएव जितना ञञीघ्र हो सके अज्ञाननिद्रास चेतकर उक्त सात श्रेणियोंमें कहे हुए त्यागद्वारा परमात्माको प्राप्त करनेके लिये सत्पुरुषोंकी शरण ग्रहण करके उनके कथनानुसार साधन करनेमें तत्पर होना चाहिये; क्योंकि यह अतिदुर्लभ मनुष्यका शरीर बहुत जन्मोंके अन्तमें परम

दयालु भगवान्‌की कृपासे ही मिलता हैं इसलिये नाशवान्‌ क्षणभज्जूर संसारके अनित्य भोगोंको भोगनेमें अपने जीवनका अमूल्य समय नष्ट नही करना चाहिये

हरि: ३3% तत्सत्‌ हरिः 3४ तत्सत्‌ हरि: 3७ तत्सत्‌ शान्ति: ज्ञाक्ति: श्ञान्तिः

जझरणागति

तमेव शरणं गर्छ सर्वधावेन भारत | तम्सादात्परां शान्ति स्थान प्राप््यसि झाश्चतम्‌॥। (गीता १८। ६२)

मनुष्य-जीवनका चरम लक्ष्य आत्यन्तिक आनन्दकी प्राप्ति है, आत्यन्तिक आनन्द परमात्मामें है अतएव परमात्माकी प्राप्ति ही मनुष्य-जीवनका एकमात्र उद्देश्य है। इस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये शास्त्रकाोरों ओर महात्माओंने अधिकारीके अनुसार अनेक उपाय और साधन बतलाये हैं, परन्तु विचार करनेपर उन समस्त साधनोंमें परमात्माकी शरणामतिके समान सरल, सुगम, सुखसाध्य साधन अन्य कोई-सा भी नहीं प्रतीत होता इसीलिये प्राय: सभी शाख्रोंमें इसकी प्रशंसा की गयी है। श्रीमद्धगवद्रीतामें तो उपदेशका आरम्भ और पर्यवसान दोनों ही शरणागतिमें होते हैं पहले अर्जुन 'शिष्यस्तेहहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम' (गीता २।७) 'मैं आपका शिष्य हूँ, शरणागत हूँ, मुझे यथार्थ उपदेश दीजिये, ऐसा कहता है, तब भगवान्‌ उपदेशका आरम्भ करते हैं और अन्तमें उपदेशका उपसंहार करते हुए कहते हैं---

सर्वधर्मान्यरित्यज्य मामेके जश्रण ब्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुत्चः (गीता १८ ६६)

सम्पूर्ण धर्मोंको अर्थात्‌ सम्पूर्ण कमेंकि आश्रयकों त्यागकर केवल मुझ एक सच्चिदानन्द्घन वासुदेव परमात्माकी ही अनन्य शरणको प्राप्त हो मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू चिन्ता कर इससे पहले भी भगबानने शरणागतिको जितना महत्त्व दिया है उतना अन्य किसी भी साधनाको नहीं दिया जाति या आचरणसे कोई कैसा भी नीच या पापी क्यों हो, भगवान्‌की शरणमाजसे ही वह अनायास परमगतिको प्राप्त हो जाता है। भगवानने कहा है--- मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येडपि स्थु: पापयोनय: ख्त्रियो वेश्यास्तथा शूद्रास्तेषषि यान्ति परां गतिम्‌॥ (गीता ९।३२) हे अर्जुन | स्त्री, वैश्य, शुद्रादि और पापयोनिवाले भी

जो कोई होवें, वे भी मेरे शरण होकर तो परमगतिको ही प्राप्त होते है। श्रुति कहती है-- एसंख्ब्रेवाक्षं ब्रह्म. एतद्बेवाक्षर परम एतख्थैवाक्षरं ज्ञात्ता यो यदित्छति तस्य तत्‌॥ एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम एतदालम्बन॑ ज्ञाल्ा ब्रहालोके महीयते (कठ* १।२। १६-१७) यह अक्षर ही ब्रह्मस्वरूप है, यह अक्षर ही पररूप है, इस अक्षरको ही जानकर जो पुरुष जैसी इच्छा करता है, उसको वह ही प्राप्त होता है। इस अक्षरका आश्रय (शरण) श्रेष्ठ है। यह आश्रय सर्वोत्कृष्ट है, इस आश्रयको जानकर (वह) ब्रह्मलोकमें पूजित होता हैं। महर्षि पतञ्ञलि अन्यान्य सब उपायोंसे इसीको सुगम बतलाते हुए कहते हैं-- श्वरप्रणिधानाद्दा (योगदर्शन १। २३) ईश्वरकी शरणागतिसे समाधिकी प्राप्ति होती है। आगे चलकर पतञ्जलि इसका फल बतलाते हैं--- तत: प्रत्यक्चेतनाधिगमो5प्यन्तरायाभावश्च (योगदर्शन १। २९) उस ईश्वरप्रणिधानस परमात्माकी प्राप्ति ओर (साधममें आनेवाले) सम्पूर्ण विप्नोंका भी अत्यन्त अभाव हो जाता है भगवान्‌ श्रीरामने घोषणा की है-- सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति याखचते। अभर्य॑ सर्वभूतेध्यो. दद्ाम्वेतदूव॒ते मम (खा रा० १८ | ३३) यह तो प्रमाणोंका केवल दिग्दर्शनमात्र है। शास्त्रोमें शरणागतिको महिमाके असंख्य प्रमाण वर्तमान है। परंतु विचारणीय विषय तो यह है कि झरणागति वास्तवमें किसे कहते है | केवल मुखसे कह देना कि 'हे भगवन्‌ ! मैं आपके शरण हूँ शरणागतिको स्वरूप नहीं है। साधारणतया शरणागतिका अर्थ किया जाता है घन, वाणी और शरीरको | सर्वतोभावसे भगवानके अर्पण कर देना, परन्तु यह अर्पण भी

२८ केवल 'श्रीकृष्णार्पणमस्तु' कह देनेमात्रसे सिद्ध नहीं हो सकता। यदि इसीमें अर्पणकी सिद्धि होती तो अबतक मालूम कितने भगवानके शरणागत भक्त हो गये होते, इसलिये अब यह समझना चाहिये कि अर्पण किसे कहते हैं

ज्रण, आश्रय, अनन्यभक्ति, अव्यभिचारिणी भक्ति, अबल्म्बन, निर्भरता ओर आत्मसमर्पण आदि शब्द प्रायः एक ही अर्थके बोधक हैं।

एक परमात्माके सिवा किसीका किसी भी कालमें कुछ भी सहारा समझकर लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्तिकों त्यागकर, शरीर और संसारमें अहंता-ममतासे रहित होकर, केवल एक परभमात्माकों ही अपना परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व्र समझना तथा अनन्य भावसे, अतिग्य श्रद्धा, भक्ति और प्रेमपूर्वक निरन्तर भगवानके नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूपका चिन्तन करते रहना और भगवानका भजन-स्मरण करते हुए ही उनके आज्ञानुसार समस्त कर्तव्य-कर्मोका निःस्वार्थभावसे केबल भगवानके लिये ही आचरण करते रहना, यही 'सब प्रकारसे परमात्माके अनन्यशरण' होना है।

इस शरणागतिमें प्रधानतः चार बातें साधकके लिये समझनेकी हैं

(१) सब कुछ परमात्माका समझकर उसके अर्पण करना |

(२) उसके प्रत्येक विधानमें परम सन्तुष्ट रहना।

(३) उसके आज्ञानुसार उसीके लिये समस्त कर्तव्य- कर्म करना |

(४) नित्य-निरत्तर स्वाभाविक ही उसका कतार स्मरण रखना |

इन चार्रोपर कुछ विस्तारसे विचार कीजिये।

सर्वस्व॒ अर्पण

सब कुछ परमात्माके अर्पण कर देनेका अर्थ घर-द्वार छोड़कर संन्यासी हो जाना या कर्त॑व्यकर्मोका त्याग कर कर्महीन हो बैठना नहीं है। सोसारिक वस्तुओंपर हमने भूलसे जो ममता आरोपित कर रखी है यानी उनमें जो अपनापन है उसे उठा देना। यही उसकी वस्तु उसके अर्पण कर देना है। वस्तुएँ, तो उसीकी है, हमसे छिन भी जाती हैं परन्तु हम उन्हें भ्रमसे अपनी मान लेते हैं, इसीसे छिननेके समय हमें रोना भी पड़ता है।

एक घनी सेठका बड़ा कारोबार है, उसपर एक मुनीम काम करता है। सेठने उसको ईमानदार और कर्तव्यपरायण समझकर सम्पत्तिकी रक्षा, व्यापारके सञ्लालन और नियमानुसार व्यवहार करनेका सारा भार सौंप रखा है। अब

* तत्त्यचिन्तामणि *

मुनीमका यही काम है कि वह मालिकको किसी भी बस्तुपर अपना किश्चित्‌ भी अधिकार समझकर, किसीपर ममता या अहंकार रखकर मालिककी आज्ञा और उसकी नियत की हुईं विधिके अनुसार समस्त कार्य बड़ी दक्षता, सावधानी और ईमानदारीके स्लाथ करता रहे। करोड़ोंका लेन-देन करे, करोड़ोंकी सम्पत्तिपर मालिककी भाँति अपनी संभाल रखे, मालिकके नामसे हस्ताक्षर करे, परन्तु अपना कुछ भी समझे मूल-धन मालिकका, कारोबारमें होनेवाला मुनाफा माछिकका और नुकसानका उत्तरदायित्व भी मालिकका |

यदि वह मुनीम कहीं भूल, प्रमाद या बेईमानीसे मालिकके धनको अपना समझकर अपने काममें छाना चाहे, मालिककी सम्पत्ति या नफेकी र्कमपर अधिकार कर ले तो वह चोर, बेईमान या अपराधी समझा जाता है। न्यायालयमें मुकद्दमा जानेपर वह सम्पत्ति उससे छीन ली जाती है, उसे कठोर दण्ड मिलता है और उसके नामपर इतना कलड्डः लग जाता है जिससे वह सबमें अविश्वासी समझा जाकर सदाके लिये दुः:खी हो जाता है। इसी प्रकार यदि मालिककी कोठीका भार सैंभालकर वह काम करनेसे जी चुराता है, मालिकके नियमोंको तोड़ता है तो भी वह अपराधी होता है, अतण्व मुनीमके लिये यह दोनों ही बातें निषिद्ध है।

इसी तरह यह समस्त जगत्‌ उस परमात्माका है, वही याबन्मात्र पदार्थोका उत्पन्न करनेवाला, वही नियन्त्रणकर्तो, वही आधार और वही स्वामी है, उसीने हमको हमारे कर्मबश जैसी योनि, जो स्थिति मिलनी चाहिये थी उसीमें उत्पन्न कर अपनी कुछ वस्तुओंकी सैंभाल और सेवाका भार दें दिया है और हमारे लिये कर्तव्यकी विधि भी बतला दी है। परन्तु हमने भ्रमसे परमात्माके पदार्थोको अपना मान लिया है, इसीलिये हमारी दुर्शति होती है। यदि हम अपनी इस भूलको मिटाकर यह समझ लें कि जो कुछ है सो परमात्माका है, हम तो उसके सेवकमात्र हैं, उसकी सेवा करना ही हमारा धर्म है, तो वह परमात्मा हमें ईमानदार समझकर हमपर प्रसन्न होता है और हम उसकी कृपा और पुरस्कारके पात्र होते हैं। मायाके बन्धनसे छूटना ही सबसे बड़ा पुरस्कार है। जो कुछ है सो परमात्माका है, इस बुद्धिके जानेपर ममता चली जाती है और जो कुछ है सो परमात्मा ही है, इस बुद्धिसे अहंकारका नाश हो जाता है--यानी एक परमात्माकों ही जंगतका उपादान और निमित्तकारण समझ लेनेसे उसमें ममता और अहंकार (मैं ओर मेरा) नष्ट हो जाता है। “मैं-मेग' ही बन्धन है, भगवानका शरणागत भक्त मैं-मेर' के बन्धनसे मुक्त होकर परमात्मासे कहता है कि बस, केवल एक तू ही है और

* चारणाश्तति * २९

सब तेरा ही है।

यही अर्पण है, इस अर्पणकी सिद्धि हो जानेपर साधक बन्धनमुक्त हो जाता है, उसे किसी प्रकारकी कोई चिन्ता नहीं रहती। जो चिन्ता करता है, अपनेको बैधा हुआ मानता है, बन्धनसे मुक्ति चाहता है, वह वास्तवमें परमात्माके तत््वको जानकर उनके शरण नहीं हुआ। अपने उद्धारकी चिन्ता तो शरणागतिके साधकके चित्तसे भी चली जाती है। वास्तवमें बात भी यही है। शरण ग्रहण करनेपर भी यदि शरणागतको चिन्ता करनी पड़े तो वह शरण हो कैसी ? जो जिसकी शरण होता है उसकी चिन्ता उसके स्वामीकों ही रहती है।

जो जाको शरणो लियो, ताकहँ ताकी लाज। उलटे जल मछली चले, बह्लों जात गजराज

जब कबूतरके झरणापन्न हो जानेपर दया और शरणागतबत्सलताके ब्शीभूत हो महाराज शिवि अपने शरीस्का मांस देकर उसकी रक्षा कर सकते हैं, तब वह परमेश्वर जो अनाथोंका नाथ है, दयाका अनन्त, अथाह सागर है, जगत्‌के इतिहासमें शरणागतवत्सलताकी बड़ी-से-बड़ी घटना जिसकी शरणागतवत्सलताके सामने सागरकी तुलनामें एक जलूकणके सदृश भी नहीं है, क्या शरण होनेपर वह हमारी रक्षा और उद्धार करेगा ? यदि इतनेपर हमारे मनमें अपने उद्धारकी चिन्ता होती है और हम अपनेको शरणागत भी समझते है तो यह हमारी नीचता है, हम शरणागतिका रहस्य ही नहीं समझते। यास्‍्तवमें शरणागत भक्तको उद्धार होने-न-होनेसे मतलब ही क्या है ? वह तो अपने-आपको मन-बुद्धिसहित उसके चरणोंमें समर्पितकर सर्वथा निश्चिन्त हो जाता है, उसे उद्धार्की परवा ही क्‍यों होने लगी? शरणागतिके रहस्यको समझनेवाले भक्तके लिये उद्धारकी चिन्ता करना तो दूर रहा, वह इस प्रसड़की स्मृतिको भी पसंद नहीं करता | यदि भगवान्‌ स्वयं कभी उसे उद्धारकी बात कहते हैं तो वह अपनी शरणागतिमें त्रुटे समझकर लूज्जित और संकुचित होकर अपनेको घिक्कारता है। वह समझता है कि यदि मेरे मनमें कहीं मुक्तिकी इच्छा छिपी हुई होती तो आज इस अप्रिय प्रसड्कके लिये अवसर ही क्यों आता ? मुक्ति तो भगवल्मेमका पासंगमात्र है, उस प्रेमधनकों छोड़कर पासैंगकी इच्छा करना अत्यन्त रूज्जाका विषय है। मुक्तिकी इच्छाको कलछ्डू समझकर और अपनी दुर्बलता तथा नीचाशयताका अनुभव कर भगवानपर अपना अविश्वास जानकर वह परमात्माके सामने एकान्तमें रोकर पुकार उठता है कि--

है प्रभो ! जबतक मेरे हृदयमें मुक्तिकी इच्छा बनी हुई है तबतक मैं आपका दास कहाँ ? मैं तो मुक्तिका हो गुलाम

हूँ। आपको छोड़कर अन्यकी आशा करता हूँ, मुक्तिके लिये आपकी भक्ति करता हूँ और इतनेपर भी अपनेको निष्काम प्रेमी शरणागत भक्त समझता हूँ। नाथ ! यह मेरा दम्भाचरण है। स्वामिन्‌ | दयाकर इस दम्भका नाश कीजिये | मेरे हृदयसे मुक्तिरूपी स्वार्थी कामनाका भी मूलोच्छेद कर अपने अनन्य प्रेमकी भिक्षा दीजिये। आप-सरीखे अनुपमेय दयामयसे कुछ माँगना अवश्य ही लड़कपन है, परन्तु आतुर क्या नहीं करता ? |

इस तरहंसे श़रणागत भक्त सब कुछ भगवदर्पण कर सब प्रकारसे निश्चिन्त हो रहता है।

भगज्नानके प्रत्येक विधानमें सन्‍्तोष

इस अबस्थामें जो कुछ होता है वह उसीमें सन्तुष्ट रहता है। प्रारब्धवश अनिच्छा या परेच्छासे जो कुछ भी लाभ-हानि, सुख-दुःखकी प्राप्ति होती हे वह उसको परमात्माका दयापूर्ण विधान समझकर सदा समानभावसे सन्तुष्ट, निर्विकार और शान्त रहता है। गीतामें कहा है---

यदृच्छालाभसंतुष्टो. इन्द्दातीतो. विमत्सरः सम: सिद्धावसिद्धों कृत्वाधि निबरध्यते (४ २२)

अपने-आप जो कुछ प्राप्न हो, उसमें ही सस्तुष्ट रहनेवाला हर्ष-शोकादि दन्द्दोंसे अतीत हुआ तथा मत्सरता अर्थात्‌ ईर्ष्यसे रहित सिद्धि और असिद्धिमें समलभाववाला पुरुष कर्मोको करके भी नहीं बँधता है।

वास्तवमें शरणागत भक्त इस तत्ततको जानता है कि दैवयोगसे जो कुछ प्राप्त होता है, वह ईश्वरके न्यायसड्गत विधान और उसकी दयापूर्ण आज्ञासे होता है। इससे वह उसे परम सुहृद्‌ प्रभुद्दार भेजा हुआ इनाम समझकर आनन्‍्दसे मस्तक झुकाकर ग्रहण करता है। जैसे कोई प्रेमी सलन अपने किसी प्रेमी न्‍्यायकारी सुहृद्‌ सज्जनके द्वारा किये हुए न्यायको अपनी इच्छासे प्रतिकूल फैसला होनेपर भी उस सज्जनकी न्यायपरायणता, विवेक-बुद्धि, विचारशीछता, सुहृदता, पक्षपातहीनता और प्रेमपर विश्वास रखकर हर्षके साथ स्वीकार कर लेठा है, इसी प्रकार शरणागत भक्त भी भगबानके कड़े-से-कड़े विधानको सहर्ष सादर स्वीकार करता है; क्योंकि बह जानता है, मेरा सुहद्‌ अकारण करुणाशील भगवान्‌ जो कुछ विधान करता है उसमें उसकी दया, प्रेम, न्‍्याथ और मेरी मड्लकामना भरी रहती है। वह भगवानके किसी भी विधानपर कभी भूलकर भी मन मैला नहीं करता।

कभी-कभी भगवान्‌ अपने शरणागत भक्तकी कठिन परीक्षा भी लिया करते है, वे सब कुछ जानते हैं, तीनों

३०

काछकी कुछ भी बात उनसे छिपी हुई नहीं है तथापि भक्तके हृदयसे मान, अहंकार, दुर्बलता आदि मलोंको हर्कर उसे निर्मल बनाने और उसे परिपक्त कर उसका परम हित करनेके लिये परीक्षाकी लोलो किया करते है।

जो परमात्माके प्रेमी सज्जन शरणागतिके तत्तको समझ लेते हैं उन्हें तो कोई भी विषय अपने मनसे प्रतिकूल प्रतीत ही नहीं होता बाजीगस्की कोई भी चेष्टा उसके जमूरेकी अपने मनसे प्रतिकूल या दुःखदायक नहीं दीखती वह अपने स्वामीको इच्छाके अधीन होकर बड़े हर्षके साथ उसकी प्रत्येक क्रियाको स्वीकार करता है। इसी प्रकार भक्त भी भगवान्‌की प्रत्येक लीलामें प्रसन्न रहता है। वह जानता है कि यह सब मेरे नाथकी माया है। वे अद्भुत खिलाड़ी नाना प्रकारके खेल करते है। मुझपर तो उनकी अपार दया है जो उन्होंने अपनी लीलामें मुझे साथ रखा है--यह मेरा बड़ा सोभाग्य है जो में उस लीलामयकी लीलाओंका साधन बन सका हूँ, यों समझकर वह उसकी प्रत्येक लीलामें, उसके प्रत्येक खेलमें उसकी चातुरी ओर उसके पीछे उसका दिव्य दर्शन कर पद-पदपर प्रसन्न होता है। यह तो सिद्ध झरणागत भक्तकी बात हैं परन्तु शरणागतिका साधक भी प्रत्येक सुख-दुःखको उसका दयापूर्ण विधान मानकर प्रसन्न होता है। यहाँपर यह प्रश्न होता है कि सुखकी प्राप्तिमें तो प्रसन्न होना स्वाभाविक और युक्तियुक्त है, परन्तु दु:खमें सुखकी तरह प्रसन्न होना कैसे सम्भव है ? इसका उत्तर यह है कि परमात्माके तत्त्वको जाननेवाले पुरुषकी दृष्टिमें तो सुखकी प्राप्तिसे होनेवाली प्रसन्नता और शान्ति भी विकार ही है। वह तो पुण्य-पापवश प्राप्त होनेवाले अनुकूल या ग्रतिकूल विषयजन्य सुख-दुःख दोनोंसे ही अतीत है। परन्तु साधनकालमें भी प्रसन्नता तो होनी ही चाहिये। जैसे कठिन रोगके समय बुद्धिमान्‌ रोगी सदवैद्यद्वारा दी हुई अत्यन्त कटु उपयोगी ओषधिका सहर्ष सेवन करता है और वैद्यका बड़ा उपकार मानता है, इसी प्रकार निःस्वार्थी वैद्यरूप परम सुहृद्‌ परमात्माद्वारा विधान किये हुए कष्टोंको सहर्ष स्वीकार करते हुए उसकी कृपा और सदाशयताके लिये ऋणी होकर सुखी होता चाहिये। भगवानका प्रिय प्रेमी झरणागत भक्त महान्‌ दुःखरूप फलको बड़े आनन्दके साथ भोगता हुआ पद-पदपर उसकी दयाका स्मरण कर परम प्रसन्न होता है। वह समझता है कि दयालु डाक्टर जैसे पके हुए फोड़ेमें चीरा देकर सड़ी हुई मबादको बाहर निकालकर उसे रोगमुक्त कर देता है, इसी प्रकार भगवान्‌ भक्तके हितार्थ कभी-कभी कष्टरूपी चीरा लगाकर उसे नौरोेग बना देते हैं। इसमें उनकी दया ही भरी रहती है

* ततक्तवचिन्तामणि *

यह समझकर भक्त अपने भगवानके प्रत्येक विधानमें परम सन्तुष्ट रहता है। वह दुःखसे उद्विम वहीं होता और झुखकी स्पृहा नही करता “दुःखेघ्ननुट्टिममना: सुखेषु बिगतस्पृहः ।' (गीता २। ५६) भगवानके आज्ञानुसार कर्म

इसीलिये सुखकी इच्छा रहनेके कारण वह आमसक्ति या कामनावश कोई भी निषिद्ध कार्य नहीं कर सकता | उसका प्रत्येक कार्य ईश्वरके आज्ञानुसार होता है। उसकी कोई भी क्रिया परमात्माकी इच्छाके प्रतिकूल नहीं होती; क्योंकि परमात्माकी इच्छामें ही वह अपनी इच्छा मिला देता है, वह अपनी कोई खतन्त्र इच्छा नहीं रखता जब कि एक साधारण श्रद्धालु सेवक भी अपने स्वामीके प्रतिकूछ कोई कार्य करना नहीं चाहता, कभी भूलसे कोई बिपरीत आचरण हो जाता है तो वह लूज्जित-संकुचित होकर अपनी भूलपर अत्यन्त पश्चात्ताप करता है, तब भला निष्काम प्रेमभावसे शरणमें आया हुआ श्रद्धालु ईश्वरभक्त परमात्माके प्रतिकूल किश्चिन्मात्र कार्य भी कैसे कर सकता है ? जैसे सतीझिरोमाणि पतित्नता स्त्री अपने परम प्रिय पतिकी भूकुटीकी ओर ताकती हुई सदा-सर्वदा पतिके अनुकूल ही उसकी छायाके समान चलती है, उसी प्रकार ईश्वर-प्रेमी शरणागत भक्त भगवदिच्छाका अनुसरण करता है, सब कुछ उसीका समझकर उसीके लिये कार्य करता हैं।

यहाँपर यह प्रश्न होता है कि जब ईश्वर सबके प्रत्यक्ष नहीं है तब ईश्वरकी आज्ञा या इच्छाका यता कैसे लगे ? इसका उत्तर यह है कि प्रथम तो शास्त्रोंकी आज्ञा ही एक प्रकारसे ईश्वस्की आज्ञा है; क्योंकि त्रिकालज्ञ भक्त ऋषियोंने भगवानका अभिप्राय समझकर ही प्रायः शास्तोंक निर्माण किया है। दूसरे श्रीमद्धगवद्वीता-जैसे अन्धोंमें भगवदाज्ञा प्रत्यक्ष ही है। इसके सिवा भगवान्‌ सर्वव्यापी और सर्वान्तर्यामी होनेसे सबके हृदयमें सदा प्रत्यक्ष विद्यमान हैं। मनुष्य यदि स्वार्थ छोड़कर संरल जिज्ञासु-भावसे हृदयस्थित ईश्वरसे पूछे तो उसे साधारणतया यथार्थ उत्तर मिल ही जाता है | झूठ बोलने, चोरी करने या हिंसादि करमेके लिये किसीका भी हृदय सच्चे भावसे आज्ञा नही देता। यही भगवानकी इच्छाका सद्डेत हे।

अन्तःकरणपर अज्ञानका विशेष आवरण होनेके कारण जिस प्रश्नके उत्तरमें शड्भायुक्त जवाब मिले, जिसके निर्णय करनेमें हमारी बुद्धि समर्थ हो, उस विषयमें स्वार्थरहित सदाचारी धर्मके तत्वको जाननेवाले पुरुषोंसे पूछकर निर्णय कर लेना चाहिये। जिस विषयमें अपने मनमें शट्ढा हो, उस विषयमें भी उत्तम पुरुषोंसे परामर्श कर लेना तो लाभदायक ही

लय मा

है; क्योंकि जबतक मनुष्य परमात्माको तत्त्तसे नहीं जान लेता तबतक भ्रमसे कहीं-कहीं असत्यका सत्यके रूपमें प्रतीत हो जाना सम्भव है, इसलिये निर्णीत विषयोंको भी सत्पुरुषोंकी सम्मतिसे मार्जन कर लेना उचित है। अन्तःकरण जुद्ध होनेपर परमात्माका स्भेत यथार्थ समझमें आने लगता है। फिर साधक जो कुछ करता है सो सब प्रायः ईश्ववरके अनुकूल ही करता है।

यह देखा जाता है कि मालिकके इच्छानुसार बर्तने- वाला स्वामिभक्त सेवक जो सदा मालिकके इशारेके अनुसार काम करता हैं, वह मालिकके भावको तनिक-से इश्ारेमात्रसे ही समझ लेता है। जब साधारण मनुष्योंमें ऐसा होता है तब एक ईश्वस्का शरणागत भक्त श्रद्धा, विश्वास और प्रेमके बलसे ईश्वरके तात्पर्यकों समझने लगे, इसमें आश्वर्य ही क्या है ?

ईश्वरकी इच्छा समझनेके लिये एक बात और है। यह समझ लेना चाहिये कि ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वसुहृद, दयासागर, सबके आत्मा और सबके हितमें रत है। अतएव किसी भी जीवका किसी भी प्रकारसे किसी भी कालमें अहित था अनिष्ट करनेमें उसकी सम्मति नहीं हो सकती, इसलिये जिस कार्यसे यथार्थ रूपमें दूसरोंका हित होता हो, वही ईशवरकी इच्छाके अनुकूल कार्य है और जिससे जीवोंका अनिष्ट होता हो, वह उसको इच्छाके प्रतिकूल कार्य है।

कुछ लोग भ्रमवश शास्त्र या धर्मकी आड़ लेकर पराये अहित, अनिष्ट या हिंसा आदिको धर्म मान लेते है परन्तु ऐसा मानना अनुचित है। हिंसा और अहित कभी धर्म या ईश्वरको अभिप्रेत नहीं हो सकता। अवश्य ही किसीके हितके लिये माता-पिता या गुरुद्वारा खरेहभावसे अपने बालक या झिष्यको ताड़ना देनेके समान दण्ड आदि देना हिसामें शामिल नहीं है

अतणएब भक्त प्रत्येक कार्य भगवदिच्छाके अनुकूल हो करता है, जिससे वह कभी पाप या निषिद्ध कर्म तो कर ही नहीं सकता, उसका प्रत्येक कार्य स्वाभाविक ही सरल, सात्तिक और लोक-हितकारी होता है; क्योकि उसका संसारमें कोई स्वार्थ है, किसी बस्तुमें आसक्ति है और किसी कालमे किसीसे उसे भय है।

शरणागत भक्तकी तो बात ही क्या है, भय ओर पाप तो उसके भी नहीं रहते जो ईश्वरका यथार्थरूपसे अस्तित्व (होनापन) ही मान लेता है। राजा या राजकर्मचारी निर्जन स्थान और अन्धकारमयी रात्रिमें सब जगह मौजूद नहीं रहते परन्तु राज्यको सत्ताके कारण ही लोग प्रायः नियमविरुद्ध कार्य नहीं करते | रुजकर्मचारी जहाँ रहता है वहाँ तो कानून तोड़ना बड़ा ही कठिन रहता है। जब राजसत्ताका यह प्रताप होता है तब सर्वशक्तिमान्‌ परमात्माको जो सब जगह देखता है, उससे

* शरणागति * ३९

७ब-प्-म्प्यपूण,

पाप कैसे बन सकते है ? ईश्वर सर्वव्यापी होनेके कारण सब जगह उनका रहना सिद्ध ही है। फिर भय भी किस बातका ? क्योंकि जब एक भी राजकर्मचारी साथ होनेपर कहीं चोरोंका भय नहीं रहता तब राजराजेश्वर भगवान्‌ जिसके साथ हो उसके लिये भयकी सम्भावना ही कहाँ है ? जो अपनेको भक्त कहकर परिचय देते हुए भी पापोंमें फैसे रहते या बात-बातमें मृत्यु आदिका भय करते हैं वे यथार्थमें ईश्वरका अस्तित्व ही नहीं मानते। ईश्वरको माननेवाले तो नित्य निष्पाप और निर्भय रहते हैं। भगवानका निरन्तर चिन्तन

जशरणागत साधकको यदि कोई भय रहता है तो वह इसी बातका रहता है कि कहीं उसके चित्तसे प्रियतम परमात्माकी विस्पृति हो जाय | वास्तवमें वह कभी परमात्माको भूल भी नहीं सकता; क्योंकि परमात्माके चिन्तनका वियोग उससे क्षणमात्रके लिये भी सहा नहीं जाता 'तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलता' (नारदभक्तिसूत्र) सम्पूर्ण कर्म पस्मात्माके अर्पण करके प्रतिपल उसे स्मरण रखना और क्षणभरकी विस्मृतिसे मणिहीन सर्प या जलसे निकाली हुई मछलीकी भाँति परम व्याकुल होकर तड़पने लगना उसका स्वभाव बन जाता है। उसकी दृष्टिमें एकमात्र परमात्मा ही उसका परम जीवन, परम धन, परम आश्रय,परम गति और परम लक्ष्य रह जाता है, प्रतिपल उसके नाम-गुणोंका चिन्तन करना, उसके प्रेममें हो तन्‍्मय हो रहना, बाह्माज्ञान भूलकर उन्मत्त हो जाना, परम उल्लाससे प्रेममें झूमना, यही उसकी जीवनचर्या बन जाती है।

क्रचिद्ृदन्त्यच्युतचिन्तया क्कचि झसन्ति नन्दन्ति बदनत्यलोकिका: गायन्त्यनुशीलयन्त्यज भबन्ति - तृष्णी परमेत्य निर्वताः (श्रीमद्भा० ११५। ३२)

वे भक्तगमण कभी उन अच्युतका चिन्तन करते हुए रोते हैं, कभी हँसते हैं, कभी आनन्दित होते है, कभी अलोकिक कथा कहने लगते है, कभी नाचते है, कभी गाते है, कभी उन

नृत्यन्ति

अजन्मा प्रभुकी लीलाओंका अनुकरण करते है और कभी

परमानन्दको पाकर झान्त और चुप हो रहते हैं। इस प्रकार परमात्माके दरणका तत्व जानकर वे भक्त भगवानकी तद्गपताको प्राप्त हो जाते हैं-- तहुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा गचरुछ न्यपुनरावृत्ति ज्ञाननिर्धतकल्मषा: (गीता ५। १७)

डरे

'तद्रुप है बुद्धि जिनकी तथा तद्गूप है मन जिनका और उस सचिदानन्दघन परमात्मामें ही है निरन्तर एकीभावसे स्थिति जिनकी, ऐसे परमेश्वरपरायण पुरुष ज्ञानके द्वारा पापरहित हुए अपुनरणाधृत्ति अर्थात्‌ परमगतिको प्राप्त होते हैं।' ऐसे ही पुरुषोंके लिये भगवानने कहा है, मैं उसका अत्यन्त प्रिय हूँ और बह मुझे अत्यन्त प्रिय है 'प्रियो हि ज्ञानिनोउत्यर्थमहं क्ञ मम प्रियः ॥' (गीता ७। १७) उससे मैं अदृश्य नहीं होता, वह मुझसे अदृश्य नहीं होता। 'तस्याईं प्रणश्यामि सच में प्रणइयति ॥' (गीता ६। ३०)

ऐसे पुरुषके द्वारा शरीर्से जो कुछ क्रिया होती है सो क्रिया नहीं समझी जाती | आनन्दमें मग्न हुआ वह भगवान्‌का जरणागत भक्त छोलामय भगवान्‌की आनन्दमयी लीलाका ही अनुकरण करता है, अतएव उसके कर्म भी लील्ामात्रसे ही हैं। भगवान्‌ कहते हैं--

सर्वभूतस्थितं यो. मां भजत्येकत्वमास्थित: सर्वथा वर्तमानोडषपि योगी मयि वर्तते॥ (गीता ६। ३१) जो पुरुष एकीभावसे स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतोमें आत्मरूपसे स्थित मुझ सच्चिदानन्द्घन वासुदेवको भजता है, वह योगी सब प्रकारसे बर्तता हुआ भी मुझमें ही बर्तता है; क्योंकि उसके अनुभवमें मेरे सिवा अन्य कुछ है ही नहीं ।'

+ तक््बश्चिन्तामणि *

इसलिये बह सबके साथ अपने आत्माके सदृश ही बर्तता है, उससे कभी किसीका अनिष्ट नहीं हो सकता | ऐसे अभिन्नदर्शी परमात्मपरायण तद्गभप भक्तोंमें कोई तो स्वामी झुकदेवजीकी तरह लोगोंके उद्धार्के लिये उदासीनकी भाँति विचरते हैं, कोई अर्जुनकी भाँति भगवदाज्ञानुसार आचरण करते हुए कर्तव्य कमेंके पालनमें लगे रहते है, कोई प्रातःस्मरणीया भक्तिमती गोपियोंकी तरह अद्भुत प्रेमलीलामें मत्त रते है और कोई जड़भस्तकी भाँति जड़ और उन्मत्तवत्‌ चेष्टा करते रहते हैं। ऐसे झरणागत भक्त खय॑ तो उद्धाररूप हैं ही और जगतूका उद्धार करनेवाले है, ऐसे महापुरुषोंके दर्शन, स्पर्श, भाषण ओर चिन्तनसे ही मनुष्य पवित्र हो जाते है | वे जहाँ जाते है वहींका वातावरण शुद्ध हो जाता है, पृथ्वी पवित्र होकर तीर्थ बन जाती है, ऐसे हो पुरुषोंका संसारमें जन्म लेना सार्थक और धन्य है, ऐसे ही महात्माओंके लिये यह कह्क गया है-- कछुले. पवित्र जननी कृतार्था बसुनध्धा पुण्यवती चउऊ॑ अपाससंवित्सुखसागरेउस्मिन्‌- लीने परे बज्रह्मणि यस्य चेत्तः (स्के० पु० माहे० खं० कौ० खं० एण० | १४०)

तेन

नततन और नन्‍ननन+ अनन्य प्रेम ही भक्ति हे

अनिर्वचनीय ब्रह्मानन्दकी प्राप्तिके लिये भगवद्धक्तिके सदृश् किसी भी युगमें अन्य कोई भी सुगम उपाय नहीं है। कलियुगमें तो है ही नहीं। परन्तु यह बात सबसे पहले समझनेकी है कि भक्ति किसे कहते हैं ? भक्ति कहनेमें जितनी सहज है, करनेमें उतनी ही कठिन है। केवल बाह्याडम्बरका नाम भक्ति नहीं है। भक्ति दिखानेकी चीज नहीं, वह तो हृदयका परम गुप्त धन है। भक्तिका स्वरूप जितना गुप्त रहता है उतना ही बह अधिक मूल्यवान्‌ समझा जाता है। भक्ति- तत्वका समझना बड़ा कठिन है | अवचय ही उन भाग्यवानोंको इसके समझनेमें बहुत आयास या श्रम नहीं करना पड़ता, जो उस दयामय परमेश्वरके शरण हो जाते हैं। अनन्य शरणागत भक्तको भक्तिका तक्त परमेश्वर स्वयं समझा देते हैं। एक बार

भी जो सच्चे हृदयसे भगवानके शरण हो जाता हैं, भगवान्‌ उसे

अभय कर देते हैं, यह उनका ब्रत है। सकुद्देव॒ प्रपन्नाय तथास्मीति त्ञ याचते। अभय सर्वधूतेध्यों. ददाम्येत॒दद़्॒त॑ मम

भगवानकी शरणागति एक बड़े ही महत्वका साधन है परन्तु उसमें अनन्यता होनी चाहिये। पूर्ण अनन्यता होनेपर भगवानकी ओरसे तुरंत ही इच्छित उत्तर मिलता है। विभीषण अत्यन्त आतुर होकर एकमात्र श्रीरमके आश्रयमें ही अपनी रक्षा समझकर श्रीगमके शरण आता है। भगवान्‌ राम उसे उसी क्षण अपना लेते हैं। कोरबोंकी राजसभामें सब तरफसे निराश होकर देवी द्रौपदी ज्यों ही अशरण-इशरण श्रीकृष्णको स्मरण करती है त्यों ही चीर अनन्त हो जाता है। अनन्य शरणके यही उदाहरण है। यह शरणागति सांसारिक कष्ट- निवृत्तिके लिये थी। इसी भावसे भक्तको भगवानके लिये ही भगवानके शरणागत होना चाहिये। फिर तत््वकी उपलब्धि होनेमें बिलम्ब नहीं होगा।

यद्यपि इस प्रकार भक्तिका परम तत्तत भगवानके शरण होनेसे ही जाना जा सकता हैं तथापि शाख्र और संत-

| महात्माओंकी उक्तियोंके आधारपर अपना अधिकार समझते

हुए भी अपने चित्तकी प्रसन्नताके लिये मैं जो कुछ लिख रहा

(वा० रा० ६। १८ ३३) | हूँ इसके लिये भक्तजन मुझे क्षमा करें।

* अनन्य प्रेम ही भक्ति हे *

अल

परमात्मामें परम अनन्य विश्ुद्ध प्रेमका होना ही भक्ति कहलाता है। श्रीमद्भगवद्गीतामें अनेक जगह इसका विवेचन है, जैसे--

'प्रथि चानन्ययोगेन भक्तिरण्यभिचारिणी।' (१३। १०) 'मां च्व योज्व्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवले।' (१४।२६) आदि। इसी प्रकारका भाव नारद और शाण्टडिल्यसूत्रोंमें : पाया जाता है। अनन्य प्रेमका साधारण स्वरूप यह है--एक भगवानके सिवा अन्य किसीमें किसी समय भी आसक्ति हो, प्रेमकी मग्नतामें भगवानके सिवा अन्य किसीका ज्ञान ही रहे | जहाँ-जहाँ मन जाय वहीं भगवान्‌ दृष्टिगोचर हों। यों होते-होते अभ्यास बढ़ जानेपर अपने-आपकी विस्मृति होकर केवल एक भगवान्‌ ही रह जायें | यही विशुद्ध अनन्य प्रेम है परमेश्वरमें प्रेम करनेका हेतु केवल परमेश्वर या उनका श्रेम ही हो--प्रेमके लिये ही प्रेम किया जाय, अन्य कोई हेतु रहे | मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और इस लोक तथा परलोकके किसी भी पदार्थकी इच्छाकी गन्ध भी साधकके मनमें रहे, त्रैलोक्यके राज्यके लिये भी उसका मन कभी छलचावे | स्वयं भगवान्‌ प्रसन्न होकर भोग्य-पदार्थ प्रदान करनेके लिये आग्रह करें तब भी ले। इस बातके लिये यदि भगवान्‌ रूठ जायें तो भी परवा करे। अपने स्वार्थकी बातें सुनते ही उसे अतिद्गय बैरम्य और उपरामता हो। भगवानकी ओरसे विषयोंका प्रकोेभन मिलनेपर मनमें पश्चात्ताप होकर यह भाव उदय हो कि, 'अबद्य ही मेरे प्रेममे कोई दोष हैं, मेरे मनमें सच्चा विशुद्ध भाव होता और इन स्वार्थकी बातोंको सुनकर यथार्थमें मुझे क्लेश् होता तो भगवान्‌ इनके लिये मुझे कभी छलूचाते।' विनय, अनुरोध और भय दिखलानेपर भी परमात्माके प्रेमके सित्रा किसी भी हालतमें दूसरी वस्तु स्वीकार करे, अपने प्रेम-हठपर अटरू-अचल रहे। वह यही समझता रहे कि भगवान्‌ जबतक मुझे नाना प्रकारके विषयोंका प्रकोभन देकर ललचा रहे है और मेरी परीक्षा ले रहे है, तबतक मुझमें अवश्य ही विष्यासक्ति है। सच्चा प्रेम होता तो एक अपने प्रेमास्पदको छोड़कर दूसरी बात भी मैं सुन सकता। विषयोंको देख, सुन और सहन कर रहा हूँ। इससे यह सिद्ध है कि मैं सच्चे प्रेमका अधिकारी नहीं हूँ तभी तो भगवान्‌ मुझे

दो

लोभ दिखा रहे हैं। उत्तम तो यह था कि में विषयोंकी चर्चा सुनते ही मूच्छित होकर गिर पड़ता | ऐसी अवस्था नहीं होती, इसलिये निःसन्देह मेरे हृदयमें कहीं-न-कहीं विषयवासना छिपी हुई है। यह है विशुद्ध प्रेमके ऊँचे साधनका स्वरूप | ऐसा विदुद्ध प्रेम होनेपर जो आनन्द होता है उसकी महिमा अकथनीय है। ऐसे प्रेमका वास्तविक महत्त्व कोई परमात्माका अनन्य प्रेमी ही जानता है। प्रेमकी साधारणतः तीन संज्ञाएँ हैं। गौण, मुख्य और अनन्य जैसे नन्हें बछड़ेको छोड़कर गो वनमें चरने जाती है, वहाँ घास चरती है, उस गौका प्रेम घासमें गौण हैं, बछड़ेमें मुख्य हैं और अपने जीवनमें अनन्य है, बछड़ेके लिये घासका एवं जीवनके लिये वह बछड़ेका भी त्याग कर सकती है। इसी प्रकार उत्तम साधक सांसारिक कार्य करते हुए भी अनन्यभावसे परमात्माका चिन्तन किया करते हैं। साधारण भगवत-प्रेमी साधक अपना मन परमात्मामें लगानेकी कोशिश करते हैं, परन्तु अभ्यास और आसक्तिबवश भजन-ध्यान करते समय भी उनका मन विषयोंमें चला ही जाता है। जिनका भगवाममें मुख्य प्रेम है, वे हर समय भगवान्‌को स्मरण रखते हुए समस्त कार्य करते हैं ओर जिनका 'भगवानमें अनन्य प्रेम हों जाता है उनको तो समस्त चराचर विश्व एक वासुदेवमय ही प्रतीत होने लगता हैं। ऐसे महात्मा बड़े दुर्लभ हैं। (गीता ७। १९) इस प्रकारके अनन्य प्रेमी भक्तींमें कई तो प्रेममें इतने गहरे डूब जाते हैं कि वे लोकदृष्टिमें पागल-से दीख पढ़ते हैं किसी-किसीकी बालकवत्‌ चेष्टा दिखायी देती हैं। उनके सांसारिक कार्य छूट जाते हैं। कई ऐसी प्रकृतिके भी प्रेमी पुरुष होते हैं जो अनन्य प्रेममें निमम्न रहनेपर भी महान्‌ भागवत श्रीभरतजीकी भाँति या भक्तराज श्रीहनुमानूजीकी भाँति सदा ही *रामकांज' करनेको तैयार रहते हैं। ऐसे भक्तोंके सभी कार्य लोकहितार्थ होते हैं। ये महात्मा एक क्षणके लिये भी परमात्माको नहीं भुलछाते, भगवान्‌ ही उन्हें कभी भुला सकते है। भगवानने कहा ही है-- यो मां पह्यति सर्वत्र सर्व त्ष मयि पहयति। तस्थाह॑ प्रणशयामि स्॒ च्र मे प्रणश्यति॥ (गीता ६। ३०)

ड्डेड

+* तसक्वचिन्तामणि *

श्रीमद्धरवद्गीता एक अद्वितीय आध्यात्मिक ग्रन्थ है, यह कर्म, उपासना और ज्ञानके तत्त्वोंका भण्डार है। इस बातको कोई नहीं कह सकता कि गीतामें प्रधानतासे केवल अमृुक विषयका ही वर्णन है। यद्यपि यह छोटा-सा ग्रन्थ है ओर इसमें सब विषयोंका सूत्ररूपसे वर्णन है, परन्तु किसी भी विषयका वर्णन स्वल्प होनेपर भी अपूर्ण नहीं है, इसीलिये कहा गया है-- गीता सुगीता कर्तव्या किमन्ये: शास्त्रविस्तरै: या स्वयं पदानाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता (महा० भीष्म" ४३ | १) इस कथनसे दूसरे शास््रोंका निषेध नहीं है, यह तो गीताका सच्चा महत्त्त बतलानेके लिये है, वास्तवमें गीतोक्त ज्ञानकी उपलब्धि हो जानेपर और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता। गीतामें अपने-अपने स्थानपर कर्म, उपासना और ज्ञान--तीनोंका विशद और पूर्ण वर्णन होनेके कारण यह नहीं कहा जा सकता कि इसमें कौन-सा विषय प्रधान और कोन-सा गौण है। सुतर्रा जिनको जो विषय प्रिय है--जो सिद्धान्त मान्य है, वही गीतामें भासने लगता है। इसीलिये भिन्न-भिन्न टीकाकारोंने अपनी-अपनी भावनाके अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ किये हैं, पर उनमेंसे किसीको हम असत्य नहीं कह सकते | जैसे बेद परमात्माका निःश्ास है इसी प्रकार गीता भी साक्षात्‌ भगवानके बचन होनेसे भगवत्‌-स्वरूप हो है। अतण्व भगवानकी भाँति मीताका स्वरूप भी भक्तोंको अपनी भावनाके अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकारसे भासता है। कृपासिन्धु भगवानने अपने प्रिय सखा-- भक्त अर्जुनको निमित्त बनाकर समस्त संसारके कल्याणार्थ इस अद्भुत गीता-शाखका उपदेश किया है। ऐसे गीता-शासत्रके किसी तत््वपर विवेचन करना मेरे सदृश साधारण मनुष्यके लिये बाल-चपलतामांत्र है। में इस विषयमें कुछ कहनेका अपना अधिकार समझता हुआ भी जो कुछ कह रहा हूँ सो केवल अपने मनोविनोदके लिये है। निवेदन है कि भक्त और विज्वजन मेरी इस बालचेष्टापर क्षमा करें। गीतामें कर्म, भक्ति और ज्ञान--तीनों सिद्धान्तोंकी ही अपनी-अपनी जगह प्रधानता है तथापि यह कहा जा सकता है कि गीता एक भक्तिप्रधान ग्रन्थ है, इसमें ऐसा कोई अध्याय नहीं जिसमें भक्तिका कुछ प्रसड़ हो | गीताका प्रारम्भ और पर्यवसान भक्तिमें ही है। आरम्भमें अर्जुन 'शाथि मां त्वा प्रपन्नम' (२।७) कहकर भगवान्‌की शरण ग्रहण करते है और अन्तमें भगवान्‌ 'सर्वधर्मान्यरित्यज्य मामेक॑ शरणं

पका हक,

ब्रज ।” (१८ | ६६) कहकर शर्णागतिका ही पूर्ण समर्थन करते हैं-- समर्थन ही नही, समस्त धर्मोका आश्रय सर्वथा परित्याग कर केवल भगवदाश्रय--अपने आश्रय होनेके लिये आज्ञा करते हैं और साथ ही समस्त पापोंसे छुटकारा कर देनेका भी जिम्मा लेते हैं। यह मानी हुई बात है कि दारणागति भक्तिका ही एक स्वरूप है। अवश्य ही गीताकी भक्ति अविवेकपूर्वक की हुई अन्धभक्ति या अज्ञानप्रेरित आलस्यमय कर्मत्यामरूप जड़ता नहीं है, गीताका भक्ति क्रियात्मक और विवेकपूर्ण है। गीताकी भक्ति पूर्णपुरुष परमात्माकी पूर्णताके समीप पहुँचे हुए साधकद्गारा की जाती है। गीताकी भक्तिके लक्षण बारहवें अध्यायमें भगवानने प्य॑ बतलाये हैं। गीताकी भक्तिमें पाफको स्थान नहीं है। वास्तवमें भगवानका जो शरणागत अनन्य भक्त सब तरफ सबमें सर्वदा भगवान्‌कों

| देखता है, वह छिपकर भी पाप कैसे कर सकता है ? जो

शरणागत भक्त अपने जीवनकों फामात्माके हाथोंमें सौपकर उसके इज्ञारेपर नाचना चाहता है उसके द्वारा पाप कैसे बन सकते हैं? जो भक्त सब जगत्‌को परमात्माका स्वरूप समझकर सबकी सेवा करना अपना कर्तव्य समझता है, वह निष्क्रिय आलसी कैसे हो सकता है? एवं जिसके पास यरमात्मखरूपके ज्ञानका प्रकाश है वह, अन्धतममें केसे प्रवेश कर सकता है ? इसीसे भगवानने अर्जुनसे स्पष्ट कहा है-- तस्मात्सवेंषु कालेघु मामनुस्पर सुध्य च। मय्यर्पितमनोजुद्धिममिवैष्यस्यसंशावम्‌ (गीता ७) युद्ध करो, परन्तु सब समय मेरा (भगवानक्का) स्मरण करते हुए और मेरेमें (भगवानमें) अर्पित मन-बुद्धिसे युक्त होकर करो। यही तो निष्कामकर्मसंयुक्त भक्तियोग है, इससे निस्सन्देह परमात्माकी ग्राप्ति होती है। इसी प्रकारकी आज्ञा आ० ९। २७ और १८। ५७ आदि इलोकोंमें दी है। इसका यह मतलब नहीं कि केवल कर्मयोग या केवल भक्तियोगके लिये भगवानने स्व॒तन्लरूपसे कहीं कुछ भी नही कहा है। 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' (२ |४७) “योगस्थः कुरु कर्माण' (२।४८) आदि इलोकोंमें केवल कर्मका और मन्यमना भव! (९। ३४) आदिमें केवल भक्तिका वर्णन मिलता है, परन्तु इनमें भी कर्मगें भक्तिका ओर भक्तिमें कर्मका अस्योन्याश्रित सम्बन्ध प्रच्छन्न है। समत्वरूप योगमें स्थित होकर फलका अधिकार ईश्वरके जिम्मे समझकर जो कर्म करता है वह भी प्रकारान्तरसे ईश्वरस्मरणरूप भक्ति करता है

कि # गौीतामें

भक्ति * ३३५

और भक्ति, पूजा, नमस्कार आदि भगबद्धक्तिपरक क्रियाओंको करता हुआ भी साधक तत्तत्‌ क्रियारूप कर्म करता ही है। साधारण सकामकर्मीमें और उसमें भेद इतना ही हैं कि सकामकर्मी कर्मका अनुष्ठान सांसारिक कामना-सिद्धिके लिये करता है ओर निष्कामकर्मी भगवल्यीत्यर्थ करना है। स्वरूपसे कर्मत्यागकी तो गीताने निन्दा की है और उसे तामसी त्याग बतलाया है | (१८ ७) एवं अ० इलोक में कर्मत्यागसे सिद्धिका नहीं प्राप्त होना कहकर अगले इलोकमें स्वरूपसे कर्मत्यागकको अश्क्य भी बतलाया है। अतण्ब गीताके अनुसार प्रधानतः अनन्यभावसे भगवानके स्वरूपमें स्थित होकर भगवान्‌की आज्ञा मानकर भगवानके लिये मन, वाणी, शरीरसे स्ववर्णानुसार समस्त कर्मोका आचरण करना ही भगवानकी भक्ति है और इसीसे परम सिद्धिरूप मोक्षकी प्राप्त हो सकती हैं। भगवान्‌ घोषणा करते है--

यतः प्रवृत्ति्भतानां येन सर्वथिदे ततम। स्वकर्मणा तंम्रभ्यर््य सिद्धि विन्दति मानव: (गीता १८ | ४६)

जिस परमात्मासे सर्व भूतोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सम्पूर्ण जगत्‌ व्याप्त है, उस परमेश्वर्को अपने स्वाभाविक कर्मद्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त होता है। इस प्रकारके कर्म बन्धनके कारण होकर मुक्तिके कारण ही होते हैं, इनमें पतनका डर बिलकुल नहीं रहता है। भगवानने साधककों भगवलद्माप्तिक लिये और साधनोत्तर सिद्धकालमें ज्ञानोको भी छोकसंग्रह यानी जनताको सन्मार्गपर लगनेके लिये अपना उदाहरण पेशकर कर्म करनेकी आज्ञा दी है, यद्यपि उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं है--'तस्य कार्य विद्यते।” (३। १७) इसके सिवा अर्जुन क्षत्रिय , गृहस्थ और कर्मश्ञील पुरुष थे, इसलिये भी उन्हें कर्मसहित भक्ति करनेके लिये ही विशेषरूपसे कहा है और वास्तवमें सर्वसाधारणके हितके लिये भी यही आवश्यक है। संसारमें तमोगुण अधिक छाया हुआ है | तमोगुणके कारण लोग भगवत्तत्तस अनभिज्ञ रहकर एकान्तवासमें भजन-ध्यानके बहाने नींद, आलस्य ओर अकर्मण्यताके शिकार हो जाते हैं | ऐसा देखा भी जाता है कि कुछ लोग “अब तो हम निरन्तर एकान्तमें रहकर भजन-ध्यान ही किया करेंगे कहकर कर्म छोड़ देते हैं, परंतु थोड़े ही दिनोंमें उनका मन एकान्तसे हट जाता है। कुछ स्मेग सोनेमें समय बिताते हैं, तो कोई कहने लगते है 'क्या करें, ध्यानमें मन नहीं लगता फलतः: कुछ तो निकम्मे हो जाते हैं और कुछ प्रमादवश इन्द्रियोंकी आसम देनेवाले भोगोंमें प्रवत्त हो |

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जाते हैं। सच्चे भजन-ध्यानमें लगनेवाले विरले ही निकलते हैं। एकान्तमें निवासकर भजन-ध्यान करना बुरा नहीं है परंतु यह साधारण बात नहीं हैं। इसके लिये बहुत अभ्यासकी आवश्यकता है और यह अभ्यास कर्म करते हुए ही क्रमशः बढ़ाया और गाढ़ किया जा सकता है, इसीलिये भगवानने कहा है कि नित्य-निरन्तर मेरा स्मरण करते हुए फलासक्तिरहित होकर मेरी आज्ञासे मेरी प्रीतिके लिये कर्म करना चाहिये। परमेश्वक्के ध्यानकी गाढ़ स्थिति प्राप्त होनेमें कर्मोंका संयोग-वियोग बाधक-साधक नहीं है| प्रीति और सच्ची श्रद्धा ही इसमें प्रधान कारण है। प्रीति और श्रद्धा होनेपर कर्म उसमे बाधक नहीं होते बल्कि उसका ग्त्येक कर्म भगवत्‌-प्रीतिके लिये ही अनुपष्चित होकर शुद्ध भक्तिके रूपमें परिणत हो जाता है। इससे भी कर्मत्यागकी आवश्यकता सिद्ध नहीं होती। परंतु इस कथनसे एकान्तमें निरन्तर भक्ति करनेका निषेध भी नहीं है।

अधिकारियोंके लिये. 'विविक्तदेशसेवित्वम' और “अरतिर्जनसंसदि' (१३ | १०) होना उचित ही है, परन्तु संसारमें प्रायः अधिकांश अधिकारी कर्मके ही मिलते हैं। एकान्तवासके वास्तविक अधिकारी वे हैं जो भगवान्‌की भक्तिमें तल्‍्लीन हैं, जिनका हृदय अनन्यप्रेमसे परिपूर्ण है, जो क्षणभरके भगवानके बिस्मरणसे ही परम व्याकुल हो जाते हैं, भगवत्‌-प्रेमकी विनह्नलतासे बाह्य ज्ञान लुप्तप्राय रहनेके कारण जिनके सांसारिक कार्य सुचारुरूपसे सम्पन्न नहीं हो सकते और जिनको संसारके ऐशो-आराम भोगके दर्शन-श्रवणमात्रसे ही ताप होने लगता है, ऐसे अधिकारियोंके लिये जनसमुदायसे अछग रहकर एकान्तदेशमें निरत्तर अटल साधन करना ही अधिक श्रेयस्कर होता है। ये लोग कर्मको नहीं छोड़ते | कर्म ही उन्हें छोड़कर अलग हो जाते हैं। ऐसे लोगोंको एकान्तमें कभी आलस्य या विषय-चिन्तन नहीं होता। इनके भगवद्येमकी सरितामें एकान्तसे उत्तरोत्तर बाढ़ आती है और वह बहुत ही शीघ्र इन्हें परमात्मार्मी महासमुद्रमँ मिलाकर इनका स्तन्त्र अस्तित्व समुद्रके विज्ञाल असीम अस्तिलवमें अभिन्नरूपसे मिला देती है। परन्तु जिन लोगोको एकान्तमे सांसारिक विश्षेप सताते हैं, वें अधिक समयतक कर्मरहिंत होकर एकान्तवासके अधिकारी नहीं हैं। जगतमें ऐसे ही लोग अधिक हैं अधिकसंख्यक लोगोंके लिये जो उपाय उपयोगी होता है, प्राय: बही बतलाया जाता है, यही नीति है। इसलिये शास्रोक्त सांसारिक कर्मोकी गति भगवतक्ी ओर मोड़ देनेका ही विद्येष प्रयल्ष करना चाहिये, कर्मोंको छोड़नेका- नहीं

ऊपर कहा गया है कि अर्जुन गृहस्थ, क्षत्रिय और

क्केद हि कर्मशील था, इससे कर्मकी बात कही गयी है। इसका यह अर्थ नहीं हैं कि गीता केवल गृहस्थ, क्षत्रिय या कर्मियोंके लिये ही है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि गीतारूपी दुग्धामृत अर्जुनरूप वत्सके व्याजसे ही विश्वको मिला परन्तु वह इतना सार्वभौम और सुमधुर है कि सभी देश, सभी जाति, सभी वर्ण और सभी आश्रमके लोग उसका अबाधितरूपसे पानकर अमरत्व प्राप्त कर सकते हैं। जेसे भगवत्माप्तिमें सबका अधिकार है बैसे ही गीताके भी सभी अधिकारी है। अवश्य ही सदाचार, श्रद्धा, भक्ति और प्रेमका होना आवश्यक है; क्योंकि भगवानने अश्रद्धाहु, सुनना चाहनेवाले, आचरण प्रष्ट, भक्तिहीन मनुष्योंमें इनके प्रचारका निषेध किया हैं (गीता १८ | ६७) भगवानका आश्रित जन कोई भी क्‍यों हो, सभी इस अमृतपानके पात्र हैं (१८।६८) |

यदि यह कहा जाय कि गीतामें तो सांख्ययोग और कर्मयोग नामक दो ही निष्ठाओंका वर्णन है। भ्रक्तिकी तीसरी कोई निष्ठा ही नही, तब गीताको भक्तिप्रधान कैसे कहा जा सकता है ? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि भक्तिकी भिन्न निष्ठा भगवानने नहीं कही है परन्तु पहले यह समझना चाहिये कि निष्ठा किसका नाम है ओर क्या योग और सांख्यनिष्ठा उपासना बिना सम्पन्न हो सकते है ? उपासनारहित कर्म जड होनेसे कदापि मुक्तिदायक नहीं होते और उपासनारहित ज्ञान ही ग्रशंसनीय है। गीतामें भक्ति ज्ञान और कर्म दोनोंमें ओतप्रोत है। निष्ठाका अर्थ है-- परमात्माके स्वरूपमें स्थिति। जो स्थिति परमेश्वरके स्वरूपमें भेदरूपसे होती है, यानी परमेश्वर अंशी और मैं उसका अंश हूँ, परमेश्वर सेव्य

# तत््चचिन्तामणिं *

ओर मैं उसका सेवक हूँ। इस भावसे परमात्माकी प्रीतिके लिये उसके आज्ञानुसा: फलासक्ति त्यागकर जो कर्म किये जाते है उसका नाम है निष्काम कर्मयोगनिष्ठा ओर जो सचिदानन्दघन ब्रह्ममें अभेटरूपसे स्थिति है यानी ब्रह्ममें स्थित रहकर प्रकृतिद्वारा होनेवाले समस्त कर्मोंको प्रकृतिका विस्तार और मायामात्र मानकर वास्तवमें एक सचिदानन्दघन ब्ह्मके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है यों निश्चय करके जो अभेद स्थिति होती है उसे सांख्यनिष्ठा कहते हैं। इन दोनों ही निष्ठाओंमें उपासना भरी है। अतएव भक्तिको तीसरी स्वतन्त्र निष्ठाके नामसे कथन करनेकी कोई आवद्यकता नहीं | इसपर यदि कोई कहे कि तब तो निष्काम कर्मयोग और ज्ञानयोगके बिना केवल भक्तिमार्गसे परमात्माकी प्राप्ति ही नहीं हो सकती तो यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि भगवानने केबल भक्ति- योगसे स्थान-स्थानपर पस्मात्माकी प्राप्ति होना बतलाया है। साक्षात्‌ दर्शनके लिये तो यहाँतक कह दिया है कि अनन्य भक्तिके अतिरिक्त अन्य किसी उपायसे नहीं हो सकता। (गीता १५१५।५४) ध्यानयोगरूपी भक्तिको (गीता १३ | २४) 'ध्यानेनात्मनि पहयन्ति' कहकर भगवानने और भी स्पष्टीकरण कर दिया है। इस ध्यानयोगका प्रयोग उपर्युक्त दोनों साधनोंक साथ भी होता है ओर अलग भी। यह उपासना या भक्तिमार्ग बड़ा ही सुगम और महत्त्वपूर्ण है। इसमें ईश्वरका सहारा रहता है और उसका बल प्राप्त होता रहता है। अतएव हमलेगोंको इसी गीतोक्त निष्काम विशुद्ध अनन्यभक्तिका आश्रय लेकर अपने समस्त स्वाभाविक कर्म भगवल्मीत्यर्थ करने चाहिये।

श्रीप्रेम-भक्ति-प्रकाश

परमात्माकी शरणमें प्राप्त हुए पुरुषका मन परमात्मापे प्रार्थना करता है--

हे प्रभो ! हे विश्वम्भर ! हे दीनदयालो ! हे कृपासिन्धो ! हे अन्तर्यामिन्‌! हे पतितपावन ! हे सर्वशक्तिमान्‌ ! हे दीनबच्धो | हे नारायण | हे हरें! दया कीजिये, दया कीजिये। हे अन्तर्यामिन्‌! आपका नाम संसारमें दयासिन्धु और सर्वशक्तिमान्‌ विख्यात है, इसीलिये दया करना आपका काम है।

हे प्रभो यदि आपका नाम पतितपावन है तो एक बार आकर दर्शन दीजिये। में आपकी बारम्बार प्रणाम करके विनय कराता हूँ, हे प्रभो ! दर्शन देकर कृतार्थ कीजिये। हे प्रभो | आपके बिना इस संसारमें मेश और कोई भी नही है, एक बार दर्शन दीजिये, दर्शन दीजिये, विशेष तरसाइये |

आपका नाम विश्वम्भर है, फिर मेरी आश्ञाको क्यों नहीं पूर्ण करते है। हे कछणामय ! हे दयासागर ! दया कीजिये। आप दयाके समुद्र है, इसलिये किल्चित्‌ दया करनेसे आप दयासागरमें कुछ दयाकी त्रुटि नहीं हो जायगी। आपकी किश्चित्‌ दयासे सम्पूर्ण संसारका उद्धर हो सकता है, फिर एक तुच्छ जीवका उद्धार करना आपके लिये कौन बड़ी बात है। हे प्रभो | यदि आप मेरे कर्तव्यको देखें तब तो इस संसारसे मेरा निस्तार होनेका कोई उपाय ही नहीं है। इसलिये आप अपने पतितपावन नामकी ओर देखकर इस तुच्छ जीवको दर्शन दीजिये मैं तो कुछ भक्ति जानता हूँ, योग जानता हूँ तथा कोई क्रिया ही जानता हूँ, जो कि मेरे कर्तव्यसे आपका दर्शन हो सके | आप अन्तर्यामी होकर यदि दयासिन्धु नहीं होते तो आपको संसारमें कोई दयासिन्धु नहीं कहता,

अं -भक्ति-प्रकाह *

३३७

यदि आप दयासागर होकर भी अन्तरकी पीड़ाको पहचानते | वचनोंसे भगवानसे प्रार्थना करता है परन्तु तू नहीं जानता कि

तो आपको कोई अतन्तर्यामी नहीं कहता। दोनों गुणोंसे युक्त होकर भी यदि आप सामर्थ्यवानू होते तो आपको कोई सर्वदक्तिमान्‌ ओर सर्वस्मामर्थ्यवान्‌ नहीं कहता। यदि आप केवल भक्तवत्सल ही होते तो आपको कोई पतितपाबन नहीं कहता। हे प्रभो ! हे दयासिन्धो | एक बार दया करके दर्शन दीजिये। जीवात्मा अपने मनसे कहता है-- रे दुष्ट मन ! कपटभरी प्रार्थना करनेसे क्या अन्तर्यामी भगवान्‌ प्रसन्न हो सकते हैं ? क्या वे नहीं जानते कि ये सब तेरी प्रार्थनाएँ निष्काम नहीं हैं 2 एवं तेरे हृदयमें श्रद्धा, विधास और प्रेम कुछ भी नही है ? यदि तुझको यह विश्वास है कि भगवान्‌ अन्तर्यामी हैं तो फिर किसलिये प्रार्थना करता है ? बिना प्रेमके मिथ्या प्रार्थना करनेसे भगवान्‌ कभी नही सुनते ओर यदि प्रेम हैं तो फिर कहनेसे प्रयोजन ही क्या है ? क्योंकि भगवानने तो सयं ही श्रीगीताजीमें कहा है कि-- ये यथा मां प्रपश्न्ते तांस्तथैल भजाम्यहम्‌ (४। ११) 'जो मेरेको जैसे भजते है मैं भी उनको वैसे ही भजता हूँ। तथा-- ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि त्ते तेबु चाप्यहम (९।२९) 'जो (भक्त) मेरेको भक्तिसे भजते हैं वे मेरेमें हैं और मैं भी उनमें (प्रत्यक्ष प्रकट) हूँ* रे मन ! हरि दयासिस्ु होकर भी यदि दया करें तो भी कुछ चिन्ता नहीं, अपनेको तो अपना कर्तव्यकार्य करते ही रहना चाहिये। हरि प्रेमी हैं, वे प्रेमको पहचानते हैं, प्रेमके विषयको प्रेमी ही जानता है, वे अन्तर्यामी भगवान्‌ क्या तेरे शुष्क प्रेमसे दर्शन दे सकते हैं ? जब विज्युद्ध प्रेम और श्रद्धा-विश्वासरूपी डोरी तैयार हो जायगी तो उस डोरीद्वारा बँधे हुए हरि आप-ही-आप चले आवेंगे। रे मूर्ख मन! क्‍या मिथ्या प्रार्थासे काम चल सकता हैं ? क्योंकि हरि अन्तर्यामी हैं। रे मन ! तुझको नमस्कार है, तेरा काम संसारमें चक्कर लगानेका हैं सो जहाँ तेरी इच्छा हो बहाँ जा। तेरे ही सड़के कारण मैं इस असार संसारमें अनेक दिन फिरता रहा, अब हरिके चरण-कमलोंका आश्रय ग्रहण करनेसे तेरा सम्पूर्ण कपट जाना गया। तू मेरे लिये कपटभाव और अति दीन

हरि अन्तर्यामी हैं। श्रीयोगवासिष्ठमें ठीक ही लिखा है कि मनके अमन हुए बिना अर्थात्‌ मनका नाश हुए बिना भगवानूकी प्राप्ति नहीं होती घासनाका क्षय, मनका नाहा और परमेश्वरकी प्राप्ति यह तीनों एक ही कालमें होते हैं। इसलिये तुझसे विनय करता हूँ कि तू यहाँसे अपने माजनेसहित चला जा, अब यह पक्षी तेरी मायारूपी फाँसीमें नहीं फैंस सकता; क्योंकि इसने हरिके चरणोंका आश्रय लिया हैं। क्या तू अपनी दुर्दशा कराके ही जायगा ? अहो ! कहाँ वह माया ! कहाँ काम-क्रोधादि झत्रुगण ! अब तो तेरी सम्पूर्ण सेनाका क्षय होता जाता है, इसलिये अपना प्रभाव पड़नेकी आदज्याको त्यागकर जहाँ इच्छा हो चला जा। मन फिर परमात्मासे प्रार्थना करता है--

प्रभो ! प्रभो !! दया करिये, हे नाथ ! मैं आपकी शरण हूँ। हे शरणागतप्रतिपालक ! शरण आयेको लज्जा रखिये। है प्रभो | रक्षा करिये, रक्षा करिये, एक बार आकर दर्शन दीजिये। आपके बिना इस संसास्में मेरे लिये कोई भी आधार नहीं हैं, अतएव आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ। विलम्ब करिये, शीघ्र आकर दर्शन दीजिये हे प्रभो! हे दयासिन्धो ! एक बार आकर दासकी सुधि लीजिये। आपके आनेसे प्राणोंका आधार कोई भी नहीं दीखता। हे प्रभो ! दया करिये, दया करिये, मैं आपकी शरण हूँ, एक बार मेरी ओर दयादृष्टिसे देखिये। हे प्रभो ! है दीनबन्धो ! हे दीनदयालो ! विशेष तरसाइये, दया करिये। मेरी दुष्ठताकी ओर देखकर अपने पतितपावन स्वभावका प्रकाश करिये।

जीवात्मा अपने मनसे फिर कहता है--

रे मन ! सावधान ! सावधान ! किसलिये व्यर्थ प्रक्तष करता है। वे श्रीसचिदानन्दघन हरि झूठी विनती नही चाहते। अब तेरा कपट यहाँ नहीं चलेगा, तू मेरे लिये क्यों हरिसे कपटभरी प्रार्थना करता है ? ऐसी प्रार्थना मैं नहीं चाहता, तेरी जहाँ इच्छा हो वहाँ चला जा।

यदि हरि अन्तर्यामी हैं तो प्रार्था करनेकी क्या आवश्यकता है? यदि बे प्रेमी हैं तो बुलानेकी क्या आवश्यकता है ? यदि वे विश्वम्भर हैं तो माँगनेकी क्या आवश्यकता है ? तेरेकी नमस्कार है, तू यहाँसे चला जा,

6 चला जा।

* जैसे सूक्ष्मरूपसे सब जगह व्याप्त हुआ भी अग्नि साधनोंद्वारा प्रकट करनेसे हो प्रत्यक्ष होता है वैसे ही सब जगह रिथित हुआ भी परमेश्वर

भ्रक्तिसे भजन॑वालेके ही अन्तःकरणमें प्रत्यक्षरूपसे प्रकट होता है।

३८ जीबात्मा अपनी बुद्धि ओर इन्द्रियोंसे कहता है-- हे इन्द्रियों ! तुमको नमस्कार है। तुम भी जाओ। जहाँ वासना होती है वहाँ तुम्हारा टिकाब होता हैं। मैंने हरिके चरण-कमलोंका आश्रय लिया है, इसलिये अब तुम्हारा दावे नही पड़ेगा हें बुद्धे तुझको भी नमस्कार है। पहले तेरा ज्ञान कहाँ गया था जब कि तू मुझको संसारमें डूबनेके लिये शिक्षा

दिया करती थी ? क्या वह जिक्षा अब लग सकती है 2 ५॥

.._ परमात्मासे कहता है-- हे प्रभो आप अन्तर्यामी हैं, इसलिये में नहीं कहता कि आप आकर दर्शन दीजिये; क्योंकि यदि मेरा पूर्ण प्रेम होता तो क्या आप ठहर सकते ? क्या वैकुण्ठमें लक्ष्मी भी आपको अटका सकतीं 2 यदि मेरी आपमें पूर्ण श्रद्धा छोती तो क्या आप विलम्ब करते ? क्या वह प्रेम ओर विश्वास आपको छोड़ सकता ? अहो। में व्यर्थ ही संसारमें निष्कामी और निर्वासनिक बना हुआ हूँ और व्यर्थ ही अपनेको आपके शरणागत मानता हूँ। परन्तु कोई चिन्ता नहीं, जो कुछ आकर प्राप्त हो उसीमें मुझे प्रसन्न रहना चाहिये; क्योंकि ऐसे ही आपने श्रीगीताजीमें कहा हैं* | इसलिये आपके चरण-कमलोंकी प्रेम-भक्तिमें मग्न रहते हुए यदि मुझको नरक भी प्राप्त हो तो बह भी स्वर्गसे बढ़कर हैं ऐसी दशामें मुझको क्या चिन्ता हैं ? जब मेरा आपमें प्रेम होगा तो क्या आपका नहीं होगा ? जब में आपके दर्शन बिना नहीं ठहर सकूँगा उस समय क्या आप ठहर सकेंगे ? आपने तो स्वयं श्रीगीताजीमें कहा है क्रि-- ये यथा मां प्रपद्चन्ते तांस्तथेत्र भजाम्यहम ॥। (४।११) “जो मुझको जैसे भजते हैं में भी उनको वैसे ही भजता हूँ। अतएव में नहीं कहता कि आप आकर दर्शन दीजिये और आपको भी क्‍या परवा है ? परन्तु कोई चिन्ता नही, आप जैसा उचित समझें वैसा ही करें, आप जो कुछ करें उसीमें मुझको आनन्द मानना चाहिये। जीवात्मा ज्ञाननेत्रोंद्वारा परमेश्वरकां ध्यान कर्ता हुआ आनन्दमें विह्ल होकर कहता है-- अहो | अहो | आनन्द ! आनन्द प्रभो ! प्रभो | क्या आप पंघारे ? धन्य भाग्य | धन्य भाग्य | आज में पतित भी आपके चरण-कमलोंके प्रभावसे कृतार्थ हुआ | क्यों हो, आपने स्वयं श्रीगीताजीमें कहा है कि-- अधि चेत्सूदुराचारो भजते मामनन्यभाकु साधुरेव स॒ मन्तब्य: सम्यग्व्यवसितो हि सः॥

* तत्त्वचिन्तामणि *

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा दाश्चच्छान्ति निगच्छति। कोौन्तेय प्रति जानीहि में भक्त: प्रणइयति (९ | ३०-३१)

यदि (कोई) अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त हुआ मेरेको (निर्तर) भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है।

इसलिये वह शीघ्र ही धर्मात्ा हो जाता है और सदा रहनेवाली परमश्ान्तिको प्राप्त होता है, हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता

जीबात्पा परमात्माक्े आश्चर्यमयथ सगुण रूपको ध्यानमें देखता हुआ अपने मन-ही-मनमें उनकी शोभा वर्णन करता है--

अहो ! कैसे सुन्दर भगवानके चरणारविन्द हैं कि जो नीलमणिके ढेस्की भाँति चमकते हुए अनन्त सूर्योकि सदृत्ञ प्रकाशित हो रहे हैं। चमकीले नखोंसे युक्त कोमल-कोमल अंगुलियाँ जिनपर रत्नजड़ित सुवर्णके नूपुर शोभायमान हैं, जैसे भगवान्‌के चरण-कमल हैं बैसे ही जानु और जड्जादि अड़ भी नीलमणिके ढेरकी भाँति पीताम्बरके भीतरसे चमक रहे हैं। अहो ! सुन्दर चार भुजाएँ कैसी झोभायमान है। ऊपरकी दोनों भुजाओंमें तो शट्ठ और चक्र एवं नीचेकी दोनों भुजाओंमें गदा और पद्म विसजमान हैं। चारों भुजाओंमें केयूर और कड़े आदि सुन्दर-सुन्दर आभूषण शोभित हैं। अहो | भगवानका वक्ष:स्थल कैसा सुन्दर है जिसके मध्यमें श्रीलक्ष्मीजीका और भगुलताका चिह्न विराजमान है तथा नीलकमलके सदूश वर्णवाली भगवान्‌की ग्रीवा भी कैसी सुन्दर है जिसमें रत्रजड़ित हार और कौस्तुभमणि विराजमान हैं एवं मोतियोंकी और बैजयन्ती तथा सुवर्णकी और भांति-भाँतिके पुष्पोंकी मालाएँ सुशोभित हैं। सुन्दर ठोड़ी, छाल ओष्ठ और भगवान्‌की अतिशय सुन्दर नासिका है जिसके अग्मभागमें मोती विसजमान है। भगवानके दोनों नेत्र कमलपत्रके समान विशाल और नीलकमलके पुष्पकी भाँति ख़िले हुए हैं। कानोमें रत्न॒जड़ित सुन्दर मकराकृत कुष्डल और ललाटपर श्रीधारी तिलक एवं शीत्ञापर रत्जड़ित किरीट (मुकुट) शोभायमान है। अहो ! भगवानका मुखारविन्द पूर्णिमाके चन्द्रमाकी भाँति गोल-गोल कैसा मनोहर है जिसके चारों ओर सूर्यके सदृश किरणें देदीप्यमान हैं, जिनके प्रकाशसे मुकुटादि सम्पूर्ण भूषणोंके रत्न चमक रहे हैं ? अहो आज मैं धन्य हूँ, धन्य हूँ कि जो मन्द-मन्द हँसते हुए आनन्दमूर्ति हरि

* यदुच्छालाभसंतुष्टः (गीता अध्याय इलोक २२) संतुष्टों येन केनचित्‌ (गीता अध्याय १२ इलोक १९) |

* श्रीध्रेम-भक्ति-प्रकाश

भगवान्‌का दर्शन कर रहा हूँ॥ ८॥

भगवान्‌ स्नान करके पधारे हैं। वख्र धारण कर रखे हैं और यज्ञोपबीत सुशोभित है। इस प्रकार आनंन्दमें बिहल हुआ जीवात्मा ध्यानमें अपने सम्मुख सवा हाथकी दूरीपर बारह वर्षकी सुकुमार अवस्थाके रूपमें भूमिसे सवा हाथ ऊँचे आकाझमें विराजमान परसेश्वरको देखता हुआ उनकी मानसिक पूजा करता है।

मानसिक पूजाकी विधि

३» यादयो: पाद्य॑ समर्पयामि नारायणाय नमः ॥|

इस मनन्‍्त्रको बोलकर शुद्ध जल्से श्रीभगवानके चरण-कमलॉकोी धोकर उस जलको अपने मस्तकपर धारण करना॥ 3० हस्तयोरघ्य॑ समर्पयासि नारायणाय नम.

इस मन्त्रकों बोलकर श्रीहरि भगवानके हस्तकमलोंपर पवित्र जल छोड़ना | 3: आचमनीय समर्पयामि नारायणाय नमः ॥|

इस मन्‍्त्रको बोरूकर श्रीनारायणदेवको आचमन कराना ३& गयन्ध समर्पयामि नारायणाय नपः

इस मन्त्रको बोलकर श्रीहरि भगवानके ललाटपर गोली लगाना मुक्ताफले समर्पयापि नारायणाय नप्ः

इस मन्त्रको बोलकर श्रीभगवानके ललाटपर मोती लगाना ५॥ 3& युध्यं समर्पयामि नारायणाय नम्त:

इस मनन्‍्त्रको बोलकर श्रीभगवानके मस्तकपर और नासिकांके सामने आकाशमें पुष्प छोड़ना ३७ मालों समर्पयामि नारायणाय नप्र:

इस मन्त्रको बोलकर पुष्पोंकी माला श्रीहरिके गलेमें पहनाना धृपमाघ्रापयामि नाशयणाय नप्र:

इस मन्त्रको बोलकर श्रीभगवानके सामने अम्रिमें धूप छोड़ना ३» दीप॑ दर्शायामि नारायणाय नमः

इस मन्त्रको बोलकर घृतका दीपक जलाकर श्रीविष्णु भगवानके सामने रखना ९॥ ३& नैवे्यं समर्पयामि नारायणाय नमः ॥! १०

इस मन्त्रको बोलकर मिश्रीसे श्रीहरि भगवानके भोग लगाना॥ १० आचमनीय॑ समर्पयासि नारायणाय नमः १९

३९

७४ मआ-प--प «न -ञ----:++ कक... ----- ०-० -सा

इस मन्त्रको बोलकर श्रीभगवानको आचमन कराना ११ 39 ऋतुफलं समर्पयासि नारायणाय नमः १२ इस मनत्रकों बोछकर ऋतुफल (केला आदि) से श्रीभगवानके भोग लगाना १२ 3& पुनराचमनीण समर्पयासि नारायणाय नमः १३ ॥। इस मन्त्रको बोलकर श्रीभगवानकों फिर आचमन कराना १३ 3० पृगीफले सताम्बूले समर्पयामि नासयणत्य नमः १४ इस मन्त्रको बोलकर सुपारीसहित नागरपान श्रीभगवानके अर्पण करना १४ पुनराचमनीय समर्पयामि नारायणाय नम: १५ इस मन्त्रको बोलकर पुनः श्रीहरिको आचमन कराना। फिर सुवर्णके थालमें कपूरको प्रदीप्र करके श्रीनारायणदेवको आरती उतारना १५ 3& पुष्याज्जलि समर्पयामि नारायणाय नमः १६ इस मन्त्रको बोलकर सुन्दर-सुन्दर पृष्पोंकी अज्जलि भरकर श्रीहरि भगवान्‌के मस्तकपर छोड़ना १६ फिर चार ग्रदक्षिणा करके श्रीनारायणदेवको साष्टाड़ दण्डवतू-प्रणाम करना उक्त प्रकारसे श्रीहरि भगवानकी मानसिक पूजा करनेके पश्चात्‌ उनको अपने हृदय-आकाझशमें शयन कराके जीवात्मा अपने मन-ही-मनमें श्रीभगवानके स्वरूप और गुणोंका वर्णन करता हुआ बास्म्बार सिरसे प्रणाम करता है-- शान्ताकारं भुजगशयने पद्मनाभ॑ सुरेश विश्वाधारं गगनसदृशे. मेघवर्ण . शुभाड़म्‌ लक्ष्मीकान्ते कमलनयने योगिपिर्ध्यानगम्यं बन्दे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्‌ जिनको आकृति अतिशय शान्‍्त है, जो शेषनागकी शय्यापर शयन किये हुए हैं, जिनकी नाभिमें कमल है, जो देवताओंके भी ईश्वर और सम्पूर्ण जगत्‌के आधार हैं, जो आकाशके सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नील मेघके समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुन्दर जिनके सम्पूर्ण अड्ज हैं, जो योगियोंद्वारा ध्यान करके प्राप्त किये जाते है, जो सम्पूर्ण ल्ेकोंके स्वामी हैं, जो जन्म-मरणरूप भयका नाश करनेवाले हैं, ऐसे श्रीलक्ष्मीपति कमललेत्र विष्णुभगबानको मैं सिरसे प्रणाम करता हूँ।' असंख्य सूर्योके समान जिनका प्रकाश हैं, अनन्त चन्द्रमाओंके समान जिनकी शीतलता है, करोड़ों अग्रियोंके समान जिनका तेज है, असंख्य मरुद्रणोंके समान जिनका

हु

# सन्वचिन्तामणि *

पराक्रम है, अनन्त इन्द्रोके समन जिनका ऐश्वर्य है, करोड़ों कामदेवोंके समान जिनकी सुन्दरता है, असंख्य पृथ्चियोंके समान जिनमें क्षमा है, करोड़ों समुद्रोंके समान जो गम्भीर हैं, जिनकी किसी प्रकार भी कोई उपमा नहीं कर सकता, बेद और शाख्रोंने भी जिनके स्वरूपकी केवल कल्पनामात्र ही की है, पार किसीने भी नहीं पाया, ऐसे अनुपमेय श्रीहरि भगवानको मेरा बारम्बार नमस्कार हैं।

जो सच्चिदानन्दमय श्रीविष्णुभगवान्‌ मन्द-मन्द मुस्करा रहे है, जिनके सारे अज्जोपर रोम-रोममें पसीनेकी बूँदें चमकती हुई शोभा देती हैं, ऐसे पतितपावन श्रीहरि भगवानको मेरा बासमबार ममस्कार है॥ १०

जीवात्मा मन-ही-मनमें श्रीहरि भगवान्‌को पंखेसे हवा करता हुआ एवं उनके चरणोंकी सेवा करता हुआ उनकी स्तुति करता है--

अहो ! हे प्रभों ! आप ही ब्रह्मा है, आप ही विष्णु हैं, आप ही महेश हैं, आप ही सूर्य हैं, आप ही चन्द्रमा और तारागण हैं, आप ही भुर्भृवः स्वः तीनों छोक हैं तथा सातों द्वीप और चौदह भुवन आदि जो कुछ भी है, सब आपहीका स्वरूप है, आप ही विशट्स्वरूप हैं, आप ही हिरण्यगर्भ हैं, आप ही चतुर्भुज हैं और मायातीत शुद्ध ब्रह्म भी आप ही हैं, आपहीने अपने अनेक रूप धारण किये है, इसलिये सम्पूर्ण संसार आपहीका स्वरूप है तथा द्रष्टा, दृश्य, दर्शन जो कुछ भी हैं, सो सब आप ही हैं * अतएव--

नभः समस्तभूतानामादिभूताय भूभृते अनेकरूपरूपाय ब्व्णिवे प्रभविष्णते

'सम्पूर्ण प्राणियोंके आदिभूत पृथ्वीको धारण करनेवाले

और युग-युगमें प्रकट हनेवाले अनन्त रूपधारी (आप)

विष्णु भगवानके लिये नमस्कार है।' त्वमेश् माता पिता त्वमेव त्वमेत् बच्ुश्च सखा त्वमेव त्बमेज ख्द्या द्रलिएं त्वमेत त्वमेज सर्च मम देवदेख ॥।

“आप ही माता और आप ही पिता है, आप ही बच्धु और आप ही मित्र हैं, आप ही विद्या और आप ही धन हैं, हे देवोंके देव ! आप ही मेरे सर्वस्व है' ११॥

उक्त प्रकारसे परमात्माकी प्रेम-भक्तिमें लगे हुए पुरुषका

जब परमात्मामें अतिशय प्रेम हो जाता है उस कालमें उसको अपने शरीरादिकी भी सुध नहीं रहती, जेसे सुन्दरदासजीने प्रेम-भक्तिका लक्षण करते हुए कहा है-- इन्दय छन्द्‌ प्रेम रूम्यो परमेश्वरसों, तब भूछि गयो सिंगरों घरबआारा ज्यों उन्मत्त फिरे जित ही तित, नेक रही पे शरीर सैंभारा श्वास उसास उठे सघ रोम, चले दृग नीर अखण्छित धारा सुन्दर कौन करे नवधा विधि, छाकि परयो रस पी मतबारा नाशाच छन्द लाज तीन लोकक्की, जेदको कह्मो करे। शंक भूत प्रेतकी, देव यक्ष तें डरे॥ सुने कान औरकी, द्से ओर इच्छना। कहै मुख ओर बात, भक्ति-प्रेम लच्छना बीजुमाला छृन्द प्रेम अधीनो छावक्‍यो छोले, क्‍्योंकी क्योंही बाणी बोले जैसे गोपी भूली देहा, तेसों चाहे जासों नेहा ।॥। मनहरन छन्द नौर बिनु मीन दुःखी, क्षीर बिनु झिज्षु जैसे, पीरकी ओषधि बिनु, कैसे रह्चो जात है। चातक ज्यों स्वातिबूँद, चन्दको चकोर जैसे, चन्दमकी चाह करि, सर्प अकुलात हैं॥ निर्धन ज्यों धन चाहे, कामिनीको कन्त चाहे, ऐसी जाके चाह ताहि, कछु सुहात है। प्रेमको प्रवाह ऐसो, प्रेम तहाँ नेम कैसो, सुन्दर कहत यह, प्रेमही की जात है॥ छप्पय छन्द क़बहुँक हँसि उठि नृत्य करे, रोवन फिर लागे। कबहूँक गद्द-कण्ठ, शब्द निकसे नहिं आगे॥ कबहँक हृदय उमड़, बहुत ऊँचे स्वर गाछे। कबहुँक है मुख मौन, गगन ऐसे रहि जावे चित्त-क्षित्त हरिसों लग्यो, सावधान कैसे रहे यह प्रेम छक्षणा भक्ति है, शिष्य सुनहु सुन्दर कहे १२ सगुण भगवानके अत्तर्द्धान हो जानेपर जीवात्मा शुद्ध सच्चिदानन्दघन सर्वव्यापी परब्रह्म परमात्माके स्वरूपमें मम्न हुआ करता हैं-- अहो ! आनन्द ! आनन्द ! अति आनन्द सर्वत्र एक

+ 'एकी बिष्णुर्महद्भूत पृथग्भूतान्यनेकदः' (विष्णुसहर्ननाम १४०) 'पृधक्‌-पृथक्‌ सम्पूर्ण भूतोंको उत्पन्न करनेबाला महान्‌ भूत एक ही विष्णु अनेक रूपसे स्थित है।' तथा 'एकोउह बहु स्याम' (इति श्रुतिः) '(सृष्टिके आदिमें भगवानने सड्डूल्प किया कि) मैं एक ही बहुत रूपोंमें होऊँ !'

* ईश्वर-साक्षात्कारके लिये नामजप सर्वोपरि साधन है हे

६.34

वासुदेव-ही-बासुदेव व्याप्त हैहं अहो ! सर्वत्र एक आनन्द- ही-आनन्द परिपूर्ण है।

कहाँ काम, कहाँ क्रोध, कहाँ लोभ, कहाँ मोह, कहाँ मद, कहाँ मत्सरता, कहाँ मान, कहाँ क्षोभ, कहाँ माया, कहाँ मन, कहाँ बुद्धि, कहाँ इन्द्रियाँ, सर्वत्र एक सच्चिदानन्द-ही-सचिदानन्द व्याप्त है। अहो ! अहो ! सर्वत्र एक सत्यरूप, चेतनरूप, आनन्दरूप,

घनरूप, पूर्णरूप, ज्ञानस्वरूप, कूटस्थ, अक्षर, अव्यक्त, अचिन्त्य, सनातन, परअह्म, परम अक्षर, परिपूर्ण, अनिर्देश्य, नित्य, सर्वगत, अचल, ध्रुव, अगोचर, मायातीत, अग्राह्म, आनन्द, पस्मानन्‍्द, महानन्द, आनन्द-ही-आनन्द, आनन्द-ही- आनन्द परिपूर्ण है, आनन्दसे भिन्न कुछ भी नहीं है १३

शान्ति: शान्ति: शान्ति:

कल जज | अत

ईश्वर-साक्षात्कारके लिये नामजप सर्वोपरि साधन है

वास्तवमें नामकी महिमा वही पुरुष जान सकता है, जिसका मन निरन्तर श्रीभगवन्नाममें संलग्न रहता है, नामकी प्रिय और मधुर स्मृतिसे जिसके क्षण-क्षणमें रोमाज्ञ और अश्रुपात होते है, जो जलके वियोगमें मछलीकी व्याकुलताके समान क्षणभरके नाम-वियोगसे भी बिकल हो उठता है, जो महापुरुष निमेषमात्रके लिये भी भगवानके नामको नही छोड़ सकता और जो निष्कामभावसे निसत्तर प्रेमपूर्वक जप करते-करते उसमें तल्लीन हो चुका है। ऐसा ही महात्मा पुरुष इस विषयके पूर्णतया वर्णन करनेका अधिकारी है और उस्ीके लेखसे संसारमें विशेष लाभ पहुँच सकता है। . यद्मपि मैं एक साधारण मनुष्य हूँ, उस अपरिमित गुण-निधान भगवान्‌के नामकी अवर्णनीय महिमाका वर्णन करनेका मुझमें सामर्थ्य नहीं है, तथापि अपने कतिपयथ मित्रोंके अनुरेधसे मैंने कुछ निवेदन करनेका साहस किया है। अतएब इस लेखमें जो कुछ त्रुटियाँ रही हों उनके लिये आपलोग क्षमा करें |

महिमाका दिग्दर्शन

भयवन्नामकी अपार महिमा है, सभी युगोंमें इसकी महिमाका विस्तार है। ज्ञास्रों और साधु-महात्माओंने सभी युगोंके लिये मुक्तकण्ठसे नाम-महिमाका गान किया है परन्तु कलियुगके लिये तो इसके समान मुक्तिका कोई दूसरा उपाय ही नहीं बतलाया गया। यथा--

हरेनांथ हरेनाम हरेनॉमैव..._ केवलम कली कऊऋऋ्येव नास्थेज नास्थेत गतिरन्यथा॥ (नारदपु० १४१ १५)

'कलियुगमें केवल श्रीहरिनाम ही कल्याणका परम

साधन है, इसको छोड़कर दूसरा कोई उपाय ही नहीं है।'

कृते यद्‌ ध्यायतो विष्णु त्रेतायं यजतो मखैः। हवापरे. परिचर्यायां कलौ. तद्धरिकीर्तनात्‌ (भागवत १२। | ५२) 'सत्ययुगमें भगवान्‌ विष्णुके ध्यान करनेसे, जेतामें यजंसे, द्वापरमें भगवानकी सेवा-पूजा करनेसे जो फल होता है, कलियुगमें केवल हरिके नाम-संकीर्तमसे वही फल प्राप्त होता है ।' कलिजुय केबल नाम अधारा। सुमिरि सुमिरि भव उततरहु पारा कलिजुग सम जुग आन नहीं जौं मर कर बिस्वास | गाड़ू राम शुन गन बिपमल भव तर बिनहिं प्रयास राम नाम मनिदीप रू जीह हेहरी द्वार। तुलसी भीतर बाहेरहूँ. जा. चाहसि उजिआर सकल काप्रनना हीन जे राम भगति रस लीन। नाम सुप्रेम पियूष छुंद तिन्होँ किए मन मीन॥। सलरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ नाम उधारे अमित खल बह्लेद बिदित शुन गाथ॥ रामचंद्र के भजन बितु जो चाह पद निर्मान | स्थानवंत अपि स्लो नर पसु बिनु पुूँछः ख्रिंघान | बारि प्रथें घृत होइ बरु सिकता ते बह तेल। जितु हरि भजन भर तरिश यह सिद्धांत अपेल।॥ नाम सप्रेथ जपत अनयासा। भगत होहिं घुद मंगल बासा॥ नाम्रु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥ सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने छस करें राखे रामू अपतु अजामिलु गजु नामेकाइः काऊ। भए मुकृत हरि नाम प्रभाऊ चहूँ जुग तीनि काल तिहूँ छोका। भए नाम जपि जीव बिस्चोका कहां कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु ने सकहिं नाम शुन गाई नाम-महिमामें प्रमाणोंका पार नहीं है। हमारे शास्त्र इससे

- छः जछज्छ हू "55 तचतयघधदधदधयततत तीन रन अल 9 |

* बहूवोँ जन्मनामन्ते . ज्ञानवान्मां (जो) बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त दुर्लभ है ।'

अपदते | वासुदेव: सर्वमिति स॒ महात्मा सुदुर्लभ: (गीता ७। १९) हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है, इस प्रकार मेरेको भजता है, वह महात्मा अति

है

भरे पड़े है, परन्तु अधिक विस्तारभयसे यहाँ इतने ही लिखे जाते हैं। संसारमें जितने मत-मतान्तर है, प्राय: सभी ईश्वस्के नामकी महिमाको स्वीकार करते और गाते हैं। अवश्य ही रुचि और भावके अनुसार नामोंमें भिन्नता रहती हैं, परन्तु परमात्माका नाम कोई-सा भी क्यों हो, सभी एक-सा लाभ पहुँचानेवाले हैं। अतएव जिसको जो नाम रुचिकर प्रतीत हो बह उसीके जपका ध्यानसहित अभ्यास करे। मेरा अनुभव

कुछ मित्रोने मुझे इस विषयमें अपना अनुभव लिखनेके लिये अनुरोध किया है, परंतु जब कि मैंने भगवन्नामका विशेष संख्यामें जप ही नहीं किया तब में अपना अनुभव क्या लिखे ? भगवत्कृपासे जो कुछ यत्किज्वित्‌ नामस्मरण मुझसे हो सका है उसका माहात्म्य भी पूर्णतया लिखा जाना कठिन है।

नामका अभ्यास मैं लड़कपनसे ही करने लगा था। जिससे शानैः-शनेः मेरे सबकी विषयवासना कम होती गयी और पापोंसे हटनेमें मुझे बड़ी ही सहायता मिली। काम- क्रोधादि अबगुण कम होते गये, अन्तःकरणमें झान्तिका विकास हुआ। कभी-कभी नेत्र बंद करनेसे भगवान्‌ श्रीरामचन्द्रजीेका अच्छा ध्यान भी होने लगा। सांसारिक स्फुरणा बहुत कम हो गयी। भोगोंमें वैरग्य हो गया। उस समय मुझे वनवास या एकान्त स्थानका रहन-सहन अनुकूल प्रतीत होता था।

इस प्रकार अभ्यास होते-होते एक दिन स्वप्रमें श्रीसीताजी और श्रीलक्ष्मणजीसहित भगवान्‌ श्रीरामचन्द्रजीके दर्शन हुए और उनसे बातचीत भी हुई। श्रीरामचम्द्रजीने वर माँगनेके लिये मुझसे बहुत कुछ कहा पर मेरी इच्छा माँगनेकी नहीं हुई, अन्तमें बहुत आग्रह करनेपर भी मैंने इसके सिवा और कुछ नहीं माँगा कि 'आपसे मेरा वियोग कभी हो।' यह सब नामका ही फल था।

इसके बाद नामजपसे मुझे और भी अधिक छाभ हुआ, जिसकी महिमा वर्णन करनेमें में असमर्थ हूँ। हाँ, इतना अवश्य कह सकता हूँ कि नामजपसे मुझे जितना लाभ हुआ है, उतना श्रीमद्धगवद्गीताके अभ्यासको छोड़कर अन्य किसी भी साधनसे नहीं हुआ |

जब-जब मुझे साधनसे च्युत करनेवाले भारी विध्न प्राप्त हुआ करते थे, तब-तब मैं प्रेमपूर्वक्ष भावगासहित नामजप करता था और उद्सीके प्रभावसे मैं उन विप्लोंसे छुटकारा पाता था। अतणव मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि साधन-पथके विध्लोंकी नष्ट करे और मनमें होनेवाली सांसारिक स्फुरणाओंका नाश करनेके लिये स्वरूप-चिन्तनसहित प्रेम-

* तत्त्वचन्निन्तामणि *

.. + चचचतचचत्ाा

पूर्वक भगवतन्नाम-जप करनेके समान दूसरा कोई साधन नहीं जब कि साधारण संख्यामें भगवन्नामका जप करनेसे ही मुझे इतनी परम ज्ञान्ति , इतना अपार आनन्द और इतना अनुपम लाभ हुआ है जिसका में वर्णन नहीं कर सकता, तब जो पुरुष भगवन्नामका निष्कामभावसे ध्यानसहित नित्य- निरन्तर जप करते हैं, उनके आनन्दकी महिमा तो कौन कह सकता है ? नाम॑जप किसलिये करना चोहिये ? श्रुति कहती है--- एतब्ज्ेवाक्षर ब्रह्यमा एतक्बोेबाक्ष. परम! एतज्लज्लेवाक्षरं ज्ञात्ता यो यदिव्कति तस्थ तत्‌॥ (कठ० ११२। १६) 'यह ओंकार अक्षर ही ब्रह्म है, यही परब्रह्म है, इसी ओकाररूप अक्षरको जानकर जो मनुष्य जिस बस्तुकी चाहता है उसको वही मिलती है।' श्रुतके इस कथनके अनुसार कल्पवृक्षरूप भगवद्धजनके प्रतापसे जिस वस्तुको मनुष्य चाहता है, उसे वही मिल सकती है। परल्तु आत्माका कल्याण चाहनेवाले सच्चे प्रेमी भक्तोंको तो निष्कामभावसे ही भजन करना चाहिये शाखबोंमें निष्काम प्रेमी भक्तकी ही अधिक प्रशंसा की गयी है। भगवानने भी कहा है-- चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनो3र्जुन आर्तों जिज्लासुरथार्थी ज्ञानी भरतर्षभ तेघां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिविशिष्यते। प्रियो हि ज्ञानिनोउ्त्यर्थमह च्ञ॒ मम प्रियः ॥। (गीता ७। १६-१७) 'हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! उत्तम कर्मवाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ह्ञानी अर्थात्‌ निष्कामी ऐसे चार प्रकारके भक्तजन मुझे भजते हैं। उनमें भी नित्य मेरेमें एकीभावसे स्थित हुआ अनन्य प्रेमभक्तिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है; क्योंकि मुझे तत्त्से जाननेवाले ज्ञानीको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और बह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है।' इस प्रकार निष्काम प्रेमपूर्वक होनेवाले भगवद्धजनके प्रभावको जो मनुष्य जानता है, वह एक क्षणके लिये भी भगवानको नहीं भूलता और भगवान्‌ भी उसको नहीं भूलते भगवानने स्वयं कहा भी है-- यो मां पश्यति सर्वत्न सर्व त् मयि पह्यति। त्तस्पाह प्रणशयात्रि मे प्रणइयति (गौता ६। ३०) जो पुरुष सघ्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ

+ ईश्वर-साक्षात्कारके लिये नामज़प सरोपरि साधन है *

कच्कतल बबथ-ा-मबपा---_--- पड

डेड्ठ

वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंकों मुझ बासुदेवके अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेंरे लिये अदृश्य नहीं होता है; क्योंकि बह मेरेमें एकीभावसे नित्य स्थित है।

भला, सच्ना प्रेमी क्या अपने प्रेपास्पदको छोड़कर कभी दूसरेकों मनमें स्थान दे सकता है 7 जो भाग्यवान्‌ पुरुष परम सुखमय परमात्माके प्रभावको जानकर उसे ही अपना एकमात्र प्रेमास्पद बना लेते है, वे तो अहर्निश उसीके प्रिय नामकी स्मृतिमें तल्‍्लीन रहते हैं, वे दूसरी वस्तु कभी चाहते हैं और उन्हें स॒हाती ही है।

अतणव जहाँतक ऐसी अवस्था हो वहाँतक ऐसा अध्यास करना चाहिये। नामोच्चारण करते समय मन प्रेममें इतना मग्न हो जाना चाहिये कि उसे अपने शरीरका भी ज्ञान रहे। भारी-से-भारी संकट पड़नेपर भी विश्वुद्ध प्रेम-भक्ति और भगवत्-साक्षात्कास्तिके सिवा अन्य किसी भी सांसारिक वस्तुकी कामना, याचना या इच्छा कभी नहीं करनी चाहिये

निष्कामभावसे प्रेमपूर्ठक्ष विधिसहित जप करनेवबाल्य साधक बहुत शीघ्र अच्छा लाभ उठा सकता है।

यदि कोई श्ढा करे कि बहुत लोग भगवतन्नामका जप किया करते हैं परन्तु उनके कोई विशेष लाभ होता हुआ नहीं देखा जाता, तो इसका उत्तर यह हो सकता है कि उन छोगोंने या तो विधिसहित जपका अभ्यास ही नहीं किया होगा या अपने जपरूप परमधनके बदलेमें तुच्छ सांसारिक भोगोंको खरीद लिया होगा, नहीं तो उन्हें अवश्य ही विशेष ल्लाभ होता, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

इसलिये नवामजप किसी प्रकारकी भी छोटी-बड़ी कामनाके लिये करके केवल भगवतके विजुद्ध प्रेमके लिये ही करना चाहिये।

नामजप कैसे करना चाहिये ?

महर्षि पतल्ललिजी कहते हैं---

तस्य चाचक: प्रणव: (योग० १। २७)

'उस परमात्माका वाचक अर्थात्‌ नाम ओंकार है।'

तज्जपस्तदर्थभावनम्‌ (योग० | २८)

'उस परमात्माके नामजप और उसके अर्थकी भावना अर्थात्‌ स्वरूपका चिन्तन करना।'

ततः प्रत्यकृचेतनाधिगमो5प्यन्तरायाभावश्च (याग० १। २९)

'उपर्युक्त साधनसे सम्पूर्ण विश्लोंका नाश और परमात्माकी प्राप्ति भी होती है।'

इससे यह सिद्ध होता है कि नामजप नामीके स्वरूप-

आना: ा----------2--0- 4-८“: 99» »----> -2 ८-2८..." -& -अआ-------पपप्फक .+-अप-सप

चिन्तससहित करना चाहिये। स्वरूपचिन्तनयुक्त नामजप्से अन्तरायोंका नाश और भगवद्माप्ति होती है।

यद्यपि मामी नामके ही अधीन है। श्रीगोस्वामीजी महाशजने कहा है--

देखिअ्हिं. रूप नाम आधीना। रूप ग्यानं नहिं नाम बिहीना॥ सुमिरिभ नाम रूप बछिन्तु देखें। आवत हदयेँ. सनेह बिसेघें इसलिये स्वरूपचिन्तनकी चेष्ठा किये बिना भी केवल नामजपके प्रतापसे ही साधकको समयपर भगवत्स्वरूपका साक्षात्कार अपने-आप ही हो सकता है, परेतु उसमें विलम्ब हो जाता है। भगवान्‌के मनमोहन स्वरूपका चिन्तन करते हुए. जपका अभ्यास करनेसे बहुत ही शीघ्र लाभ होता है; क्योंकि निरन्तर चिन्तन होनेसे भगवानकी स्मतिमें अन्तर नहीं पड़ता इसीलिये भगवानते श्रीगीताडीगें कहा है--- तस्मात्‌ सर्वेधु कालेषु मामनुस्मः युध्य चअत्व। मय्यर्पितमनोबुद्धिममिवैष्यस्यसंशयप, (८। ७)

'अतएव है अर्जुन : तू सब समयमें निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर, इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन, बुद्धिसे युक्त हुआ तू निःसन्देह मुझको ही प्राप्त होगा।' भगवान्‌की इस आज्ञाके अनुसार उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते और प्रत्येक सांसारिक कार्य करते समय साधकको नामजपके साथ-ही-साथ मन, बुद्धिसे भगवानके स्वरूपका चिन्तन और निश्चय करते रहना चाहिये। जिससे क्षणभरके लिये भी उसकी स्मुतिका वियोग हो।

इसपर यदि कोई पूछे कि किस नामका जप अधिक लाभदायक है ? और नामके साथ भगवामके कैसे स्वरूपका ध्यान करना चाहिये ? तो इसके उत्तरमें यही कहा जा सकता हे कि परमात्माके अनेक नाम हैं, उनमेंसे जिस साधककी जिस नाममें अधिक रुचि ओर श्रद्धा हो, उसे उसीके नामजपसे विशेष लाभ होता है। अता्ब साधककों अपनी रुचिके अनुकूल ही भगवानके नामका जप और स्वरूपका चिन्तन करना चाहिये। एक बात अवश्य है कि जिस नामका जप किया जाय, स्वरूपका चिन्तन भी उसीके अनुसार ही होना चाहिये | उदाहरणार्थ---

४० नमो भगवते वासुद्ेवाय ।' इस मन्त्रका जप करनेवालेको सर्वव्यापी वासुदेवका ध्यान करना चाहिये। '३& नमो नारायणाय ।' इस मन्त्रका जप करनेवालेकों चतुर्भुज श्रीविष्णुभगवान्‌का ध्यान करना चाहिये '3% नमः झिवाय'

है. 2.4

मज्रका जप करनेवालैको त्रिनेत्र भगवान्‌ शेकरका ध्यान करना उचित है। केवल <#कारका जप करनेवालेको सर्वव्यापी सचिदानन्दघन शुद्धबह्मका चिन्तन करना उचित है। श्रीगरामनामका जप करनेवालेको श्रीदशस्थनन्दन भगवान्‌ रामचन्द्रजीके स्वरूपका चिन्तन करना लाभप्रद है। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हझे; कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे (कलिसं० १) इस मन्त्र॥ा जप करनेवालेके लिये श्रीराम, कृष्ण, विष्णु या सर्वव्यापी ब्रह्म आदि सभी रूपॉका अपनी इच्छा और रुचिके अनुसार ध्यान किया जा सकता है; क्योंकि यह सब नाम सभी रूपोंके वाचक हो सकते हैं। इन उदाहरणोंसे यही समझना चाहिये कि साधकको गुरुसे जिस नाम-रूपका उपदेश मिला हो, जिस नाम और जिस रूपमें श्रद्धा, प्रेम ओर विश्वासकी अधिकता हो तथा जो अपनी आत्माके अनुकूल प्रतीत होता हो, उसे उसी नाम-रूपके जप-ध्यानसे अधिक लाभ हो सकता है। परन्तु नामजपके साथ ध्यान जरूर होना चाहिये। वास्तवमें नामके साथ नामीकी स्मृति होना अनिवार्य भी है। मनुष्य जिस-जिस कस्तुके नामका उच्चारण करता है उस-उस वस्तुके स्वरूपकी स्मृति उसे एक बार अवश्य होती है और जैसी स्मृति होती है, उसीके अनुसार भल्म-बुरा परिणाम भी अवश्य होता है। जेसे कोई मनुष्य कामके वशीभूत होकर जब किसी ख्लीका स्मरण करता है तब उसकी स्मृतिके साथ ही उसके ररीरमें काम जाग्रत्‌ होकर वीर्यपातादि दुर्घटनाको घटा देता है। इसी प्रकार वीर-रस और करुण स्सप्रधान वृत्तान्तोंकी स्मृतिसि तदनुसार ही मनुष्बकी वृत्तियाँ और उसके भाव बन जाते हैं। साधु चुरुषको याद करनेसे मनमें श्रेष्ठ भावोंकी जागृति होती है और दुशचारीकी स्मृतिसे बुरे भावोका आविर्भाव होता है। जब लौकिक स्मरणका ऐसा परिणाम अनिवार्य है तब परमात्माके स्थरणसे परमात्मेके भाव और गुणोंका अन्तःकरणमें आविर्भाव हो, इसमें तो सन्देह ही क्या है ? अतएव साधकको भगवानके प्रेममें विहल होकर निष्कामभावसे नित्य-निरन्तर दिन-रात कर्तव्यकर्मोंको करते हुए भी ध्यानसहित श्रीभगवन्नामजपकी विद्येष चेष्टा करनी चाहिये सत्सड्से ही नामजपमें श्रद्धा होती है ! नामकी इतनी महिमा होते हुए भी प्रेम और ध्यानयुक्त भगवज्ञाममें लोग क्‍यों नहीं प्रवृत्त होते इसका उत्तर यह

+ तत्त्वच्तिन्तामणि *

है कि भगवत्‌-भजनके असली मर्मको वही मनुष्य जान सकता है जिसपर भगवान्‌की पूर्ण दया होती है।

यद्यपि भगवानकी दया तो सदा ही सबपर समानभावसे है परन्तु जबतक उसकी अपार दयाको मनुष्य पहचान नहीं लेता, तबतक उसे उस दयासे लाभ नहीं होता जैसे किसीके घरमें गड़ा हुआ धन है, परन्तु जबतक वह उसे जानता नहीं तबतक उसे कोई लाभ नहीं होता, परन्तु वही जब किसी जानकार पुरुषसे जान लेता है और यदि परिश्रम करके उस धनको निकाल लेता है तो उसे लाभ होता है। इसी प्रकार भगवान्‌की दयाके प्रभावको जाननेवाले पुरुषोंके सड्ढसे मनुष्यको भगवानकी नित्य दयाका पता लगता है, दयाके ज्ञनससे भजनका मर्म समझमें आता है, फिर उसकी भजनमें प्रवृत्ति होती है और भजनके नित्य-निरन्तर अभ्याससे उसके समस्त सश्ञित पाप समूल नष्ट हो जाते हैं और उसे परमात्माकी प्राप्तिरूप पूर्ण लाभ मिलता है।

नाममें पापनाशकी स्वाभाविक शक्ति है

यहाँपर यदि कोई श्ड्टा करे कि यदि भगवान्‌ भजन करनेवालेके पापोंका नाश कर देते है या उसे माफी दे देते हैं तो क्या उनमें विषमताका दोष नहीं आता ? इसका उत्तर यह है कि जैसे अग्निमें जलनेकी और प्रकाश करनेकी दशाक्ति स्वाभाविक है इसी प्रकार भगवत्नाममें भी पापोंके नष्ट करनेकी स्वाभाविक शक्ति है। इसीलिये भगवानने श्रीगीताजीमें कहा है--

समो5हं सर्वभूतेषु में द्वेष्योउस्ति प्रिय: ये भजन्ति तु मां भकत्था मयि ते तेषु चाप्यहम॥। (९।२९)

'मैं सब भूतोंमें समभावसे व्यापक हूँ, कोई मेरा अप्रिय है और प्रिय है, परन्तु जो भक्त मेरेको प्रेमसे भजते है वे मेरेमें और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ।'

इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैसे शीतसे व्यधित अनेक पुरुषोंमेंसे जो पुरुष अग्रिके समीप जाकर अग्निका सेवन करता है उसीके शीतका निवारण कर अग्नि उसकी उस व्यथाको मिटा देती है परन्तु जो अग्निके समीप नहीं जाते उनकी व्यथा नहीं मिट॒ती इससे अग्निमें कोई विषमताका दोष नहीं आता; क्‍योंकि वह सभीको अपना ताप देकर उनकी व्यथा निवारण करनेको सर्वदा तैयार है। कोई समीप ही जाय तो अग्नि क्या करे ? इसी प्रकार जो पुरुष भगवानका भजन करता है उसीके अन्तःकरणको शुद्ध करके भगवान्‌ उसके दुःखोंका सर्वथा नाश करके उसका कल्याण कर देते है। इसलिये भगवानमें विषमताका कोई दोष नहीं. आती

के ईश्वर-साक्षात्कारके लिये नामजप सब्योपरि साधन है *

नाम-भजमनसे ही ज्ञान हो जाता है

(श्जा) यह बात मान ली गयी कि भगवन्नामसे पापोंका नाझ छोता है परन्तु परमपदकी प्राप्ति उससे कैसे हो सकती है ? क्योंकि परमपदकी प्राप्ति तो केवल ज्ञानसे होती है

(उत्तर) यह ठीक है परमपदकी प्राप्ति ज्ञानसे ही होती है, परन्तु श्रद्धा, प्रेम और विश्वासपूर्वक निष्कामभावसे किये जानेदाले भजनके प्रभावसे भगवान्‌ उसे अपना वह ज्ञान प्रदान करते हैं कि जिससे उसे भगवानके स्वरूपका तत्त्वज्ञान हो जाता हैं और उससे उस साधकको परमपदकी प्राप्ति अवश्य हो जाती है। भगवानने कहा हैं--

मश्चत्ता मज्ततप्राणा बोधयन्तः परस्परम। कथयन्तश्न मां नित्यं तुष्यन्ति चर स्मन्ति चर तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम। ददामि बुद्धियोग॑ ते येन मामुपयान्ति ते॥ तेषामेबानुकप्पार्थभहमज्ानजं तमः नाहयाम्यात्मभावस्थोी.. ज्ञानदीपेन. भास्वता (गीता १० | ९--११) निरन्तर मेरेमें मन लगानेवाले, मेरेमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन सदा ही मेरी भक्तिकी चर्चाके द्वारा आपसमें मेरे प्रभावको जनाते हुए तथा गुण ओर प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए सन्तुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेवमें ही निरन्तर रमण करते हैं, उन निरन्तर मेरे ध्यानमें छगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ. कि जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं। उमके ऊपर अनुग्रह करनेके लिये ही मैं स्वयं उनके अन्तःकरणमें एकीभावसे स्थित हुआ अज्ञानसे उत्पन्न हुए अन्धकारको प्रकाशमय तत्त्वज्ञनरूप दीपकद्दारा नष्ट करता हूँ।'

अतएब निरुत्तर प्रेमपूर्वक निष्काम नामजप और स्वरूप- चिन्तनसे स्वतः ही ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और उस ज्ञानसे साधकको सत्वर ही परमपदको प्राप्ति हो जाती है।

नामकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये

कुछ भाई नामजपके महत्त्वको नहीं समझनेके कारण उम्रकी निन्‍्दा कर बैठते हैं, वे कहा करते है कि--'राम-राम' करना और 'टायँ-टाये' करना एक समान ही है। साथ ही यह भी कहा करते हैं कि नाम॑जपके ढोंगसे आलसी बनकर अपने जीवनको नष्ट करना है। इसी तरहकी और भी अनेक बातें कही जाती हैं

ऐसे भाइयोंसे मेरी प्रार्थना है कि बिना ही जाँच किये इस प्रकारसे नामजपकी निन्‍्दा कर जप करनेवालोंके हृदयमें अश्रद्धा उत्मन्न केरनेकी बुरी चेष्टा किया करें, बल्कि कुछ

समयतक नामजप करके देखें कि उससे क्या लाभ होता है। व्यर्थ ही निन्‍दा या उपेक्षाकर पाप-भाजन नहीं बनना चाहिये | नामजपमें प्रमाद और आलस््य करना उचित नहीं बहुत-से भाई नामजप या भजनको अच्छा तो समझते हैं परन्तु प्रमाद या आलस्यवद्य भजन नहीं करते | यह उनकी बड़ी भारी भूल है। इस प्रकार दुर्लभ परल्तु चर | मनुष्य-शरीरको प्राप्त करके जो भजनमें आलस्य करते हैं क्या कहा जाय ? जीवनका सद्व्यय भजनमें ही है, यदि अभी प्रमादसे इस अमूल्य सुअवसरको खो दिया तो पीछे सिवा पश्चात्तापरों और कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। कबीरजीने कहा है-- मरोगे मरि जाओगे, कोई छेगा नाम। ऊजड़ जाय बसाओगे, छाड़ि बसन्ता गाम॥ आजकालकी पाँच दिन, जंगल होगा बास। ऊपर ऊकृपर हल फिरै, छोर चरेंगे घास॥ आज कहे में काल भजूँ, काल कट्ठे फिर काल आजकालके करत ही, ओऔसर जासी चाल काल भजन्ता आज भज, आज भजन्ता अब पलमें परलय होयगी, फेर भजेगा कब अतएव आल्स्य और प्रमादका परित्याग करके जिस-किस प्रकारसे भी हो, उठते, बैठते, सोते और सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोको करते हुए सदा-सर्वदा भजन करनेका अभ्यास अवश्य करना चाहिये।

'मा' बच्चोंको भुलानेके लिये उनके सामने नाना प्रकारके खिलोने डाल देती है, कुछ खानेके पदार्थ उनके हाथमें दे देती है, जो बच्चे उन पदार्थोमें रमकर 'मा' के लिये रोना छोड़ देते हैं, 'मा' भी उन्हें छोड़कर अपना दूसरा काम करने लगती है, परन्तु जो बच्चा किसी भी भुलावेमें भूलकर केबल 'या-या' पुकारा करता हैं, उसे 'मा' अवश्य ही अपनी गोदमें लेनेको बाध्य होती है, ऐसे जिद्दी बच्चेके पास घरके सारे आवश्यक कामोंको छोड़कर भी माकों तुरंत आना और उसे अपने हृदयसे लगाकर दुल्लारना पड़ता है; क्योंकि माता इस बातको जानती हैं कि यह बच्चा मेरे सिवा और किसी विषयमें भी नहीं भूलता है।

इसी प्रकार भगवान्‌ भी भक्तको परीक्षाके लिये उसके इच्छानुसार उसे अनेक प्रकारके विषयोंका प्रकोभन देकर भुलाना चाहते हैं। जो उनमें भूल जाता है बह तो इस परीक्षामें अनुत्तीर्ण होता है परन्तु जो भाग्यवान्‌ भक्त संसारके समस्त पदार्थोंकोीं तुच्छ, क्षणिक ओर नाशवान्‌ समझकर उ्हें लांत मार देता है और प्रेममें मप्र होकर सच्चे मनसे उस

डद्द * तत्त्वचिन्तामणि *

सच्चिदानन्दमयी मातासे मिलनेके लिये ही लूमातार रोया करता | सन्तुष्ट करते है परंतु भगवान्‌ ऐसा नहीं करते, उनका तो यह है, ऐसे भक्तके लिये सम्पूर्ण कामोंकी छोड़कर भगवानकों | नियम है कि उनको जो जिस भावसे भजता है उसको वे भी

स्वयं तुरंत ही आना पड़ता है महात्मा कबीरजी कहते हैं-- केशत केशव कूकिये, कूकिये असार। रात दिवसके कूकते, कभी तो सुनें पुकार राम नाम्त रटतते रहो, जबलग घटमें प्रान ! कबहूँ त्तो दीनदयालके, भनक परेगी कान॥। इसलिये संसारके समस्त विषयोंको विषके लडूडू समझते हुए उनसे मन हटाकर श्रीपरमात्माके पावन नामके जपमें छूग जाना ही परम कर्तव्य है। जो परमात्माके नामका जप करता है, दयालु परमात्मा उसे शीघ्र ही भव-बन्धनसे मुक्त कर देते हैं। यदि यह कहा जाय कि ईश्वर न्‍्यायकारी है, भजनेवालेके ही पाषोंका नाश करके उसे परमगति प्रदान करते हैं तो फिर उन्हें दयालु क्यों कहना चाहिये ? यह कथन युक्तियुक्त नहीं है। संसारके बड़े-बड़े राजा-महाराजा अपने उपासकोंकों बाह्य धनादि पदार्थ देकर

उसी भावसे भजते हैं। ये यथा मां प्रयच्चन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम (गीता ४। ११)

परमात्मा छोटे-बड़ेका कोई खयाल नहीं करते। एक छोटे-से-छोटा व्यक्ति परमात्माकों जिस भावसे भजता है, उनके साथ जैसा बर्ताव करता है, वे भी उसको वैसे ही भजते और बैसा ही बर्ताव करते हैं। यदि कोई उनके लिये रोकर व्याकुल होता है तो वे भी उससे मिलनेके लिये उसी प्रकार अकुला उठते हैं। यह उनकी कितनी दयाकी बात है

अतए्व इस अनित्य, क्षणभड्भूर, नाशबान्‌ संसारके समस्त मिथ्या भोगोंको छोड़कर उस सर्वशक्तिमान्‌ न्‍्यायकारी शुद्ध परम दयाल सच्चे प्रेमी परमात्माके पावन नामका निष्काम प्रेमभावसे ध्यानसहित सदा-सर्वदा जप करते रहना चाहिये

संसारके समस्त दुःखोंसे मुक्त होकर ईश्वर-साक्षात्कारके लिये नामजप ही सवोर्परि युक्तियुक्त साधन है।

न्‍तन+ नततत< भगवानके दर्शन प्रत्यक्ष हो सकते हें

बहुत-से सज्जन मनमें श्ढ उत्पन्न कर इस प्रकारके प्रश्न किया करते है कि दो प्यारे मित्र जैसे आपसमें मिलते है क्या इसी प्रकार इस कलिकालमें भी भगवानके प्रत्यक्ष दर्शन मिल सकते हैं ? यदि सम्भव है तो ऐसा कौन-सा उपाय है कि जिससे हम उस मनोमोहिनी मूर्तिका शीघ्र ही दर्शन कर सकें ? साथ ही यह भी जानना चाहते हैं, क्‍या वर्तमान कालमें ऐसा कोई पुरुष संसारमें है जिसको उपर्युक्त प्रकारसे भगवान्‌ मिले हों ?

वास्तवमें तो इन तीनों प्रश्नोंका उत्तर वे ही महान्‌ पुरुष दे सकते हैं जिनको भगवानकी उस मनोमोहिनी मूर्तिका साक्षात्‌ दर्शन हुआ हो।

यद्यपि मैं एक साधारण ब्यक्ति हूँ तथापि परमात्माकी और महान्‌ पुरुषोंकी दयासे केवल अपने मनोविनोदार्थ तीनों अश्नोंके सम्बन्धमें क्रमशः कुछ लिखनेका साहस कर रहा हूँ।

(१) जिस तरह सत्ययुगादिमें ध्रुव, प्रह्मादादिको साक्षात्‌ दर्शन होनेके प्रमाण मिलते है उसी तरह कलियुममें भी सूरदास, तुलसीदासादि बहुत-से भक्तोंको प्रत्यक्ष दर्शन होनेका इतिहास मिलता है ; बल्कि विष्णुपुराणादिमें तो सत्ययुगादिकी अपेक्षा कलियुगमें भगवत्‌-दर्शन होना बड़ा ही सुगम बताया हे।

श्रीमद्धागवतमें भी कहा है--

कृते यद्‌ ध्यायतो बिष्णं त्रेतायों यजतो मख्त्रे:। द्वापपे. परिचर्यायां कलोौ तद्धरिकीर्त्तनात्‌ (१२।३। ५२)

सत्ययुगमें निरन्तर विष्णुका ध्यान करनेसे, ज़ेतामें यज्ञद्वास यजन करनेसे और द्वापरमें पूजा (उपासना) करनेसे जो परमगतिकी प्राप्ति होती है वही कलियुगमें केवल नाम-कीर्तनसे मिलती है ।'

जैसे अरणीकी लकड़ियोंको मथनेसे अग्नि प्रज्वकछित हो जाती है, उसी प्रकार सच्चे हृदयकी प्रेमपूरित पुकारकी रगड़से अर्थात्‌ उस भगवानके प्रेममय नामोच्चारणकी गम्भीर ध्वनिके प्रभावसे भगवान्‌ भी प्रकट हो जाते है| महर्षि पतञ्ञलिने भी अपने योगदर्शनमें कहा है--

स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोग: | (२ ४४)

'आमोच्चारसे इष्टदेव परमेश्वरके साक्षात्‌ दर्शन होते हैं।'

जिस तरह सत्य-सड्डूल्पवाला योगी जिस वस्तुके लिये सड्डूल्प करता है वही वस्तु प्रत्यक्ष प्रकट हो जाती है, उसी तरह शुद्ध अन्तःकरणवाला भगवानका सच्चा अनन्य प्रेमी भक्त जिस समय भगवानके प्रेममें मग्न होकर भगवानकी जिस प्रेममयी मूर्तिके दर्शन करनेकी इच्छा करता है उस रूपमें ही भगवान्‌ तत्काल प्रकट हो जाते है गीता अ० ११ इलोक ५४ में भगवानने कहा है--

____* भगवानके दर्शन प्रत्यक्ष हो सकते हैं. भगवानके दर्शन प्रत्यक्ष हो सकते हैं *

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>> 3...

सब.

भक्‍्त्या त्वनन्यया शक्‍य अहमेजंधिधोउर्जुन ज्ञातुं दर च॒ तक््वेन प्रवेष्ट परंतप

हे श्रेष्ठ तपबाले अर्जुन! अनन्य भक्ति करके तो इस प्रकार (चतुर्भज) रूपबाला मैं प्रत्यक्ष देखनेके लिये और तत्वसें जाननेके लिये तथा प्रवेश करनेके लिये अर्थात्‌ एकीभावसे प्राप्त होनेके लिये भी शक्य हूँ।'

एक प्रेमी मनुष्यकी यदि अपने दूसरे प्रेमीसे मिलनेकी उत्कट इच्छा हो जाती है और यह खबर यदि दूसरे प्रेमीको मालुम हो जाती हैं तो वह स्वयं बिना मिले नही रह सकता, फिर भल्ता यह कैसे सम्भव है कि जिसके समान प्रेमके रहस्यको कोई भी नही जानता वह प्रेममूर्ति परमेश्वर अपने प्रेमी भक्तसे बिना मिले रह सके ?

अतएव सिद्ध होता हैं कि बह प्रेममूर्ति परमेश्वर सब काल तथा सब देश्षमें सब मनुष्योंको भक्तिवश होकर अवदृय ही प्रत्यक्ष दर्शन देते है।

(२) भगवानके मिलनेके बहुत-से उपायोंमेंसे सर्वोत्तम उपाय है “सच्चा प्रेम' | उसीको झाम््रकारोंने अव्यभिचारिणी भक्ति, भगवानमें अनुरक्ति, प्रेमा भक्ति और विशुद्ध भक्ति आदि नामोंसे कहा है।

जब सत्सड्र, भजन, चिन्तन, निर्मलता, वैराग्य, उपर्रति, उत्कट इच्छा और परमेश्वरविषयक व्याकुलता क्रमसे होती है तब भ्गवानमें सच्चा विशुद्ध प्रेम होता है।

शोक तो इस बातका है कि बहुत-से भाइयोंको तो भगवान्‌के अस्तित्वमें ही विश्वास नहीं है। कितने भाइयोंको यदि विश्वास है भी, तो वे क्षणभब्जुर नाइबान्‌ विषयोंके मिथ्या सुखमें लिप्त रहनेके कारण उस प्राणप्यरेके मिलनेके प्रभावको और महत्त्वको ही नहीं जानते | यदि कोई कुछ सुन-सुनाकर तथा कुछ विश्वास करके उसके प्रभावकों कुछ जान भी लेते है तो अल्प चेष्टासे ही सन्तुष्ट होकर बैठ जाते है या थोड़े-से साधनोंमें ही निराश-से हो जाया करते हैं। द्रव्य-उपार्जनके बराबर भी परिश्रम नहीं करते।

बहुत-से भाई कहा करते हैं कि हमने बहुत चेष्टा की परन्तु ग्राणप्यारे परमेश्वरके दर्शन नहीं हुए। उनसे यदि पूछा जाय कि क्या तुमने फाँसीके मामलेसे छूटनेकी तरह भी कभी संसारकी जन्म-मरण-रूपी फाँसीसे छूटनेकी चेष्टा की ? घृणास्पद, निन्दनीय ख्लीके प्रेममें वशीभूत होकर उसके मिलनेकी चेष्टाके समान भी कभी भगवानसे मिलनेकी चेष्टा की ? यदि नहीं, तो फिर यह कहना कि भगवान्‌ नहीं मिलते, सर्वथा व्यर्थ है।

जो मनुष्य शर-शय्यापर शयन करते हुए पितामह भीष्मके सदृश भगवानके ध्यानमें मस्त होते हैं, भगवान्‌ भी उनके ध्यानमें उसी तरह मग्न हो जाते है। गीता अ" इलोक ११ में भी भगवानने कहा है--

ये यथा मां अपहान्ते तांस्तथेव भज़ाम्यहम्‌।

हे अर्जुन | जो मुझको जैसे भजते हैं में भी उनको वैसे ही भजता हूँ।'

भगवानके निरन्तर नामोचारके प्रभावसे जब क्षण-क्षणमें रोमाज्ञ होने लगते है, तब उसके सम्पूर्ण पायोंका नाश होकर उसको भगवानके सिवा और कोई वस्तु अच्छी नहीं छगती। विरह-वेदनासे अत्यन्त व्याकुल होनेके कारण नेत्रोंसे अश्रुधास बहने लूम जाती हैं तथा जब वह त्रेलोक्यके ऐश्वर्यको लात मारकर गोपियोंकी तरह पागल हुआ बिचरता है और जलसे बाहर निकाली हुई मछलीके समान भगकानके लिये तड़पने लगता है, उसी समय आनन्दकन्द प्यारे ज्यामसुन्दरकी मोहिनी मूर्तिका दर्शन होता हैं। यही है उस भगवानसे मिलनेकी सच्चा उपाय

यदि किसीको भी भगवानके मिलनेकी सच्ची इच्छा हो तो उसे चाहिये कि वह रुक्मिणी, सीता और व्रजबालाओंकी तरह सच्चे प्रेमपूरित हृदयसे भगवानूसे मिलनेके लिये विलाप करे |

(३) यद्यपि प्रकटमें तो ऐसे पुरुष कलिकालमें नहीं दिखायी देते जिनको उपर्युक्त प्रकारसे भगवानके साक्षात्‌ दर्शन हुए हों, तथापि सर्वथा हों यह भी सम्भव नहीं. हैं; क्योंकि प्रह्दाद आदिकी तरह हजारोंमेंसे कोई कारणबिशेषसे ही किसी एककी लोकप्रसिद्धि हो जाया करती है, नहीं तो ऐसे लोग इस बातको विख्यात करनेके लिये अपना कोई प्रयोजन ही नहीं समझते।

यदि यह कहा जाय कि संसार-हितके लिये सबको यह जताना उचित है, सो ठीक है, परन्तु ऐसे श्रद्धालु श्रेता भी मिलने कठिन हैं तथा बिना पात्रके विश्वास होना भी कठिन है | यदि बिना पात्रके कहना आरम्भ कर दिया जाय तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं रहता और कोई विश्वास ही करता है।

अतः हमें विश्वास करना चाहिये कि ऐसे पुरुष संसारमें अवश्य हैं, जिनको उपर्युक्त प्रकारसे दर्शन हुए हैं। परन्तु उनके मिलनेमें हमारी अश्रद्धा ही हेतु है और विश्वास करनेकी अपेक्षा विश्वास करना ही सबके लिये लाभदायक हे; क्योंकि भगवानसे सच्चा प्रेम होनेमें तथा दो मिन्नोंकी तरह भगवान्‌की मनोमोहिनी मूर्तिके प्रत्यक्ष दर्शन मिलनेमें विश्वास | ही मूल कारण है।

स्स्नननन फै नतननन+

डड८

* सत्त्वच्िन्तामणि *

प्रत्यक्ष भगवदहर्शनके उपाय

आनन्दमय भगबानके प्रत्यक्ष दर्शन होनेके लिये सर्वोत्तम उपाय 'सच्चा प्रेम' है। वह प्रेम किस प्रकार होना चाहिये और कैसे प्रेमसे भगवान्‌ प्रकट होकर प्रत्यक्ष दर्शन दे सकते हैं ? इस विषयमें आपकी सेवामें कुछ निवेदन किया जाता है।

अनेक विघ्न उपस्थित होनेपर भी घुबकी तरह भगबानके ध्यानमें अचल रहनेसे भगवान्‌ प्रत्यक्ष दर्शन दे सकते हैं।

भक्त प्रह्मादकी तरह राम-नामपर आनन्‍दपूर्वक सब प्रकारके कष्ट सहन करनेके लिये एबं तीक्ष्ण तलवारकी धारसे

मस्तक कटानेके लिये सर्वदा प्रस्तुत रहनेसे भगवान प्रत्यक्ष

दर्शन दे सकते हैं। श्रीलक्ष्मणकी तरह कामिनी-काइ्नको त्यागकर भगवान्‌के लिये चन-गमन करनेसे भगवान्‌ प्रत्यक्ष मिल सकते हैं ऋषिकुमार सुतीक्ष्णकी तरह प्रेमोन्मत्त होकर विचरनेसे भगवान्‌ मिल सकते है। श्रीरामके शुभागमनके समाचारसे सुतीक्ष्णफी केसी बिलक्षण स्थिति होती है इसका वर्णन श्रीतुलसीदासजीने बढ़े ही प्रभावशाली झब्दोंमें किया है। भगवान्‌ शिवजी उमासे / कहते हैं-- होइहैँ सुफल आजु मम लोचन | देखि बदन पंकज भकत्र मोचन निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। ' कह्ठटि जाइ सो दसा भवानी दिसि अरू बिदिसि पंथ नहिं सूझा। को मैं चलेडे कहाँ नहिं बूझा कबहँक फिरि पाछें पुनि जाई। कबहुँक नृत्य कर गुन गाई॥ अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखें तर ओट अतिस्य प्रीति देखि रघुबीरा। प्रणटटे हृदयँ हरमन भव भीरा॥ मुनि मग माझ अचल होड़ बैसा। पुलक सरीर पन्‍्स फल जेसा तब रघुनाथ निकट चलि आए। देखि दसा निज जन मन भाए॥ राम सुसाहेब संत प्रिय सेवक दुख दारिद दूवन मुनि सन प्रभु कह आइ उठ उठु द्विंज मम ग्रान सम श्रीहनुमानजीकी तरह प्रेममें विहक होकर अति श्रद्धासे भगवानकी शरण ग्रहण करनेसे भगवान्‌ प्रत्यक्ष

लुकाई

मिल सकते हैं। कुमार भरतकी तरह राम-दर्शनके लिये प्रेममें विहल होनेसे भगवान्‌ प्रत्यक्ष मिल सकते हैं चौदह॒ सालकी अवधि पूरी होनेके समय प्रेममूर्ति भरतजीकी कैसी विलक्षण दशा थी, इसका वर्णन श्रीतुलसीदासजीने बहुत अच्छा किया है-- रहेठ एक दिन अवधि अधारा। समुझत मन दुख भयउठ अपार कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किथों मोहि बिसरायउ धन्य लकछिमन बड़भागी | राम पदारबिंदु अनुरागी कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं हलीन्हा॥ जौँ करनी समुझे प्रभु मोरी | नहिं. निस्तार कल्प सत कोरी</